नेताजी का सपना था कि आजाद भारत के लाल किले पर झंडा फहराएं, परन्तु, दुर्भाग्यवश देश को आजादी मिलने से पूर्व ही विमान दुर्घटना में वे लापता हो गए। उनके इस सपने को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने यह ध्वजारोहण किया है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने न केवल स्वाधीनता संग्राम में नेताजी के योगदान को याद किया, बल्कि उनके योगदान को समुचित सम्मान न मिलने को लेकर कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि बस एक परिवार को बड़ा बताने के लिए देश के अनेक सपूतों, वो चाहें सरदार पटेल हों, बाबा साहेब आंबेडकर हों या नेताजी हों, सबके योगदान को भुलाने का प्रयास किया गया।
गत 21 अक्टूबर की तारीख इतिहास में दर्ज हो चुकी है, जब दिल्ली का लाल किला स्वतंत्रता दिवस से इतर किसी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रध्वज फहराए जाने की ऐतिहासिक घटना का साक्षी बना। स्वाधीनता संग्राम के सशक्त सेनानी और देश के अमर सपूत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा 21 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर में स्थापित ‘आजाद हिंद सरकार’ की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले पर यह ध्वजारोहण कर राष्ट्र की एक नयी और स्वागतयोग्य परम्परा का आगाज किया है।
नेताजी का सपना था कि आजाद भारत के लाल किले पर झंडा फहराएं, परन्तु, दुर्भाग्यवश देश को आजादी मिलने से पूर्व ही विमान दुर्घटना में वे लापता हो गए। उनके इस सपने को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने यह ध्वजारोहण किया है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने न केवल स्वाधीनता संग्राम में नेताजी के योगदान को याद किया, बल्कि उनके योगदान को समुचित सम्मान न मिलने को लेकर कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि बस एक परिवार को बड़ा बताने के लिए देश के अनेक सपूतों, वो चाहें सरदार पटेल हों, बाबा साहेब आंबेडकर हों या नेताजी हों, सबके योगदान को भुलाने का प्रयास किया गया।
जाहिर है, प्रधानमंत्री का इस तरह नेताजी को याद करना कांग्रेस को जरा भी रास नहीं आया है। कांग्रेस की तरफ से इसे मोदी द्वारा ‘विरासत को हथियाने’ की कोशिश बताया जा रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी पर यह आरोप लगाने से पूर्व क्या कांग्रेस अपनी गिरेबान में झांककर इस प्रश्न का उत्तर देगी कि आजाद भारत में सर्वाधिक समय तक सत्तारूढ़ रहने के बावजूद वो नेताजी को ऐसा सम्मान क्यों नहीं दे सकी?
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस के बीच मौजूद मतभेद इतिहास में दर्ज हैं। गांधी से भी बोस के मतभेद थे। दरअसल बोस यथार्थवादी दृष्टिकोण के व्यक्ति थे, जबकि गांधी-नेहरू की कांग्रेस सिद्धांतों को प्रमुखता देती थी। ये प्रमुख कारण था कि वे कांग्रेस में अधिक समय तक नहीं रह सके।
कूटनीतिक सोच वाले सुभाष की मान्यता थी कि बिना विदेशी सहयोग के देश को स्वतंत्रता मिलना मुश्किल है। इसलिए उन्होंने विश्व-भ्रमण कर देश के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश शुरू की और सिंगापुर में ‘आजाद हिन्द सरकार’ का गठन किया, जिसे उस समय जापान, जर्मनी, इटली, क्रोशिया, बर्मा, थाईलैंड, राष्ट्रवादी चीन, फिलिपीन और मंचूरिया द्वारा मान्यता प्रदान की गयी थी। आजादी के लिए ये उनका अपना तरीका था और निःसंदेह प्रभावी भी था।
स्वतंत्रता पश्चात् नेहरू के नेतृत्व में गठित कांग्रेस की पहली सरकार से लेकर अबतक की सभी कांग्रेसी सरकारों की यही नीति रही है कि जिन लोगों ने भी कांग्रेस से अलग वैचारिक मार्ग का अनुसरण किया, उनके समस्त योगदानों को नजरंदाज करते हुए उन्हें इतिहास में हाशिये पर ढकेल दिया गया।
इस उपेक्षा का प्रमुख कारण यह था कि जनमानस में इन विभूतियों का व्यक्तित्व नेहरू-गांधी परिवार के लोगों से अधिक बड़ा न हो जाए। नेताजी के अलावा सरदार पटेल, डॉ आंबेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, शहीद भगत सिंह जैसे अनेक स्वतंत्रता सेनानी और राष्ट्र-निर्माण में महान योगदान देने वाले नायक कांग्रेस की इस कुटिल नीति का शिकार हुए।
क्या यह विचित्र नहीं है कि ब्रिटिश हुकूमत द्वारा खण्ड-खण्ड छोड़े गए एक राष्ट्र को अपनी सूझबूझ और साहस से अखण्ड भारत में परिवर्तित कर देने वाले सरदार पटेल जैसे महान राष्ट्र-शिल्पी को भारत रत्न देने में आजाद भारत को चार दशक लग गए। जबकि इस दौरान नेहरू ने 1955 में प्रधानमंत्री रहते हुए खुद को ही ‘भारत रत्न’ दे दिया। इंदिरा गांधी ने भी 1971 में खुद को भारत रत्न देते हुए अपने पिता की परम्परा को आगे बढ़ाया।
इस बीच अनेक छोटे-बड़े कांग्रेसी नेताओं को यह सम्मान मिला, लेकिन सरदार पटेल की याद कांग्रेस को 1991 में आई। अब आने वाले 31 अक्टूबर को गुजरात में देश भर से एकत्रित लोहे से तैयार सरदार पटेल की विश्व की सबसे बड़ी प्रतिमा ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी’ का अनावरण प्रधानमंत्री द्वारा किया जाएगा, तो कांग्रेस को इसमें भी राजनीति दिखाई दे रही है।
दलित-हितैषी होने का दम भरते हुए कांग्रेस बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की विरासत पर भी दावा तो खूब ठोंकती है, लेकिन इतिहास के आईने में उसके दावों की पोल खुलती नजर आती है। आजादी से पूर्व और बाद दोनों ही समय नेहरू की कांग्रेस ने जिस-तिस प्रकार से बाबा साहेब को रोकने और नीचा दिखाने की कोशिश की थी।
चाहें आजादी के बाद हुए चुनावों में डॉ आम्बेडकर को एड़ी-चोटी का जोर लगाकर हराना हो, उनके नाम पर कोई राष्ट्रीय स्मारक न बनाना हो या फिर पटेल की ही तरह उन्हें भी चार दशकों तक भारत रत्न से वंचित रखना हो, ये सब बातें बाबा साहेब के प्रति कांग्रेस की दिखावटी श्रद्धा की हकीकत बयान करने के लिए काफी हैं।
बाबा साहेब को ‘भारत रत्न’ देने का कार्य 1990 में भाजपा समर्थित राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में हुआ। इसके अलावा नेहरू सरकार से इस्तीफा देने के बाद अंतिम दिनों में डॉ आम्बेडकर का निवासस्थान रहे 26, अलीपुर रोड के बंगले को अटल जी ने उनका राष्ट्रीय स्मारक बनाने की शुरुआत की थी, लेकिन उनकी सरकार जाने के बाद दस वर्षों तक सत्ता में रही कांग्रेस का इधर ध्यान ही नहीं गया।
2014 में सत्तारूढ़ होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने इसपर ध्यान दिया और बाबा साहेब के भव्य राष्ट्रीय स्मारक का निर्माण करवाया। आंबेडकर जयंती को ‘समरसता दिवस’ घोषित करना हो या उनके नाम पर ‘भीम’ एप की शुरुआत हो, ऐसे छोटे-बड़े अनेक कार्यों से वर्तमान सरकार ने बाबा साहेब को यथोचित सम्मान देने का प्रयास किया है।
वर्तमान सरकार के इन कार्यों पर कांग्रेस का कहना होता है कि भाजपा की अपनी कोई विरासत नहीं है, इसलिए वो उसकी विरासत को हथियाने की कोशिश कर रही है। यहाँ दो बातें हैं। पहली कि महापुरुष किसी एक दल या विचारधारा-विशेष के नहीं होते, वे पूरे देश और कई बार पूरी दुनिया के होते हैं।
दूसरी बात कि अगर कांग्रेस इन राष्ट्रीय विभूतियों को अपनी विरासत मानती है, तो आजादी के बाद सर्वाधिक समय तक सत्ता में रहने के बावजूद इनको समुचित सम्मान देने की दिशा में उसने कुछ किया क्यों नहीं? उसने जो नहीं किया, वर्तमान सरकार वही तो कर रही है। अगर यह चुनावी राजनीति के मकसद से ही किया जा रहा है, तो भी इसमें कोई बुराई नहीं है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)