वोट बैंक की राजनीति करने वाली सरकारों ने दलहनी-तिलहनी फसलों और मोटे अनाजों की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। नतीजा भारत दुनिया में खाद्य तेल और दालों का सबसे बड़ा आयातक बन गया। मोदी सरकार के प्रयासों से पिछले छह वर्षों में दालों का घरेलू उत्पादन 1.72 करोड़ टन से बढ़कर 2.32 करोड़ टन तक पहुंच गया। दशकों बाद भारत दालों के मामले में आत्मनिर्भर बना है।
1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति ने एकफसली खेती को बढ़ावा दिया। इससे जहां गेहूं-धान के उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी हुई वहीं दलहनी-तिलहनी व मोटे अनाजों की खेती अनुर्वर व सीमांत भूमियों पर धकेल दी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत खाद्य तेल और दालों का दुनिया में सबसे बड़ा आयातक बन गया। जहां तक दालों का सवाल है तो भारत हर साल 50 से 60 लाख टन दाल आयात करने लगा।
दलहनी फसलों की खेती में सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि जहां भारतीय किसानों ने दालों की खेती को उपेक्षित किया वहीं आस्ट्रेलिया, कनाडा, म्यांमार जैसे मांसाहारी देशों ने दलहनी फसलों की खेती शुरू कर दिया।
भारतीय मांग को ध्यान में रखकर आस्ट्रेलिया में चना, कनाडा में मटर और म्यांमार में अरहर की खेती बड़े पैमाने पर की जाने लगी। भारत में दालों की बढ़ती खपत और दालों के व्यापार में भारी मुनाफे को देखते हुए कई कारोबारियों ने अफ्रीकी देशों में हजारों एकड़ जमीन पट्टे पर लेकर दालों की खेती शुरू कर दिया।
क्रय क्षमता में वृद्धि, मध्य वर्ग का विस्तार, शहरीकरण जैसे कारणों से भारत में दालों की खपत बढ़ी जिससे दाल आयात में भी तेजी आई। इससे विदेशों में दलहनी फसलों की खेती बढ़ती गई। इसका नतीजा यह हुआ कि जहां देश में गेहूं-चावल के पहाड़ खड़े हो गए वहीं दूसरी ओर रसोईं में देसी दाल कम होती गई।
2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने दालों का घरेलू उत्पादन बढ़ाने को प्राथमिकता दिया ताकि हर साल दाल आयात पर खर्च होने वाले 16,000 करोड़ रूपये देश के किसानों तक पहुंचे। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत देश भर में 5000 दलहनी गांव विकसित किए गए जहां की दलहनी फसलों के उन्नत बीज तैयार किए गए। उन्नत बीजों के मिनी किट किसानों तक डाकघरों के माध्यम से पहुंचाए गए। हर खेत को पानी और पर ड्रॉप मोर क्रॉप के तहत सिंचाई सुविधा का विस्तार किया गया।
मोदी सरकार ने न सिर्फ दलहनी फसलों के न्यूनतम समर्थन में भरपूर बढ़ोत्तरी किया बल्कि उनकी सरकारी खरीद भी बढ़ाया। पिछले छह वर्षो में विभिन्न प्रकार की दालों के समर्थन मूल्य में 40 से 73 फीसद की बढ़ोत्तरी की गई। सरकार ने कुछ दालों के आयात पर मात्रात्मक प्रतिबंध लगा दिया तो कुछ में आयात शुल्क बढ़ा दिया ताकि आयात को हतोत्साहित किया जा सके।
दालों की महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार ने 10 लाख टन दालों का बफर स्टॉक बनाया है। सरकारी खरीद बढ़ने का नतीजा यह हुआ कि किसानों को उनकी उपज की बेहतर कीमत मिलने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि जहां 2014 में दालों की पैदावार 1.72 करोड़ टन हुई थी वहीं 2019 में यह बढ़कर 2.32 करोड़ टन तक पहुंच गई। इन सबका नतीजा यह हुआ कि भारत दशकों बाद दालों के मामले में आत्मनिर्भर बना।
दालों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब खाद्य तेलों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने की मुहिम छेड़ चुके हैं। दरअसल मोदी सरकार किसानों की आमदनी दो गुनी करने के लिए गेहूं, धान, गन्ना जैसी चुनिंदा फसलों की एकफसली खेती की जगह पारिस्थितिक दशाओं के अनुरूप विविध फसलों की खेती को बढ़ावा देने की दूरगामी नीति पर काम कर रही है।
इसमें दलहनी, तिलहनी फसलों, पौष्टिक मोटे अनाजों, फल-फूल और औषधीय पौधों की खेती महत्वपूर्ण है। इससे न सिर्फ फसल चक्र का पालन होगा बल्कि लगातार गिरते भूजल स्तर पर भी रोक लगेगी।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)