मोदी सरकार खेती के साथ-साथ दुग्धउत्पादन, मछलीपालन, खाद्य प्रसंस्करण जैसी आयपरक कृषि गतिविधियों पर फोकस कर रही है। ऐसी योजनाएं पूर्व में भी बनी थीं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली, सड़क, संचार सुविधाओं की कमी के कारणा वे कामयाब नहीं हो पाईं। इसी को देखते हुए मोदी सरकार हर घर को बिजली पहुंचाने, गांवों को पक्की सड़कों से जोड़ने और सभी पंचायतों तक आफ्टिक फाइबर नेटवर्क बिछाने काम प्राथिमिकता के आधार पर कर रही है। स्पष्ट है कि किसानों की आमदनी दोगुनी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आधुनिक रूप देने का मोदी सरकार का प्रयास कागजी नहीं है।
अब तक किसानों की आमदनी बढ़ाने पर सीधा फोकस कभी नहीं किया गया। पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाने पर जोर दिया गया। अर्थात हमारी नीतियां खेती केंद्रित रहीं न कि किसान केंद्रित। इसका नतीजा यह हुआ कि कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी के बावजूद उसी अनुपात में किसानों की आमदनी नहीं बढ़ी। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस ऐतिहासिक भूल को सुधारते हुए 2022 तक किसानों की आमदनी दो गुना करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
इस लक्ष्य को हासिल करने के उपाय सुझाने हेतु सरकार ने अशोक दलवई की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। हाल ही में सौंपी अपनी रिपोर्ट में इस समिति ने बताया है कि 2022 तक किसानों की आमदनी दो गुनी करने के लिए कृषि विकास दर में सालाना 15 फीसदी की रफ्तार से बढ़ोत्तरी करनी होगी। कुदरती आपदाओं में बढ़ोत्तरी, बीज, उर्वरक,रसायन, सिंचाई की बढ़ती लागत, भंडारण—विपणन ढांचे की कमी और अपर्याप्त सरकारी खरीद नेटवर्क को देखें तो यह लक्ष्य आसान नहीं है।
भले ही कांग्रेस और वामपंथी नेता मोदी सरकार को सूट-बूट वालों की सरकार का तमगा दें, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी सरकार किसानों की दशा सुधारने के लिए प्रयत्नशील है। पिछले साढ़े तीन वर्षों के दौरान कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए शुरू की गई योजनाएं इसका प्रमाण हैं जैसे राष्ट्रीय कृषि बाजार, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड, यूरिया पर नीम का लेपन, जैविक खेती और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना आदि।
हमारे देश में किसानों की बदहाली की एक वजह अविकसित कृषि बाजार है। रिजर्व बैंक भी कई बार कह चुका है कि कृषि बाजार की प्रभावी मौजूदगी गरीबी उन्मूलन का सशक्त हथियार बन सकती है। इसके बावजूद हम गरीबी उन्मूलन के लिए कृषि क्षेत्र की अनूठी क्षमता का दोहन नहीं कर पाए हैं। देश के 25 फीसदी से भी कम किसान समर्थन मूल्य के बारे में जानते हैं। समर्थन मूल्य पर उपज बेचने वाले किसानों की तादाद तो और भी कम है। यही कारण है कि चुनिंदा फसलों को छोड़कर अधिकतर फसलों के लिए उपभोक्ता द्वारा चुकाई गई कीमत का 10 से 30 फीसदी ही किसानों तक पहुंचता है।
इस समस्या को दूर करने के लिए मोदी सरकार कृषि विपणन की दिशा में क्रांतिकारी सुधार कर रही है। सरकार देश की सभी मंडियों को राष्ट्रीय कृषि बाजार में बदल रही है ताकि देश में कृषि उपजों का एक एकीकृत बाजार विकसित हो। अब तक 455 मंडियों को जोड़ा जा चुका है और 150 से अधिक में ऑनलाइन कारोबार शुरू हो चुका है। निजी मंडी विपणन केंद्रों के लिए मॉडल एपीएमसी अधिनियम, 2017 राज्यों को विचार के लिए भेजा गया है। मोदी सरकार ने पहली बार आलू, प्याज, दलहन की खरीद के लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष का इस्तेमाल किया गया है ताकि कीमतों में अप्रत्याशित गिरावट न आए। किसानों को मोबाइल के जरिए कृषि परामर्श सेवा दी जा रही है जिससे चार करोड़ किसान जुड़े हैं।
उपज की बिक्री की तरह दूसरी बड़ी समस्या सिंचाई की है। आजादी के 70 वर्षों बाद भी भारतीय खेती “मानसून का जुआ” बनी हुई है। हालांकि इस दौरान सैकड़ों सिंचाई परियोजनाएं शुरू की गईं, लेकिन उनके पूरा न होने या क्षमता के आंशिक दोहन के कारण सिंचित क्षेत्र का विस्तार नहीं हो पाया। अब मोदी सरकार किसानों की आमदनी बढ़ाने के क्रम में सिंचित क्षेत्र के विस्तार पर भी फोकस कर रही है। केंद्र सरकार ने अगले लोकसभा चुनाव अर्थात 2019 तक वर्षों से लंबित पड़ी 108 सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने का समयबद्ध कार्यक्रम तय किया है।
इन परियोजनाओं को नाबार्ड के जरिए 9020 करोड़ रूपये का वित्त उपलब्ध कराया गया है। इनके पूरा हो जाने पर 1.18 करोड़ हेक्टेयर भूमि सिंचित हो सकेगी। पिछले वर्ष इनमें से 18 पूरी हो चुकी हैं। इस वर्ष 36 का काम पूरा हो जाएगा। बाकी परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 2019 तक का लक्ष्य रखा गया है। यहां 45 साल से लंबित झारखंड की नार्थ कोयला परियोजना का उल्लेख प्रासंगिक है। 1972 में शुरू हुई इस परियोजना को अविभाजित बिहार की खुशहाली की गारंटी माना गया था, लेकिन आगे चलकर यह सरकारी लालफीताशाही का शिकार हो गई। 1993 से इस पर काम भी बंद पड़ा है। अब मोदी सरकार ने इस योजना को पूरा करने के लिए 2019 का लक्ष्य रखा है।
कृषि संकट की एक बड़ी वजह खेती की बढ़ती लागत है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की रिपेार्ट के मुताबिक खेती व पशुपालन से होने वाली औसत मासिक आमदनी 2003 में 1060 रूपये थी जो कि 2013 में 3844 रूपये हो गई अर्थात एक दशक में किसानों की आमदनी में 3.6 गुना की वृद्धि हई।
समस्या यह है कि इस दौरान खेती-किसानी की लागत में भी तीन गुना बढोत्तरी हुई जिससे किसानों की बदहाली में कमी नहीं आई। दूसरे, हमारे देश में सरकारें जितनी चिंता महंगाई की करती हैं, उतनी किसानों की नहीं। कमोबेश यही हाल उपभोक्ताओं का है। 200 रूपये में एक पीजा खाने वाला मध्यवर्ग आलू-प्याज उसी कीमत पर खरीदना चाहता है, जिस कीमत पर दस साल पहले खरीदता था। ऐसे में किसानों की आमदनी कैसे बढ़ेगी?
हालांकि भारत कई कृषि उत्पादों के कुल उत्पादन के मामले में पहले या दूसरे पायदान पर है, लेकिन प्रति हेक्टेयर पैदावार के मोर्चे पर हम अभी भी बहुत पीछे हैं। स्पष्ट है, प्रति हेक्टेयर उत्पादन में बढ़ोत्तरी की भरपूर गुंजाइश है। इस साल के बजट में वित्त मंत्री ने कहा था कि हमें खाद्य सुरक्षा से आगे सोचना है और अपने किसानों को आमदनी सुरक्षा देनी है। यह कार्य तभी होगा जब हम फसल उत्पादन से आगे बढ़कर खेती-किसानी को विविधीकृत करें।
इसीलिए मोदी सरकार खेती के साथ-साथ दुग्धउत्पादन, मछलीपालन, खाद्य प्रसंस्करण जैसी आयपरक कृषि गतिविधियों पर फोकस कर रही है। ऐसी योजनाएं पूर्व में भी बनी थीं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली, सड़क, संचार सुविधाओं की कमी के कारणा वे कामयाब नहीं हो पाईं। इसी को देखते हुए मोदी सरकार हर घर को बिजली पहुंचाने, गांवों को पक्की सड़कों से जोड़ने और सभी पंचायतों तक आफ्टिक फाइबर नेटवर्क बिछाने काम प्राथिमिकता के आधार पर कर रही है। स्पष्ट है कि किसानों की आमदनी दो गुनी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आधुनिक रूप देने का मोदी सरकार का प्रयास कागजी नहीं है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)