पूरे विपक्षी खेमे में कोई एक नेता ऐसा नहीं दिखता जो मोदी के जवाब में खड़ा हो सके। ऐसे में, ये कहना गलत नहीं होगा कि मोदी के आगे विपक्ष एकदम बे-जवाब हो गया है। उसके पास न तो कोई नेता है और न ही कोई एजेंडा। दरअसल विपक्ष की इस दुर्गति के लिए काफी हद तक विपक्ष की नकारात्मक राजनीति ही जिम्मेदार है, जिससे जनता का उसके प्रति विश्वास एकदम शून्य हो चुका है। वहीं, मोदी की सकारात्मक राजनीति लोगों को स्वाभाविक रूप से आकर्षित कर रही है। यही कारण है कि केंद्र की सत्ता में तीन साल होने के बाद भी मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं हुई है, बल्कि वो लगातार बढ़ती ही नज़र आ रही है।
आज हम उस लोकतान्त्रिक युग में हैं, जहाँ जनता सरकार से हर काम का हिसाब-किताब मांगती है। जनता अपने पार्षदों, विधायकों और सांसदों को चुनाव से पहले हर बार यह सवाल पूछती है कि उन्होंने अपने कितने वादे पूरे किये ? यह एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है, जहाँ जनता यह समझती है कि उसके पास भी सत्ता में भागीदारी का बड़ा मौका है।
आज के तंत्र में कुछ भी छुपा नहीं, सब कुछ पारदर्शी है। अगर आप काम नहीं करते तो जनता आपको सबक सिखाने में देर नहीं लगाती। इस भूमिका की जरूरत इसलिए पड़ रही है, क्योंकि पिछले कुछ समय से बीजेपी को लेकर जहाँ लोगों में अभूतपूर्व समर्थन देखने को मिला है, वहीं विपक्षी खेमे के प्रति अत्यधिक निराशा। आखिर ऐसा क्यों हुआ है?
एक लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना बेहद ज़रूरी होता है, लेकिन यह भी उतना ही ज़रूरी होता है कि विपक्ष अपनी भूमिका के प्रति गंभीर और रचनात्मक दृष्टि से भरा हो। लेकिन क्या भारत का वर्तमान विपक्ष इस सकारात्मक भुमिका के लिए अभी तैयार दिख रहा है ? देश की राजनीति में 2014 के आम चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक मजबूत और कद्दावर नेता के तौर पर उभर कर सामने आए हैं, उनके सामने जितने विपक्षी नेता खड़े थे, सभी अपने अनुभवों और चुनावी प्रदर्शन के आधार पर बौने साबित हुए।
भारतीय लोकतंत्र के पटल पर विपक्षी खेमे के दो नेताओं की हाल में बहुत चर्चा रही है और इसकी वाजिब वजह भी थी। पहले नेता हैं, गाँधी परिवार के वारिस तथा कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी। अभी रस्मी तौर पर राहुल 132 साल पुरानी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं बने हैं, लेकिन पार्टी की कमान कमोबेश उनके हाथ ही है। सोनिया गाँधी भले ही पार्टी की अध्यक्षा हैं, लेकिन टिकट के फैसलों से लेकर चुनावी रणनीति बनाने में सोनिया गाँधी की बहुत निर्णायक भूमिका नहीं रही है। अब यह सब दायित्व राहुल गांधी ही सभाल रहे हैं।
दूसरे नेता की बात करें तो वो हैं अरविन्द केजरीवाल। आज से चार साल पहले गाँधीवादी अन्ना हजारे के नेतृत्व में इंडिया अगेंस्ट करप्शन आन्दोलन का दिल्ली सहित देश भर में बड़ा मूवमेंट चला। तत्कालीन संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार से तंग जनता सड़कों पर उतर पड़ी थी। इसी आन्दोलन से निकलकर बाहर आए अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी।
अन्ना हजारे की सोच में इस आन्दोलन को गैर-राजनीतिक रखना ज़रूरी था। लेकिन, अरविन्द केजरीवाल और उनके साथी इसके लिए तैयार नहीं थे। अरविन्द ने एक नई राजनीतिक पार्टी खड़ी की। दिल्ली की जनता से बड़े-बड़े वादे करके इन्होने दिल्ली में बहुमत भी प्राप्त कर लिया, मगर दो साल के शासन में ही ये साफ़ हो गया है कि केजरीवाल में शासन-प्रशासन और रचनात्मक कार्यों के प्रति कोई ठोस समझ नहीं है। विरोध और आरोप-प्रत्यारोप की नकारात्मक राजनीति भर इन्हें आती है।
बहरहाल, अब राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल ये दो नेता हैं, जो खुद को मोदी के सामने चुनौती के रूप में पेश की करने की ज़द्दोज़हद में लगे हैं, मगर अपनी इस कोशिश में इन्हें लगातार विफलताएं ही हाथ लगी हैं। मगर, बावजूद इसके ये अपनी विफलताओं का अवलोकन करने की बजाय अंध मोदी विरोध की राजनीति में अब भी डूबे हुए हैं।
राहुल गाँधी की बात करें तो वे नेहरु-गाँधी परिवार से आते हैं, उनकों सियासत विरासत में मिली है, सब कुछ थाली में सजा-सजाया हुआ। राहुल गाँधी को बाकी नेताओं की तरह आंतरिक विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है। उनके नेतृत्व में लगातार हार के बावजूद भी पार्टी में कोई उनके खिलाफ मुंह नहीं खोल सकता।
लेकिन, जब तक पार्टी को सफलता न मिले, नेतृत्व की चमक फीकी लगती है और इसी कारण राहुल गाँधी देश की राजनीति पर अपना कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए हैं। राहुल गाँधी के बारे में अक्सर कहा जाता है कि वह चुनाव के समय तो सक्रिय रहते हैं, लेकिन चुनाव के बाद वह कार्यकर्ताओं से मिलते तक नहीं हैं। यह सही भी है।
ऊट-पटांग और बचकाने बयानों के कारण मीडिया में भी राहुल गाँधी की छवि एक गैर-ज़िम्मेदार नेता की बन गई है। वह मीडिया के सवालों का जवाब नहीं देते और सोशल मीडिया से भी कमोबेश दूर रहते हैं। पिछले 10 सालों से वह देश भर में गरीबों की झोंपड़ी में जब-तब जाते रहे हैं, लेकिन उनको अभी तक यह अंदाज़ा नहीं मिल पाया है कि कांग्रेस पार्टी का जनाधार सिमट चुका है और पार्टी यह तय नहीं कर पा रही है कि उसे जाना किस दिशा में है?
अब केजरीवाल पर आएं तो वे बार-बार खुद को मोदी के सामने रखने की कोशिश करते नज़र आते हैं। लेकिन, गौर करें तो मोदी और केजरीवाल में जो मुख्य फर्क नज़र आता है, वह है अपने काम के प्रति निष्ठा और सियासत के प्रति नज़रिया। इस संदर्भ में नरेन्द्र मोदी की बात करें तो वे एक मामूली परिवार से आते हैं, जिनके परिवार का सियासत से दूर-दूर तक वास्ता ही नहीं है। मोदी एक गरीब चाय बेचने वाले छोटे से दूकानदार के पुत्र हैं। लेकिन, गुजरात की जनता के प्रति प्रतिबद्धता ने उनको आज इस मुकाम पर पहुँचाया है। सीधे शब्दों में कहें तो मोदी एक संघर्षमय पृष्ठभूमि से उठकर आए हैं और परफॉरमेंस के ज़रिये खुद को साबित किए हैं।
अगर आपको याद हो, तो नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो दंगे और भूकंप के रूप में बड़ी चुनौतिया उनके सामने आ खड़ी हुई थीं। मगर, उन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए पूरे प्रदेश का एक तरह से पुनर्निर्माण करवाया। गुजरात इन सब संकटों से निकलकर देश का सबसे बड़ा इकनोमिक पावरहाउस बन गया। यह उपलब्धि आसान नहीं थी। यह मोदी का पराक्रम ही था।
गौर करें तो मोदी जब भी बोलते हैं, तो कुछ रचनात्मक और लोककल्याण से जुड़े विषयों पर ही उनका बल होता है। एक नेता के तौर पर वे जिम्मेदारी लेते हैं और उसे पूरा भी करते रहे हैं। लेकिन, अरविन्द केजरीवाल जिम्मेदारी लेना पसंद नहीं करते। वे अक्सर अपनी विफलताओं का दोष दूसरों के मत्थे मढ़ने में लगे रहते हैं। सरल शब्दों में कहें तो अरविन्द केजरीवाल उस बच्चे जैसे हैं, जो हमेशा अपने साथियों से लड़ता रहता है और उसकी शिकायत क्लास टीचर से करता है। यह अच्छा लीडर होने का गुण नहीं है।
लीडर के लिए एक टीम मैन होना ज़रूरी होता है। लोग लीडर से अपेक्षा करते हैं कि वह उनके समस्याओं का समाधान करे, न कि उन्हीसे शिकायत करता रहे। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कोई विभाग अपने हाथों में नहीं रखा। लगातार हार के बाद शायद केजरीवाल इस बात को समझ सकें। मगर दिक्कत यह है कि उनमें गलतियों से सीखने और समझने की कोई ललक आजतक नहीं दिखी है।
कुल मिलाकर पूरे विपक्षी खेमे में कोई एक नेता ऐसा नहीं दिखता जो मोदी के जवाब में खड़ा हो सके। ऐसे में, ये कहना गलत नहीं होगा कि मोदी के आगे विपक्ष एकदम बे-जवाब हो गया है। उसके पास न तो कोई नेता है और न ही कोई एजेंडा। दरअसल विपक्ष की इस दुर्गति के लिए काफी हद तक विपक्ष की नकारात्मक राजनीति ही जिम्मेदार है, जिससे जनता का उसके प्रति विश्वास एकदम शून्य हो चुका है। वहीं, मोदी की सकारात्मक राजनीति लोगों को स्वाभाविक रूप से आकर्षित कर रही है। यही कारण है कि केंद्र की सत्ता में तीन साल होने के बाद भी मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं हुई है, बल्कि वो लगातार बढ़ती ही नज़र आ रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)