मोदी सरकार सिंचाई, उन्नत तकनीक, सूचना प्रौद्योगिकी, कोल्ड चेन पर भी ध्यान दे रही है। सरकार के प्रयासों से अब गांवों में न केवल बिजली, सड़क, टेलीफोन, इंटरनेट, रसोई गैस जैसी मूलभूत सुविधाएं पहुंची हैं बल्कि उनकी गुणवत्ता में भी सुधार हुआ है। अब सरकार गांवों को मनीऑर्डर अर्थव्यवस्था से आगे बढ़ाकर उत्पादक अर्थव्यवस्था में बदल रही है ताकि शहरी अर्थव्यवस्था के समानांतर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास हो सके।
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक बार कहा था कि “सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन खेती नहीं”। दुर्भाग्यवश खेती की दुर्दशा उन्हीं के कार्यकाल में शुरू हो गई लेकिन उसकी मूल वजहों की ओर ध्यान नहीं दिया गया। इसके बाद हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, पीली क्रांति जैसे फुटकल उपाय किए गए। चूंकि ये कार्यक्रम केवल जरूरत पर आधारित इसलिए कृषि का सर्वागीण विकास नहीं हुआ। जहां सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान घटता गया वहीं कृषि पर निर्भर लोगों की तादाद बढ़ती गई जिससे खेती की बदहाली बढ़ी।
1991 में शुरू हुई नई आर्थिक नीतियों में तो यह मान लिया गया कि सेवा क्षेत्र में आने वाली समृद्धि रिसकर जब गांवों तक पहुंचेगी तब खेती का विकास अपने आप हो जाएगा। लेकिन रिसन का सिद्धांत “वाष्पन” में बदल गया और भ्रष्ट नेताओं-अफसरों के बैंक खाते विदेशों में खुलने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि खेती घाटे का सौदा बन गई और किसान आत्महत्याओं का सिलसिला शुरू हो गया। इससे गांवों से होने वाले पलायन में अभूतपूर्व तेजी आई।
2011 की जनगणना के मुताबिक पिछले एक दशक में किसानों की कुल तादाद में 90 लाख की कमी आई है। अर्थात हर रोज 2460 किसानों ने खेती को अलविदा कहा। हरित क्रांति के अगुआ रहे पंजाब में ही हर साल 10,000 किसान खेती छोड़ रहे हैं।
सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि खेती छोड़ने वाले किसान महानगरों में मजदूर बन गए और उनका स्तर जीविकोपार्जन से आगे नहीं बढ़ पाया। यही कारण है कि कोरोना संकट में आजीविका पर संकट आते ही वे पैदल, साइकिल या दूसरे साधनों से देश के लाखों गांवों की ओर कूच कर रहे हैं। स्पष्ट है गांवों से शहरों की ओर पलायन मजबूरी में हुआ है।
रिजर्व बैंक कई बार कह चुका है कि गांवों का विकास तभी होगा जब कृषि उपजों के लिए आधुनिक बाजार का विकास किया जाए। इसके बावजूद वोट बैंक की राजनीति करने वाली सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और बिजली, सड़क, फोन, इंटरनेट के मामले में गांवों के साथ सौतेला व्यवहार किया गया।
जिस समर्थन मूल्य व्यवस्था को कांग्रेस अपनी उपलब्धि बताती है उसका लाभ देश के मात्र 6 फीसद किसान उठा पाते हैं। आज भी देश के 94 फीसद किसान अपनी उपज की बिक्री हेतु स्थानीय साहूकारों पर निर्भर हैं। यही कारण है कि चुनिंदा फसलों को छोड़कर अधिकतर फसलों के लिए उपभोक्ता द्वारा चुकाई गई कीमत का 10 से 30 फीसद ही किसानों तक पहुंचता रहा। खेती-किसानी की बदहाली की असली वजह यही रही है।
लेकिन लंबे अरसे की उपेक्षा के बाद मोदी सरकार ने कृषि बाजारों को आधुनिक बनाने का बीड़ा उठाया है। इसके तहत राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) नामक पोर्टल शुरू किया गया है। इसके अलावा सरकार 22,000 ग्रामीण हाटों को आधुनिक बना रही है।
मोदी सरकार सिंचाई, उन्नत तकनीक, सूचना प्रौद्योगिकी, कोल्ड चेन पर भी ध्यान दे रही है। सरकार के प्रयासों से अब गांवों में न केवल बिजली, सड़क, टेलीफोन, इंटरनेट, रसोई गैस जैसी मूलभूत सुविधाएं पहुंची हैं बल्कि उनकी गुणवत्ता में भी सुधार हुआ है। अब सरकार गांवों को मनीऑर्डर अर्थव्यवस्था से आगे बढ़ाकर उत्पादक अर्थव्यवस्था में बदल रही है ताकि शहरी अर्थव्यवस्था के समानांतर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास हो सके।
मोदी विरोधी इस बात को जानते हैं कि यदि एक बार गांवों में आधुनिक कृषि बाजार का विकास हो गया तो किसानों को कर्जमाफी का प्रलोभन देना, जाति-धर्म के आधार पर बाँटकर राजनीति करना कठिन हो जाएगा। इसलिए वे एपीएमएसी जैसे पुरातनपंथी कानूनों को ढाल बनाकर गांवों में आधुनिक कृषि बाजार के विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)