हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवाने की कोशिशों में जुटी मोदी सरकार !

अब हिन्दी समूचे संसार में बोली जा रही है। फीजी, सूरीनाम, मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, गयाना में भी हिन्दी को अहम स्थान मिला हुआ है। इसके अलावा देश से बाहर बसे लाखों भारतीय पेशेवर भी हिन्दी बाहर लेकर जा रहे हैं। हिन्दी को बोलने वाले चीनी भाषा के बाद सबसे ज्यादा हैं, इसके बावजूद हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच में जगह न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है।

लोकसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बताया, “भारत सरकार हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवाने को लेकर गंभीरता से प्रयासरत है। वो इस पहल में अपने साथ मारीशस और फीजी को भी जोड़ रही है।” संयुक्त राष्ट्र में चीनी, अंग्रेजी, अरबी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश को ही  आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। 1945 में संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाएँ केवल चार थीं- अंग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी और चीनी। उनमें 1973 में दो भाषाएँ स्पेनिश और अरबी जुड़ीं। इन भाषाओं में वहां पर दिए जाने वालों भाषणों का अनुवाद होता है।

अब हिन्दी समूचे संसार में बोली जा रही है। फीजी, सूरीनाम, मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, गयाना में भी हिन्दी को अहम स्थान मिला हुआ है। इसके अलावा देश से बाहर बसे लाखों भारतीय पेशेवर भी हिन्दी बाहर लेकर जा रहे हैं। हिन्दी को बोलने वाले चीनी भाषा के बाद सबसे ज्यादा हैं, इसके बावजूद हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच में जगह न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है।

विश्व हिन्दी सम्मेलन तक

यकीन मानिए कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने को लेकर विश्व हिन्दी सम्मेलनों में रस्मी प्रस्ताव पारित हो जाते हैं, उसके बाद वे प्रस्ताव लगता है, जैसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिए जाते हैं।  पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 1975 में नागपुर में हुआ था, जिसमें पारित प्रस्ताव में कहा गया था, ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिलाया जाए।’’ इसके बाद 1976 में मारीशस, 1999 में लंदन और 2015 में भोपाल में विश्व हिन्दी सम्मेलन हुए।

सभी में इस आशय के प्रस्ताव  पारित हुए। आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में ही आयोजित करके इस मुहिम को विश्व संस्था की दहलीज़ तक ले जाने का प्रयास किया गया था। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून भी उस सम्मेलन में आए थे और उन्होंने हिन्दी में कहा था, ‘‘नमस्ते, मैं हिन्दी थोड़ी बहुत बोलता हूं। मुझे खुशी हो रही है समय देते हुए। मैं आप सबको शुभकामनाएं देता हूं।”

बहरहाल, अरबी को 1986 में इस तर्क पर आधिकारिक भाषा की मान्यता दी गई कि इसे 22 देशों में लगभग 20 करोड़ लोग बोलते हैं। संख्या को अगर आधार मानें तो भारत में 100  करोड़ से अधिक लोग हिन्दी में संवाद करते हैं। यह उनकी भाषा है। पर, हिन्दी को उन भाषाओं में जगह नहीं मिल रही है, जिनका संयुक्त राष्ट्र में खास स्थान है। अब सारा दारोमदार नरेन्द्र मोदी पर है कि वे हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाएं।  वे संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को हिन्दी में  संबोधित कर चुके हैं। 

आपको याद होगा कि जनता पार्टी की सरकार के विदेश मंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। उनसे पहले किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री ने हिन्दी का प्रयोग इस मंच पर नहीं किया था। अटल जी के उस भाषण  के बाद पूरे देश में एक उम्मीद बंधी कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलने की मंजिल अब दूर नहीं है। उस अहम घटना के बाद  चालीस बरस बीत गए हैं और देश अब भी हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए कोशिशें ही कर रहा है।

पढ़ी-पढ़ाई जाती हिन्दी

संयुक्त राष्ट्र से हटकर भी बात करें तो हिन्दी अब पूरी दुनिया में पढ़ी और पढ़ाई जा रही है। भारत की पुरातन संस्कृति, इतिहास और बौद्ध धर्म से संबंध एक अरसे से भाषाविदों को बारास्ता हिन्दी भारत से जोड़ते हैं। टोक्यो यूनिर्विसिटी में 1908 में हिन्दी के उच्च अध्ययन का श्रीगणेश हो गया था। कुछेक बरस पहले इस विभाग ने अपनी स्थापना के 100 साल पूरे किए।

जापान में भारत को लेकर जिज्ञासा के बहुत से कारण रहे। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर चार बार वहां की यात्रा पर गए। बौद्ध से भारत से संबंध तो एक बड़ी वजह रहे ही है। अब तो जापानी मूल के लोग ही वहां पर मुख्य रूप से हिन्दी पढ़ा रहे हैं। वहां पर हर बरस करीब 20 विद्यार्थी हिन्दी के अध्ययन के लिए दाखिला लेते हैं।

पूर्व सोवियत संघ और उसके सहयोगी देशों जैसे पोलैंड, हंगरी, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया वगैरह में भी हिन्दी के अध्ययन की लंबी परम्परा रही है। एक दौर में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के बहुत से देशों और भारत की नैतिकताएं लगभग समान थीं। वहां पर कम्युनिस्ट व्यवस्था थी, जबकि भारत में नेहरुवियन सोशलिज्म का प्रभाव था।

दुनिया के बहुत से नामवर विश्वविद्यालयों में हिन्दी चेयर इंडियन काउंसिल आफ कल्चरल रिलेशंस (आईसीसीआर) के प्रयासों से स्थापित हुई। इनमें दक्षिण कोरिया के बुसान और सियोल विश्वविद्यालयों के अलावा पेइचिंग, त्रिनिदाद, इटली, बेल्जियम, स्पेन, तुर्की, रूस वगैरह के विश्वविद्यालय शामिल हैं। अमेरिका के भी येल, न्यूयार्क, विनकांसन वगैरह विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। छात्रों की तादाद भी बढ़ती जा रही है। इधर भी अमेरिकी या भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक ही हिन्दी पढ़ा रहे हैं।

कॉरपोरेट संसार में हिन्दी  

दक्षिण कोरिया में हिन्दी को सीखने की वजह विशुद्ध बिजनेस संबंधी है। दरअसल वहां की अनेक मल्टीनेशनल कंपनियां भारत में मोटा निवेश कर चुकी हैं। इनमें हुंडई, सैमसंग, एलजी शामिल हैं। दक्षिण कोरियाई कंपनियों का भारत में पिछले साल निवेश 3 बिलियन डॉलर का था। ये वहां से पेशेवरों को यहां पर भेजती हैं, जिन्हें हिन्दी का गुजारे लायक ज्ञान तो हो। मतलब यह है कि बाजार का फीडबैक लेने के लिए दक्षिण कोरिया की कंपनियों को भारत के मुलाजिमों पर ही भरोसा न करना पड़े। बेशक, अब हिन्दी रोजी की भी भाषा बन चुकी है। ये प्रेम, संस्कृति और मानवीय संवेदना की भाषा तो रही ही है। अब तो इसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना बाकी रह गया है।

(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)