प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार जब 2014 में सत्तारूढ़ हुई तो इजरायल पर ध्यान केन्द्रित किया जाने लगा और इस तरह अब भारतीय विदेशनीति के केंद्र में इजरायल का आगमन हुआ। इस सरकार ने इजरायल को रक्षा सौदों में भी वरीयता देनी शुरू की और इजरायल की उन्नत मिसाइल रक्षा प्रणाली की खरीद के सौदे पर सहमति बनी। दूसरी तरफ इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव फिलिस्तीन से भारत के संबंधों पर भी नहीं पड़ने दिया गया है। ये संतुलन साधने की दिशा में मोदी इसलिए बढ़ सके हैं, क्योंकि उनकी सरकार की विदेशनीति का निर्धारण वोट बैंक की संकीर्ण राजनीति से प्रेरित होकर नहीं किया जा रहा।
याद्दाश्त को जरा पीछे ले जाएं तो अभी कुछ समय पहले की बात है, जब अमेरिका द्वारा येरुशलम को इजरायल की राजधानी बनाने का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में पेश किया गया था, लेकिन उस समय भारत ने लगभग अप्रत्याशित ढंग से उस प्रस्ताव के विरोध में अपना मत दिया था। तत्कालीन दौर में इस निर्णय को देखते हुए मोदी सरकार की विदेशनीति को लेकर कई प्रश्न उठाए गए थे और कहा गया था कि इस सरकार की विदेशनीति की कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं है। माना गया था कि इस प्रस्ताव के विरोध से भारत-इजरायल संबंधों पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। लेकिन, इन विश्लेषणों की बुनियाद तब चरमरा गई जब इस घटना के कुछ ही दिनों बाद इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का भारत आगमन हुआ।
नेतन्याहू ने तब न केवल यह स्पष्ट किया कि येरुशलम प्रकरण का भारत-इजरायल संबंधों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, बल्कि दोनों देशों के बीच तमाम समझौतों को आगे बढ़ाकर संबंधों को बल देने की अपनी मंशा को भी स्पष्ट कर दिया। पर, कुछ विघ्नसंतोषियों ने इसमें भी समस्या खोज ली। विश्लेषण यह किया जाने लगा कि इजरायल से इतनी निकटता कायम करके भारत फिलस्तीन व अरब देशों की आँखों का काँटा बन रहा है। लेकिन, अब अपने फिलस्तीन, यूएई व ओमान आदि देशों की यात्रा के जरिये प्रधानमंत्री मोदी ने एकबार फिर इन विघ्नसंतोषी बुद्धिजीवियों के सभी विश्लेषणों को हवा-हवा कर दिया है।
मोदी जब फिलिस्तीन पहुँचे तो न केवल उनका वहाँ भव्य स्वागत हुआ, बल्कि उन्हें विदेशी राजनयिकों को दिए जाने वाले फिलिस्तीन के सबस बड़े सम्मान ‘ग्रैंड कॉलर ऑफ़ द स्टेट ऑफ़ फिलस्तीन’ से सम्मानित भी किया गया। फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास द्वारा कहा गया कि इजरायल और फिलिस्तीन के बीच बातचीत के लिए वातावरण तैयार करने में भारत बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। ये न केवल भारत बल्कि समूचे विश्व के लिए एक बड़ी महत्वपूर्ण खबर थी कि फिलिस्तीन, इजरायल से अपने संबध बेहतर करवाने के लिए भारत को आमंत्रित कर रहा है।
इसके बाद मोदी ओमान और यूएई भी पहुँचे तथा वहाँ भी उनका भव्य स्वागत हुआ। राष्ट्रपति अब्बास के बयान तथा यूएई-ओमान में मोदी के भव्य स्वागत के पश्चात् उन विश्लेषकों के पास शायद ही कहने को कुछ बचा हो, जो इजरायल से भारत की निकटता को फिलिस्तीन तथा अरब देशों की नाराजगी का कारण बताने में लगे थे।
गौर करें तो आजादी के बाद इजरायल ने भारत से सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया, परन्तु मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति से प्रेरित तत्कालीन भारतीय हुक्मरानों ने अपनी नीति इजरायल की बजाय फिलिस्तीन केन्द्रित रखी। इजरायल ने कई अवसरों पर भारत के निकट आने का प्रयास किया, मगर पं। नेहरू की फिलिस्तीन केन्द्रित नीति के कारण भारत-इजरायल के बीच आधिकारिक तौर पर सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाए। आगे भी लम्बे समय तक देश में कांग्रेस की ही सरकारें रहीं, इस कारण नेहरू की ही नीति पर देश चलता रहा और भारतीय विदेशनीति में इजरायल हाशिये पर रहा। बीच में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आई तो इजरायल से संबंधों को बेहतर करने की दिशा में भारत ने बढ़ने की कोशिश तो की, मगर उसके बाद फिर कांग्रेसनीत संप्रग सरकार आ गयी और देश की विदेशनीति फिर उसी नेहरूवादी ढर्रे पर चल पड़ी।
लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार जब 2014 में सत्तारूढ़ हुई तो इजरायल पर ध्यान केन्द्रित किया जाने लगा और इस तरह अब भारतीय विदेशनीति के केंद्र में इजरायल का आगमन हुआ। इस सरकार ने इजरायल को रक्षा सौदों में भी वरीयता देनी शुरू की और इजरायल की उन्नत मिसाइल रक्षा प्रणाली की खरीद के सौदे पर सहमति बनी। दूसरी तरफ इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव फिलिस्तीन से भारत के संबंधों पर भी नहीं पड़ने दिया गया है।
ये संतुलन साधने की दिशा में मोदी इसलिए बढ़ सके हैं, क्योंकि उनकी सरकार की विदेशनीति का निर्धारण वोट बैंक की संकीर्ण राजनीति से प्रेरित होकर नहीं किया जा रहा। स्पष्ट है कि इस सरकार को न तो मुस्लिम मतदाताओं की अनुचित नाराजगी की ही कोई चिंता है और न ही मुस्लिम तुष्टिकरण की ही कोई इच्छा इसमें दिखाई देती है। इस सरकार की विदेशनीति के केन्द्र में केवल राष्ट्रहित है और उसपर अडिग रहते हुए ही ये सरकार अपनी विदेशनीतियों का निर्धारण कर रही है।
इजरायल और फिलिस्तीन दोनों देशों के अपने मतभेद और वैमनस्य हैं, लेकिन वे इस कारण भारत से अपने संबंधों को ख़राब करने की अदूरदर्शिता का परिचय कभी नहीं देंगे। भारत से सम्बन्ध होना इजरायल के लिए जहाँ बाजार और साझीदार दो रूपों में लाभकारी है, वहीं फिलिस्तीन भी कभी नहीं चाहेगा कि उसका पुराना मित्र भारत उससे कटकर इजरायल का मित्र बनकर रह जाए।
स्पष्ट है कि इन दोनों देशों के लिए भारत जरूरी है, अतः ये किसी भी स्थिति में भारत से अपने संबंधों को बिगड़ने नहीं देना चाहेंगे। अब मोदी ने तो अमेरिका और रूस जैसे देशों के साथ संबंधों का संतुलन कायम कर लिया, फिर इजरायल-फिलिस्तीन के बीच वे संतुलन कायम करना उनके लिए कोई बड़ी चुनौती न थी। अतः कहना न होगा कि येरुशलम प्रकरण से लेकर अब फिलिस्तीन की यात्रा तक सारा घटनाक्रम मोदी ने अपने दिमाग में पहले से ही रच लिया होगा, जिसे अब वे क्रियान्वित कर रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)