पिछले चार सालों में देश के 44 नक्सल प्रभावित जिले पूरी तरह से नक्सल मुक्त हो गए हैं। गौरतलब है कि गृहमंत्रालय द्वारा 126 जिलों को नक्सल प्रभावित घोषित किया गया था। इन जिलों को सुरक्षा सम्बन्धी खर्च के लिए केंद्र की तरफ से विशेष धनराशि प्रदान की गयी। इन्ही में से 44 जिलों को अब नक्सलवाद के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त पाया गया है। इनमें 32 जिले तो ऐसे हैं, जहाँ पिछले कुछ वर्षों से एक भी नक्सली हमला नहीं हुआ है। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पिछले चार वर्षों में नक्सली हिंसा कम हुई है।
भारत की आंतरिक सुरक्षा की चर्चा जब भी होती है, नक्सलवाद की समस्या एक बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने उपस्थित हो जाती है। नक्सलवाद, भारत की शांति, स्थिरता और प्रगति के लिए एक बड़ी और कठिन बाधा के रूप में सत्तर-अस्सी के दशक से ही उपस्थित रहा है। हर सरकार अपने-अपने ढंग से नक्सलवाद से निपटने और इसका अंत करने के लिए प्रयास भी करती रही है। वर्तमान मोदी सरकार ने भी सत्तारूढ़ होने के बाद से ही नक्सलवाद से निपटने के लिए सशस्त्र कार्यवाही को तेज करने सहित और भी कई स्तरों पर प्रयास आरम्भ किए थे, जिनका सकारात्मक प्रभाव अब दिखाई दे रहा है। बीते दिनों केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा नक्सलवाद की वर्तमान स्थिति से सम्बंधित रिपोर्ट में जो तथ्य सामने आए हैं, वो वर्तमान सरकार के प्रयासों की सफलता की पुष्टि करते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, पिछले चार सालों में देश के 44 नक्सल प्रभावित जिले पूरी तरह से नक्सल मुक्त हो गए हैं। गौरतलब है कि गृहमंत्रालय द्वारा 126 जिलों को नक्सल प्रभावित घोषित किया गया था। इन जिलों को सुरक्षा सम्बन्धी खर्च के लिए केंद्र की तरफ से विशेष धनराशि प्रदान की गयी। इन्ही में से 44 जिलों को अब नक्सलवाद के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त पाया गया है। इनमें ३२ जिले तो ऐसे हैं, जहाँ पिछले कुछ वर्षों से एक भी नक्सली हमला नहीं हुआ है। शेष जिलों में 30 ऐसे जिले बचे हैं, जहां नक्सलियों का प्रभाव अब भी कायम है। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पिछले चार वर्षों में नक्सली हिंसा कम हुई है।
केंद्रीय गृह सचिव राजीव गाबा ने बताया कि नक्सली हिंसा में आई कमी का सारा श्रेय सुरक्षा और विकास से जुड़े विभिन्न उपायों की बहुमुखी रणनीति को जाता है। वर्ष 2013 के मुकाबले वर्ष 2017 में नक्सल हिंसा में ३५ प्रतिशत की भारी कमी दर्ज की गयी है। वर्ष 2017 में केवल 57 जिलों में ही नक्सल घटनाएं होने की जानकारी भी रिपोर्ट में दी गयी है। इन तथ्यों के आलोक में एक बात तो स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि नक्सलवाद से लड़ने के लिए मौजूदा सरकार की योजना और रणनीति एकदम सही दिशा में सफलतापूर्वक गतिशील है।
दरअसल मोदी सरकार नक्सलियों से निपटने के लिए केवल सशस्त्र संघर्ष के विकल्प तक ही सीमित नहीं रही है, बल्कि और भी कई तरीके अपनाकर उनको कमजोर करने का काम इस सरकार ने किया है। नक्सलियों का फंडिंग नेटवर्क जिसके तार विदेशों तक से जुड़े होने की बात सामने आती रही है, को ध्वस्त करने की दिशा में सरकार अलग-अलग ढंग से प्रयासरत रही है। गत मार्च में ही नक्सलियों की फंडिंग के नेटवर्क को पूरी तरह से ध्वस्त करने के लिए केन्द्रीय एजेंसियों ईडी, एनआईए और आयकर विभाग की साझा टीम का गठन किया गया, जिसकी निगरानी केन्द्रीय गृह मंत्रालय कर रहा है।
बताया जा रहा कि इस टीम के द्वारा छत्तीसगढ़ सहित बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में नक्सलियों के फंडिंग नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए संयुक्त अभियान शुरू किया जाएगा। कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ, बस्तर क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थाएं तथा कॉरपोरेट घरानों द्वारा नक्सलियों को फंड मुहैया कराए जाने के कुछ साक्ष्य भी ईडी के हाथ लगे हैं, जिनके आधार पर अब ईडी, आईटी विभाग और एनआईऐ की संयुक्त टीम नक्सलियों के फंडिंग नेटवर्क को नेस्तनाबूद करने का काम करेगी।
नोटबंदी के दौरान भी बहुत से नक्सली भारी धनराशि के साथ पकड़े गए थे तथा ऐसी ख़बरें आती रही थीं कि नोटबंदी ने आर्थिक रूप से नक्सलियों को कमजोर किया है। फंडिंग नेटवर्क के निर्मूलन के अलावा सड़क वो महत्वपूर्ण कारक है, जिसने नक्सलवाद की जड़ों को हिलाया है। जिस भी इलाके में सड़कों का जाल बिछने लगता है, नक्सली वहाँ कमजोर होने लगते हैं। क्योंकि, सड़क पहुँचने का अर्थ है सम्बंधित इलाके का विकास की मुख्यधारा से जुड़ जाना। ऐसे में, जब लोग स्वयं को विकास की मुख्यधारा से जुड़ा महसूस करने लगते हैं, तो वे नक्सलियों का हिंसात्मक मार्ग छोड़ विकास का मार्ग चुन लेते हैं।
सरकार इन सब उपायों के जरिये नक्सलवाद को उखाड़ने की कामयाब कोशिशों में लगी है। हालांकि बावजूद इसके सरकार न तो अपनी इस सफलता पर बहुत इतरा सकती है और न ही निश्चिन्त बैठ सकती है, क्योंकि नक्सलियों का कोई भरोसा नहीं है कि वे कब, कहाँ घात लगाकर बैठे हों। अक्सर देखा गया है कि जब भी उनके कमजोर पड़ने की बात उठती है, वे कोई जोरदार हमला अंजाम दे देते हैं। इसलिए सरकार को सचेत रहना चाहिए कि जो जिले नक्सल प्रभाव से मुक्त घोषित हुए हैं, वहाँ दुबारा नक्सलियों की आहट न सुनाई दे।
इस संदर्भ में एक प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्या कारण है कि इतनी कार्यवाहियों के बावजूद नक्सलवाद की ताकत अबतक ख़त्म नहीं हो सकी है ? विचार करें तो अगर आज नक्सलियों की ताकत ऐसी है कि हमारे प्रशिक्षित सुरक्षाबलों के लिए भी उनसे पार पाना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है, तो इसके लिए काफी हद तक देश की पिछली सरकारों की नक्सलियों के प्रति सुस्त व लचर नीतियां ही जिम्मेदार हैं। नक्सल आन्दोलन के शुरूआती दौर में तत्कालीन सरकारों द्वारा इन्हें कत्तई गंभीरता से नहीं लिया गया और इनसे सख्ती से निपटने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया। दिन-ब-दिन ये अपना और अपनी शक्ति का विस्तार करते गए। परिणामतः पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ ये सशस्त्र आन्दोलन धीरे-धीरे देश के कई राज्यों में अपनी जड़ें जमाकर देश की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती बन गया।
वैसे, सत्तर के दशक में जिन उद्देश्यों व विचारों के साथ नक्सल आंदोलन का जन्म हुआ था, वो काफी हद तक सही और शोषित वर्ग के हितैषी थे। पर, समय के साथ जिस तरह से इस आन्दोलन से वे विचार और उद्देश्य लुप्त होते गए, उसने इस आन्दोलन की रूपरेखा ही बदल दी। उन उद्देश्यों व विचारों से हीन इस नक्सल आन्दोलन की हालत ये है कि आज ये बस कहने भर के लिए आन्दोलन रह गया है, अन्यथा हकीकत में तो इसका अर्थ सिर्फ बेवजह का खून-खराबा और खौफ फैलाना ही रह गया है।
शायद इसीलिए नक्सल आन्दोलन के शुरूआती दिनों में इसके अगुवा रहे कानू सान्याल ने अपने अंतिम दिनों में इसे भटका हुआ करार दे दिया था। कानू सान्याल ने बीबीसी से बातचीत में नक्सलियों पर कहा था, “बंदूक के बल पर कुछ लोगों को डरा-धमका कर अपने साथ होने का दावा करना और बात है, और सच्चाई कुछ और है। अगर जनता उनके साथ है तो फिर वे भू-सुधार जैसे आंदोलन क्यों नहीं करते?”
जाहिर है, आज यह तथाकथित आन्दोलन अपने प्रारंभिक ध्येय से अलग एक हानिकारक, अप्रगतिशील व अनिश्चित संघर्ष का रूप ले चुका है। आन्दोलन विचारों से चलता है, पर इस तथाकथित नक्सल आन्दोलन में अब हिंसा को छोड़ कोई विचार नहीं रह गया है। हालांकि नक्सलियों की तरफ से अब भी ये कहा जाता है कि वे शोषितों के मसीहा हैं और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन वास्तविकता इससे एकदम भिन्न है। क्योंकि, आज जिस तरह की वारदातें नक्सलियों द्वारा अक्सर अंजाम दी जाती हैं, उनमे मरने वाले अधिकाधिक लोग शोषित व बेगुनाह ही होते हैं। ऐसे में, नक्सलियों की शोषितों के हितों के संरक्षण व जनहितैषिता वाली बातों को सफ़ेद झूठ न माना जाय तो क्या माना जाय ? बहरहाल, अच्छी बात यह है कि अब धीरे-धीरे सरकार की बहुमुखी रणनीति के द्वारा यह तथाकथित आन्दोलन का अंत होता जा रहा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)