आजादी के बाद से ही देश को “चिकन नेक सिंड्रोम” का भय सताता रहा लेकिन किसी भी सरकार ने इस समस्या का स्थायी उपाय नहीं खोजा। मोदी सरकार ने कोलकाता और सितवे (म्यांमार) बंदरगाहों के बीच जलमार्ग से जहाजों की आवाजाही शुरू कर देश को “चिकन नेक सिंड्रोम” से मुक्ति दिलाने की कारगर पहल की है। यह कदम पूर्वोत्तर के आर्थिक विकास के साथ-साथ देश की संप्रभुता के लिए भी महत्वपूर्ण है।
नौ मई का दिन पूर्वोत्तर के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए महत्वपूर्ण दिन था लेकिन मुख्यधारा की मीडिया ने इस घटना को अपेक्षित महत्व नहीं दिया। दरअसल नौ मई को केंद्रीय बंदरगाह, नौवहन और जलमार्ग मंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने म्यांमार के सितवे बंदरगाह पर कोलकाता से चले पहले मालवाहक जहाज की अगवानी की। अब सितवे बंदरगाह भारत के पूर्वी तट को पूर्वोत्तर राज्यों से जोड़ेगा।
सितवे बंदरगाह को भारत द्वारा कलादान मल्टी मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट परियोजना के तहत विकसित किया गया है। इस परियोजना की परिकल्पना मिजोरम को हल्दिया-कोलकाता-म्यांमार में कलादान नदी के माध्यम से किसी भी भारतीय बंदरगाह के साथ वैकल्पिक कनेक्टिविटी प्रदान करने के लिए की गई है। इसके तहत सड़क मार्ग से मिजोरम से म्यांमार के पलेटवा और उसके बाद पलेटवा से नदी परिवहन द्वारा सितवे और सितवे से समुद्री मार्ग से भारत के किसी भी बंदरगाह तक की परिकल्पना की गई है।
स्पष्ट है, सितवे बंदरगाह के संचालन से द्विपक्षीय और क्षेत्रीय व्यापार में बढ़ोत्तरी होगी। एक बार विकसित हो जोने के बाद यह परियोजना पूर्वोत्तर राज्यों के लिए महत्वपूर्ण निकासी मार्ग बन जाएगी जिससे यहां के उत्पाद आसानी से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में पहुंचने लगेंगे। इतना ही नहीं, आगे चलकर सितवे बंदरगाह म्यांमार का समुद्री व्यापारिक केंद्र बन जाएगा।
सितवे बंदरगाह के जरिए आवाजाही शुरू होने से न केवल लागत व समय की बचत होगी बल्कि भारत को चिकन नेक सिंड्रोम (सिलीगुड़ी कॉरिडोर) से भी मुक्ति मिल जाएगी। पश्चिम बंगाल में स्थित यह कॉरिडोर 60 किलोमीटर लंबा और 20 किलोमीटर चौड़ा है जो पूर्वोत्तर को शेष भारत से जोड़ता है। यह न केवल महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग है बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए भी एक महत्वपूर्ण प्रवेश द्वार है।
यह गलियारा पूर्वोत्तर राज्यों में अवैध घुसपैठ, सीमा पार आतंकवाद और इस्लामी कट्टरपंथ का मुकाबला करने में महत्वपूर्ण साबित हुआ है। उल्लेखनीय है कि दक्षिण पूर्व एशिया गोल्डन ट्रायंगल के लिए कुख्यात है जिससे जुड़े म्यांमार, थाईलैंड और लाओस में संगठित अपराध और मादक पदार्थों की तस्करी प्रचलित है।
1947 में देश विभाजन से से पहले पूर्वोत्तर का समूचा आर्थिक तंत्र चटगांव बंदरगाह से जुड़ा हुआ था लेकिन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के निर्माण से यहां के उत्पादों के लिए कोलकाता बंदरगाह का ही सहारा बचा जो कि बहुत दूर होने के साथ-साथ व्यस्त भी है।
इसका नतीजा यह हुआ कि पूर्वोत्तर के समृद्ध हस्तशिल्प और बागवानी उत्पादों (अनानास, आलूबुखारा, आड़ू, खुबानी, आम, केला और नाशपाती) बाजार के अभाव में दम तोड़ने लगे। दुर्भाग्यवश कांग्रेसी ससरकारें इस क्षेत्र को वैकल्पिक कनेक्टिविटी प्रदान करने के बाजाय यहाँ अलगाववादी गुटों को बढ़ावा देकर राजनीतिक रोटी सेंकने लगीं। इससे जनजातीय संघर्ष, अलगाववाद, आतंकवाद, गरीबी को उर्वर भूमि मिली।
2014 में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर की समस्या के स्थायी समाधान के लिए अपनी “एक्ट ईस्ट” नीति को पूर्वोत्तर भारत के विकास से जोड़ दिया। दरअसल प्रधानमंत्री इस बात को समझ गए थे कि पूर्वोत्तर में समृद्धि की बहार तभी आएगी जब भारत सरकार यहां के उत्पादों के लिए दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में निकासी मार्ग ढूंढ़ ले।
इसीलिए मोदी सरकार विभाजन पूर्व रेल संपर्कों को बहाल करने के साथ-साथ पूर्वोत्तर राज्यों की राजधानियों को ब्रॉडगेज रेल लाइन से जोड़ रही है। इसके साथ-साथ सरकार रेल मार्गों का विद्युतीकरण और हाई स्पीड नेटवर्क बनाने पर भी काम कर रही है। सरकार नदी परिवहन को भी बढ़ावा दे रही है।
अब तक गुवाहाटी (असम), इटानगर (अरुणाचल प्रदेश) और अगरतला (त्रिपुरा) को ब्रॉडगेज रेल नेटवर्क से जोड़ दिया गया है। इंफाल को रेलवे से जोड़ने के लिए जिरीबाम-इम्फाल नई ब्रॉड गेज रेल लाइन बिछाई जा रही है और दिसंबर 2023 तक यह परियोजना पूरी हो जाएगी। आगे चलकर इस रेल लाइन को म्यांमार के मोरेह और तामू तक बिछाया जाएगा। इसी तरह आइजोल और कोहिमा को भी रेल नेटवर्क से जोड़ने का काम प्रगति पर है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)