शशांक
बराक ओबामा के राष्ट्रपति काल का एक यह अंतिम साल है और इस वर्ष अमेरिका ने दुनिया के गिने-चुने नेताओं की ही मेजबानी की है। ऐसे
में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजकीय दौरे पर वाशिंगटन जाना काफी महत्व रखता है। प्रधानमंत्री मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति पिछले दो वर्षों में सात बार मिल चुके हैं और आगे भी जी-20 सम्मेलन के दौरान उनकी मुलाकात होगी। साफ है, इन दोनों नेताओं के बीच एक अच्छी समझ बन चुकी है। नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा की खास बात यह है कि अमेरिका ने न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी में भारत की सदस्यता की अर्जी का खुलकर समर्थन किया है। दोनों शीर्ष नेताओं की मुलाकात के बाद जारी साझा बयान में इस बात का साफ-साफ उल्लेख किया गया है कि बराक ओबामा ने एनएसजी के सदस्य देशों से यह अपील की है कि अगले महीने जब इस संदर्भ में बैठक हो, तो सदस्य देश भारत का समर्थन करें। एनएसजी में भारत के प्रवेश की राह में चीन रोड़े अटकाता रहा है, पर ओबामा ने अपने देश की मंशा साफ कर दी है। हालांकि हमें एनएसजी की बैठक का न सिर्फ इंतजार करना होगा, बल्कि इस संस्था के तमाम सदस्य देशों के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करते हुए उन्हें संतुष्ट करने के प्रयास भी करते रहने होंगे। यह सही है कि यूरोप के कुछ देशों को शुरू-शुरू में आपत्ति थी, लेकिन अब वे हमारे रिकॉर्ड से संतुष्ट हो गए हैं। कुछ देशों के साथ तो बस प्रक्रियागत मामला रह गया है। इसलिए हमें अमेरिका के समर्थन के बाद भी उन देशों को संतुष्ट करने के प्रयास जारी रखने पड़ेंगे।
दरअसल, पिछली यूपीए सरकार के दौरान ही भारत और अमेरिका के बीच परमाणु करार हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने शांतिपूर्ण परमाणु सहयोग की बुनियाद रखी थी। तभी से दोनों देशों के बीच परमाणु लेनदेन से संबंधित तमाम वैश्विक संगठनों में भारत का प्रवेश सुनिश्चित करने की बातचीत चलती रही है। अब वाशिंगटन के रुख से लगता है कि राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल में ही शायद यह काम पूरा हो जाए। अमेरिका ने भारत में परमाणु रिएक्टर लगाने के काम जल्द शुरू करने का जो भरोसा दिया है, उसे इस दिशा में एक ठोस संकेत कहा जा सकता है।
अमेरिकी समर्थन के बाद अब भारत के मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम यानी एमटीसीआर में शामिल होने का रास्ता भी साफ हो गया है। इस संगठन के किसी सदस्य देश ने आपत्ति नहीं जताई है। एमटीसीआर का सदस्य बनने के बाद अमेरिका से परिष्कृत प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण का रास्ता खुल जाएगा। मसलन, इस संगठन की सदस्यता मिलने के बाद हम अपनी सैन्य जरूरतों के लिए मानव रहित ड्रोन जैसी चीजें अमेरिका से खरीद सकेंगे। चूँकि भारत एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रहा है। हमें यह याद रखना होगा कि सुरक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी चुनौती साइबर क्षेत्र में खड़ी होने वाली है। ऐसे में, अमेरिका के साथ सामरिक सहयोग हमें उन्नत तकनीकी से लैस कर सकता है।
एशिया में भारत और अमेरिका की कुछ साझा चिंताएं हैं, जिनमें आतंकवाद का मसला तो है ही, चीन की आक्रामक विस्तारवादी नीति भी एक बड़ी चिंता है। इसकी झलक दोनों नेताओं की मुलाकात के बाद जारी साझा बयान में भी मिलती है। दोनों देशों ने न सिर्फ आतंकी समूहों के खिलाफ एक-दूसरे की मदद करने का एलान किया है, बल्कि अमेरिका ने पाकिस्तान से यह साफ-साफ कहा है कि वह मुंबई हमलों और पठानकोट आतंकी मामले के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई तेज करे। इससे पाकिस्तान पर दबाव बढ़ेगा। पूरी दुनिया जान चुकी है कि भारत में पाकिस्तान की तरफ से आतंकी आते हैं। इसलिए इसे पाकिस्तान को चेतावनी कहा जा सकता है।
अमेरिका साउथ चाईना-सी में चीन की गतिविधियों के अलावा एशिया में उसकी बढ़ती दखलंदाजी से त्रस्त अपने मित्र देशों को लेकर भी चिंतित है। चीन न सिर्फ इस क्षेत्र के द्वीपों को हड़पने की मंशा रखता है, बल्कि कई नदियों पर बड़े-बड़े बांध बनाकर पड़ोसी देशों को तंग भी कर रहा है। यही नहीं, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया में चीन की भूमिका को लेकर भी वाशिंगटन सतर्क है। ऐसे में, एशिया में शांति और संतुलन के लिए वह भारत को एक मजबूत साझीदार के तौर पर देखता है। ‘अमेरिका-भारत साझा रणनीतिक दृष्टिकोण’ के तहत दोनों देश एशिया-प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र में सुरक्षा संबंधी व आर्थिक सहयोग कर रहे हैं। भारत और अमेरिका एक स्वाभाविक सहयोगी के रूप में उभरते हैं, तो इस क्षेत्र के अन्य देश भी उनके साथ आएंगे, क्योंकि इससे उनके हितों का भी पोषण हो सकेगा।
इस बार के अपने दौरे में प्रधानमंत्री ने वाशिंगटन में कारोबारियों के अलावा अमेरिकी ‘थिंक टैंक’ मानी जाने वाली शख्सीयतों से भी अलग से मुलाकात की है। यह कदम भविष्य के लिहाज से उठाया गया है। चूंकि अमेरिका में चुनाव के बाद एक नया प्रशासन आने वाला है, ऐसे में बुद्धिजीवियों से मुलाकात आगे की तैयारी के लिहाज से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे हमें भविष्य में आपसी रिश्तों को बेहतर बनाने का आधार मिलता है।
प्रधानमंत्री के इस दौरे की अहमियत इस बात से भी आंकी जा सकती है कि अमेरिका में इस वक्त नए राष्ट्रपति को चुनने की प्रक्रिया चल रही है, और वहां के तमाम नेता इस प्रक्रिया में व्यस्त हैं, बावजूद इसके अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों की एक बड़ी संख्या ने यह इच्छा जाहिर की थी कि वे मोदी को सुनना चाहते हैं। अमेरिकी कांग्रेस की साझा बैठक को तो पहले भी भारत के प्रधानमंत्रियों ने संबोधित किया है, लेकिन इस चुनावी व्यस्तता में मोदी को सुनने का आग्रह यकीनन भारतीय प्रधानमंत्री की विश्व नेता के रूप में उभरती छवि का संकेत है। यह इस बात की भी पुष्टि करता है कि भारत एक बड़ी शक्ति बन चुका है, और उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
(लेखक पूर्व में विदेश सचिव रह चुके हैं , यह लेख दैनिक हिंदुस्तान में ९ जून को प्रकाशित हुआ था )