आजादी के बाद से ही कांग्रेसी सरकारें पद्म सम्मानों का अपने निजी हित में और वोट बैंक की राजनीति के लिए इस्तेमाल करती रहीं हैं। इन पुरस्कारों से जुड़े विवाद को देखते हुए जनता पार्टी की सरकार ने 1977-80 के बीच इन पुरस्कारों को बंद कर दिया। 1980 के लोक सभा चुनाव में मिली जीत के बाद इन्हें फिर शुरू किया गया। दुर्भाग्यवश एक बार फिर चाटुकार संस्कृति हावी हो गई। वोट बैंक को ध्यान में रखकर नागरिक सम्मान दिए जाने लगे। कला-संस्कृति के नाम पर ऐसे लोगों को पुरस्कार दिए जाने लगे जिनका कला-संस्कृति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था।
यस बैंक के सह संस्थापक राणा कपूर के आरोपों से एक बार फिर साबित हो गया कि “कांग्रेस का हाथ भ्रष्टाचार के साथ” का नारा केवल चुनावी जुमला नहीं है। उल्लेखनीय है कि राणा कपूर ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के समक्ष दिए बयान में कहा कि कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने उन्हें एमएफ हुसैन की एक पेंटिंग को दो करोड़ रुपये में खरीदने के लिए मजबूर किया था।
इस पेंटिंग की बिक्री से मिलने वाले धन का उपयोग गांधी परिवार ने सोनिया गांधी के न्यूयॉर्क में हुए इलाज में किया। इतना ही नहीं राणा कपूर को प्रलोभन दिया गया कि यदि वे पेंटिंग खरीदते हैं तो उन्हें पद्म भूषण पुरस्कार दिया जाएगा। स्पष्ट है, कांग्रेसी सरकारें भ्रष्टाचार, देश की सुरक्षा से खिलवाड़, जबरन वसूली में ही नहीं देश के नागरिक सम्मान को भी बेचने में लिप्त रही हैं।
आजादी के बाद से ही कांग्रेसी सरकारें पद्म सम्मानों का अपने निजी हित में और वोट बैंक की राजनीति के लिए इस्तेमाल करती रहीं हैं। इन पुरस्कारों से जुड़े विवाद को देखते हुए जनता पार्टी की सरकार ने 1977-80 के बीच इन पुरस्कारों को बंद कर दिया।
1980 के लोक सभा चुनाव में मिली जीत के बाद इन्हें फिर शुरू किया गया। दुर्भाग्यवश एक बार फिर चाटुकार संस्कृति हावी हो गई। वोट बैंक को ध्यान में रखकर नागरिक सम्मान दिए जाने लगे। कला-संस्कृति के नाम पर ऐसे लोगों को पुरस्कार दिए जाने लगे जिनका कला-संस्कृति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था।
आगे चलकर गठबंधन राजनीति के दौर में सरकार को समर्थन देने वाले दल अपनी पसंद के लोगों को यह पुरस्कार दिलवा देते थे। इससे यह होता था कि अपात्र लोगों को यह पुरस्कार मिल जाते थे लेकिन जिन लोगों ने अपना सारा जीवन देश या अपने विषय से संबंधित सेवा में लगा दिया उन्हें ये पुरस्कार नहीं दिए जाते थे।
राष्ट्रीय सम्मानों को चाटुकार संस्कृति और वोट बैंक की राजनीति से दूर रखने के लिए मोदी सरकार ने पुरस्कारों के लिए नामांकन प्रक्रिया शुरू किया। मोदी सरकार का जोर ऐसे लोगों को चुनने पर है जिन पर उनके असाधारण योगदान के बावजूद अब तक ध्यान नहीं दिया गया हो।
इसके लिए केंद्र सरकार ने सभी राज्यों से ऐसे प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाने के लिए स्पेशल सर्च कमेटी बनाने के लिए कहा है। महिलाओं, समाज के कमजोर वर्गों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, दिव्यांगों में से ऐसे प्रतिभाशाली लोगों की पहचान की जाने लगी जो पुरस्कार के काबिल हैं।
इसी का नतीजा है कि पद्म पुरस्कारों की सूची में जन सरोकारों से जुड़े लोगों शामिल होने लगे। इसे कुछेक उदाहरणों से समझा जा सकता है। लंगर बाबा के नाम से प्रसिद्ध चंडीगढ़ के जगदीश आहूजा ने अपना पूरा जीवन रोगियों व उनके तीमारदारों को भोजन खिलाने में लगा दिया। जम्मू के जवेद अहमद ने खुद ट्राई साइकिल पर चलते हुए दिव्यांगों के जीवन में बहार लाने का काम किया। दिव्यांगों के पुनर्वास कार्य में आजीवन जुड़े रहने वाले एस राधाकृष्ण।
भोपाल गैस त्रासदी से पीड़ित लोगों के हक के लिए 30 साल तक संघर्ष करने वाले अब्दुल जब्बार। कर्नाटक की तुलसी गौड़ा जिन्होंने पेड़-पौधों के साथ औषधि ज्ञान को जोड़ने का बड़ा काम किया। गरीब बच्चों को पढ़ाने का जुनून रखने वाले सब्जी विक्रेता हारेकला जहब्बा। हाथियों के अद्भुत डाक्टर कहे जाने वाले कुशल कुंवर वर्मा। लावारिस शवों के अंतिम संस्कार करने वाले मोहम्मद शरीफ ।
जमीन से जुड़े ऐसे लोगों को सम्मान मिलने से पद्म सम्मान की भी आभा बढ़ी। पहले जहां पद्म पुरस्कारों के लिए हर साल 2000 आवेदन आते थे, वहीं नियमों के सरलीकरण और आम आदमी को प्राथमिकता देने के कारण अब आवेदनों की संख्या 50,000 तक पहुंच गई है। समग्रत: मोदी सरकार सीधे आम आदमी से जुड़कर उसकी बेहतरी के लिए काम कर रही है। इस सरकार में बिचौलियों, दलालों, लाबिइस्टों की कोई जगह नहीं है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)