वोट बैंक की राजनीति ने देश-समाज के साथ-साथ हवा, पानी, मिट्टी का भी बंटाधार कर दिया। पिछली सरकारों ने यूरिया पर अत्यधिक सब्सिडी दिया जिससे वह नमक से भी सस्ती बिकने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि यूरिया का दुरुपयोग बढ़ा और वह तस्करी के जरिए नेपाल-बांग्लादेश पहुंचने लगी। इतना ही नहीं यूरिया से नकली दूध, विस्फोटक बनाने का व्यवसाय फलने-फूलने लगा और किसानों के लिए वह दुर्लभ हो गई। इसी को देखते हुए 2015 में मोदी सरकार ने यूरिया को नीम कोटेड करना अनिवार्य कर दिया जिससे न केवल यूरिया का दुरुपयोग रूका बल्कि वह देश भर में सरलता से मिलने लगी।
इस साल स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पर्यावरण अनुकूल खेती पर जोर देते हुए रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के उपयोग को धीरे-धीरे कम करने और अंतत: इनका इस्तेमाल बंद करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि एक किसान के रूप में हमें धरती को बीमार बनाने का हक नहीं है।
इस साल के बजट में भी जीरो बजट खेती का एलान किया गया। इसमें खेती के लिए जरूरी बीज, खाद, पानी आदि का इंतजाम कुदरती रूप से किया जाता है। केंद्र सरकार ने जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना बनाई है। इसके तहत तीन साल के लिए प्रति हेक्टेयर 50,000 रूपये की सहायता दी जा रही है।
देखा जाए तो मोदी सरकार की धरती बचाने की पहल अकारण नहीं है। देश में रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से एक ओर धरती की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है तो दूसरी ओर अनाजों-सब्जियों के माध्यम से यह जहर लोगों के शरीर में भी पहुंच रहा है और वे तरह-तरह की बीमारियों का शिकार बन रहे हैं।
अभी तक यह भ्रामक धारणा थी कि रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बंद करने से उत्पादन घट जाएगा। लेकिन अब देश-विदेश में हुए अनेक अध्ययनों से साबित हो गया है कि रासायनिक उर्वरक-कीटनाशक मुक्त खेती से न केवल लागत में कमी आती है बल्कि उत्पादन में बहुत फर्क नहीं पड़ता। अंतरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष (आइएफएडी) द्वारा भारत और चीन में किए गए अध्ययनों के आधार पर इस बात की पुष्टि की गई है कि प्राकृतिक खेती अपनाने से किसानों की आमदनी में काफी बढ़ोत्तरी होती है।
गौरतलब है कि रासायनिक उर्वरक-कीटनाशक आधारित खेती की शुरूआत यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ हुई ताकि कम भूमि में अधिक पैदावार हासिल किया जा सके। आगे चलकर विकासशील देश भी औद्योगीकरण तथा आधुनिक खेती को विकास का पर्याय मानने लगे। भारत ने भी इसी नीति का अनुसरण किया।
देश भर में उर्वरक कारखाने लगे और गेहूं, धान के संकरित बीजों को रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई के साथ उगाया जाने लगा। इससे शुरू में तो उत्पादकता बढ़ी लेकिन आगे चलकर मिट्टी के नमीपन-भुरभुरेपन में कमी आई और कृषि मित्र जीव-जंतुओं का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ।
जैसे-जैसे मिट्टी की प्राकृतिक शक्तियां घटी वैसे-वैसे रासायनिक उर्वरकों की जरूरत बढ़ी, दूसरी ओर उत्पादकता में ढलान आनी शुरू हुई। उदाहरण के लिए 1960 में एक किलोग्राम रासायनिक खाद डालने पर उत्पादन में 25 किग्रा की बढ़ोत्तरी होती थी जो कि 1975 में 15 किग्रा तथा 2009 में मात्र 6 किग्रा रह गई। इस प्रकार रासायनिक उर्वरकों की खपत बढ़ने से जहां एक ओर लागत बढ़ी वहीं दूसरी ओर उत्पादकता में गिरावट आने से लाभ में कमी आई। रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती खपत का सीधा प्रभाव सब्सिडी पर पड़ा। 1976-77 में 60 करोड़ रूपये के उर्वरक सब्सिडी दी गई थी जो 2007-08 में 40,338 करोड़ रूपये हो गई।
पिछली सरकारों ने रासायनिक उर्वरकों के संतुलित इस्तेमाल की ओर ध्यान नहीं दिया जिससे उर्वरक सब्सिडी यूरिया केंद्रित बनकर रह गई। इसका नतीजा यह हुआ कि यूरिया नमक से भी सस्ती बिकने लगी। इससे उर्वरकों के असंतुलित इस्तेमाल को बढ़ावा मिला। उदाहरण के लिए 83 फीसद रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल देश के महज 292 जिले करते हैं जबकि शेष 433 जिलों के हिस्से में 17 फीसद यूरिया आती है।
नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का आदर्श अनुपात 4:2:1 है लेकिन पंजाब में यह अनुपात 31:8:1 और हरियाणा में 28:6:1 तक बिगड़ चुका है। कमोबेश यही स्थिति दूसरे राज्यों की भी है। यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को बुरी तरह प्रभावित किया। नाइट्रोजन का दुष्परिणाम केवल मिट्टी-पानी तक सीमित नहीं रहा। नाइट्रस आक्साइड के रूप में यह ग्रीनहाउस गैस भी है और वैश्विक जलवायु परिवर्तन में इसका बड़ा योगदान है। गौरतलब है कि ग्रीन हाउस गैस के रूप में कार्बन डाइऑक्साइड के मुकाबले नाइट्रस ऑक्साइड 300 गुना अधिक प्रभावशाली है।
यूरिया के दुष्प्रभाव को देखते हुए मोदी सरकार ने फास्फोरस और पोटाश पर सब्सिडी बढ़ाई जिससे किसान उर्वरकों का संतुलित इस्तेमाल करने लगे। अब मोदी सरकार दूरगामी कदम उठाते हुए चरणबद्ध तरीके से इनका इस्तेमाल बंद करके जैविक खेती को प्रोत्साहन दे रही है जिससे न केवल पर्यावरण संरक्षण होगा बल्कि किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)