मुक्‍त व्‍यापार को भारतीय हितों के अनुकूल ढाल रही है मोदी सरकार

संप्रग सरकार ने मुक्‍त व्‍यापार नीतियों को जमकर बढ़ावा दिया ताकि बिचौलिए व सत्‍ता के दलाल इसका फायदा उठा सकें। नतीजा यह हुआ कि भारत का व्‍यापार घाटा तेजी से बढ़ा। इसी को देखते हुए प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने सभी मुक्‍त व्‍यापार वार्ताओं की समीक्षा का निर्देश दिया ताकि भारतीय हितों का आंच न पहुंचे। जिन वार्ताओं में भारतीय हितों पर ध्‍यान नहीं दिया गया था, वहां मोदी सरकार पीछे हट गई। इसका ज्‍वलंत उदाहरण है आरसेप। 

एक ऐसे दौर में जब वैश्‍वीकरण अपनी चमक खो रहा हो, 15 देशों द्वारा दुनिया के सबसे बड़े व्‍यापारिक समझौते पर हस्‍ताक्षर करना कम महत्‍वपूर्ण नहीं है। दुनिया के सकल घरेलू उत्‍पाद में तीस फीसद योगदान देने वाले क्षेत्रीय समग्र व्‍यापारिक भागीदारी (दी रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप या आरसेप) समझौते पर वियतनाम की राजधानी हनोई में वर्चुअल बैठक में हस्‍ताक्षर किए गए। इस समझौते में आसियान के दस सदस्‍य देशों के अलावा जापान, दक्षिण कोरिया, आस्‍ट्रेलिया, न्‍यूजीलैंड और चीन शामिल हैं। 

गौरतलब है कि भारत आरसेप वार्ताओं में शुरू से शामिल रहा लेकिन 9 वर्षों तक चली व्‍यापार वार्ता के बाद नवंबर 2019 में भारत ने इस समझौते से कदम खीच लिया था। उस समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि समाज के कमजोर वर्गों और उनकी आजीविका पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में सोचकर उन्‍होंने आरसेप से पीछे हटने का फैसला लिया। प्रधानमंत्री ने यह फैसला फिक्‍की, एसोचैम जैसे अग्रणी उद्योग संगठनों और भारत सरकार द्वारा गठित सलाहकार समिति की सिफारिशों को ठुकराते हुए लिया था। 

उस समय प्रधानमंत्री मोदी ने महात्‍मा गांधी की उस सलाह का ख्‍याल करते हुए समझौते से मना कर दिया जिसमें गांधी जी ने कहा था कि सबसे कमजोर और सबसे गरीब शख्‍स का चेहरा याद करो और सोचो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो उसका उन्‍हें कोई फायदा पहुंचेगा या नहीं।

सांकेतिक चित्र (साभार : Business Standard)

दरअसल मुक्‍त व्‍यापार के कई कटु अनुभवों को देखते हुए प्रधानमंत्री ने आरसेप से अलग होने का फैसला लिया था। वर्ष 2002 में आसियान और चीन के बीच मुक्‍त व्‍यापार समझौता हुआ था लेकिन इससे आसियान देशों की तुलना में चीन को बहुत अधिक फायदा हुआ। 2010 में भारत और आसियान के बीच हुए मुक्‍त व्‍यापार समझौते के बाद भारत में बागवानी किसानों को बहुत नुकसान उठाना उड़ा क्‍योंकि सस्‍ते आयात से नारियल, कॉफी, काली मिर्च व रबड़ की कीमतें तेजी से कम हुईं। 

सबसे बड़ी बात यह रही कि आसियान और चीन के बीच हुए मुक्‍त व्‍यापार समझौते की आड़ में चीन निर्मित वस्‍तुएं आसियान देशों के रास्‍ते भारत में धड़ल्‍ले से डंप की जाने लगीं। आज देश के सभी शहरों के मुख्‍य बाजार चीनी वस्‍तुओं से पटे हैं तो उसका कारण मुक्‍त व्‍यापार की नीतियां ही हैं। स्‍पष्‍ट है, आरसेप समझौते से किसानों, छोटे उद्यमियों व कारोबारियों को भारी नुकसान उठाना पड़ता।

चीन-अमेरिका संघर्ष और कोविड 19 आपदा ने चीन पर व्‍यापार व निवेश संबंधी निर्भरता के खतरे को उजागर करने का काम किया है। भारत को डर है कि आरसेप समझौते के सहारे चीन इस क्षेत्र में अपनी सैन्‍य और आर्थिक सर्वोच्‍चता थोपेगा।  

आलोचक यह तर्क दे रहे हैं कि मोदी सरकार ने 2024 तक घरेलू अर्थव्‍यवस्‍था के लिए पांच लाख करोड़ रूपये का लक्ष्‍य तय किया है। ऐसे में विश्‍व की 30 फीसद जीडीपी और दुनिया की एक-तिहाई आबादी वाले आर्थिक संगठन की अनदेखी करने से इस भारी भरकम लक्ष्‍य को भारत कैसे हासिल करेगा। 

कई विशेषज्ञों का मानना है कि समझौते से पीछे हटने से भारत एक बड़े क्षेत्रीय बाजार से बाहर हो जाएगा। सबसे तीखी प्रतिक्रिया चीन से आई। चीन के अखबारों व मीडिया ने इसे भारत की रणनीतिक भूल करार दिया जिससे भारत आर्थिक रिकवरी करने से चूक जाएगा।

लेकिन यह आलोचना ठीक नहीं है। तीन देशों आस्‍ट्रेलिया, न्‍यूजीलैंड और चीन को छोड़ दिया जाए तो आसियान के सभी दस देशों और जापान व दक्षिण कोरिया के साथ भारत का मुक्‍त व्‍यापार समझौता हुआ है। 

विडंबना यह है कि मुक्‍त व्‍यापार समझौता होने के बाद से ही आसियान देशों और जापान व दक्षिण कोरिया से भारत का व्‍यापार घाटा बढ़ता गया। इन्‍हीं कटु अनुभवों को देखते हुए भारत आस्‍ट्रेलिया, न्‍यूजीलैंड, अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के साथ चल रही मुक्‍त व्‍यापार वार्ताओं में बहुत सतर्क रवैया अपना रहा है।  

भारत की अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, आस्‍ट्रेलिया और न्‍यूजीलैंड के चल रही द्विपक्षीय मुक्‍त व्‍यापार वार्ताओं में हो देरी का कारण भी यही है। स्‍पष्‍ट है, मोदी सरकार मुक्‍त व्‍यापार नीतियों को इस तरह तर्कसंगत बना रही है ताकि वे भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के लिए फायदे का सौदा बनें।