पिछले वर्ष देश ने भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर अपना पहला जनजातीय गौरव दिवस मनाया था। आजादी के बाद देश में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर देश के जनजातीय समाज की कला-संस्कृति, स्वतंत्रता और राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान को याद किया जा रहा है। यह एक सुखद और स्वागतयोग्य पहल है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संकल्पना एक भारत श्रेष्ठ भारत को अवश्य ही मजबूत करेगी।
मई 2014 में मात्र सत्ता के नहीं बल्कि व्यवस्था के परिवर्तन की नींव रखी गई थी। प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने पिछले 8 वर्षों में आदिवासी कल्याण को नीति और नीयत के आधार पर प्राथमिकता दी है।
यह सही है कि आज आदिवासी गौरव की बात होती है लेकिन एक समय ऐसा भी था जब लोगों को यह विश्वास ही नहीं होता था कि भारत की संस्कृति को मजबूत करने में जनजातीय समाज का कितना बड़ा हाथ है।
इसकी वजह है कि जनजातीय समाज के योगदान के बारे में देश को या तो बताया नहीं गया या फिर तमाम जनजातीय नायकों को अँधेरे में रखने की कोशिश की गई या कहीं कोई उल्लेख किया भी गया तो वह सीमित दायरे में किया गया। ऐसा इसीलिए किया गया क्योंकि देश में लम्बे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस ने अपनी स्वार्थ भरी राजनीति को प्राथमिकता दी।
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा होने के बाद भी आदिवासी समाज को, उनकी संस्कृतियों को, उनके सामर्थ्य को भी नजरअंदाज कर के रखा गया। आदिवासियों का दुःख, उनकी तकलीफें, बच्चों की शिक्षा, उनके स्वास्थ्य को लेकर कोई ठोस पहल नहीं की गई थी।
आदिवासी क्षेत्र भौगोलिक रूप से बहुत कठिन होते हैं, ऐसा बहाना बनाकर कहा जाता था कि वहां सुविधाएं पहुँचाना मुश्किल है। दरअसल यह कोई समस्या नहीं बल्कि अपनी जवाबदेही से बचने का एक शार्टकट था। यह बहाना कर के आदिवासी समाज की सुविधाओं को प्राथमिकता नहीं दी गई। उन्हें उनके भाग्य पर छोड़ दिया गया।
हालांकि मई 2014 में अपनी सरकार के गठन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हमारी सरकार गरीबों, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की सरकार है जिसके मूल में गरीब कल्याण समाहित है। ऐसे बहुत से महत्वपूर्ण और तथ्यपरक बिंदु हैं जिनके अध्ययन से यह स्थापित होता है कि मोदी सरकार ने आदिवासियों के कल्याण के लिए, उनके जीवन में व्यापक रूप से सकारात्मक परिवर्तन के लिए निरंतर प्रयास किए जिनमें सफलताएं प्राप्त हो रही हैं।
केंद्र की कांग्रेस और भाजपा की सरकारों की यदि तथ्यात्मक रूप से तुलना की जाए तो हमें एक बड़ा अंतर देखने को मिलता है। एक तरफ जहाँ पिछली सरकार के कार्यकाल में आदिवासियों के लिए वार्षिक बजट 4295 करोड़ का था वहीं प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में इस वर्ष 2022-23 के लिए 8451 करोड़ से भी अधिक का प्रावधान किया है।
आज वनधन योजना हो या फिर वनोपज को एमएसपी के दायरे में लाना हो, ऐसी अनेक योजनाएं आदिवासी क्षेत्रों में अभूतपूर्व अवसर पैदा कर रही हैं। यदि हम पिछली सरकारों की तुलना करें तब 8 या 10 वन उपज पर एमएसपी दिया जाता था लेकिन आज 90 वन उपज पर एमएसपी दिया जा रहा है।
इसी क्रम में मोदी सरकार ने आदिवासी युवाओं की शिक्षा और उनके कौशल विकास पर भी ध्यान दिया है। आज एकलव्य मॉडल रेजिडेंशियल स्कूल आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की नई मशाल को जलाए हुए हैं।
आंकड़े बताते हैं कि 7 वर्ष पहले तक प्रत्येक छात्र पर सरकार 40 हजार खर्च करती थी वहीं आज एक लाख रूपए से भी अधिक खर्च कर रही है। इसके अलावा 30 लाख आदिवासी युवाओं को स्कॉलरशिप भी दिया जा रहा है। आजादी के बाद जहाँ देश में सिर्फ 18 ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट बनें वहीं पिछले सात साल में 9 नए संस्थानों की स्थापना हो चुकी है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी स्थानीय भाषा में पढ़ाई पर जोर देकर मोदी सरकार ने यह तय किया है कि आजादी के अमृत काल में आदिवासी समाज को विकास की मुख्य धारा में शामिल करने का लक्ष्य प्राप्त करना है।
मोदी सरकार ने सही मायनों में आदिवासी समाज को देश के विकास की यात्रा का सहयात्री बनाया है और उन्हें हिस्सेदारी भी दी जा रही है। आज चाहे गरीबों के घर हों, मुफ्त बिजली और गैस कनेक्शन हों, स्कूल हो, सड़क हो, मुफ्त इलाज हो, यह सारी सुविधाएं जैसे-जैसे देश के सभी हिस्सों तक पहुँच रही हैं उसी के अनुरूप हमारा आदिवासी समाज भी लाभान्वित हो रहा है।
पिछले वर्ष देश ने भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर अपना पहला जनजातीय गौरव दिवस मनाया था। आजादी के बाद देश में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर देश के जनजातीय समाज की कला-संस्कृति, स्वतंत्रता और राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान को याद किया जा रहा है। यह एक सुखद और स्वागतयोग्य पहल है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संकल्पना एक भारत श्रेष्ठ भारत को अवश्य ही मजबूत करेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)