अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में किसी भी राष्ट्र की कामयाबी क्या उसकी अपनी आर्थिक और सैनिक ताकत पर ही निर्भर करती है। बीसवीं सदी
के आखिरी दशकों तक तो अंतरराष्ट्रीय राजनय में कामयाबी का यह आधार कामयाबी का अहम पैमाना जरूर था। लेकिन इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते इस पैमाने का आधार बढ़ा है। इसमें अब राष्ट्र या शासन प्रमुखों के आपसी रिश्ते भी इस वैश्विक राजनीति में कामयाबी हासिल करने की एक सीढ़ी जरूर बन गए हैं। मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था यानी एमटीसीआर में भारत की सदस्यता को अमेरिकी समर्थन सिर्फ इसलिए ही हासिल नहीं हुआ है कि भारत ने हाल के दिनों में आर्थिक, सैनिक और तकनीकी कामयाबी के नए सोपानों को चूम लिया है। बल्कि भारत को मिलने जा रही इस कामयाबी के पीछे दो साल से चल रही नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार का भी अहम योगदान है। यह सामान्य बात नहीं है कि अपने दो साल के शासनकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चौथे दौरे पर अमेरिका में हैं। जहां उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात की है। दोनों नेताओं की यह सातवीं मुलाकात है। ये मुलाकातें सिर्फ कूटनीतिक रिश्तों की वजह से संभव नहीं हो पाई हैं। बल्कि इसके पीछे दोनों नेताओं के बीच विकसित हुई आपसी समझ भी है। जिसका असर अब वैश्विक राजनीति पर भी नजर आने लगा है। एमटीसीआर में भारत को सदस्य बनाने को लेकर इस समूह के सदस्य देशों की सितंबर में होने वाली बैठक में औपचारिक चर्चा होगी। बराक ओबामा के रूख के बाद यह तय है कि भारत अब इसका सदस्य बन ही जाएगा। वैसे भी ओबामा अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में हैं। चार जनवरी 2017 को उनका कार्यकाल खत्म हो जाएगा और इसके साथ ही वे भूतपूर्व महाबली हो जाएंगे। ऐसे में माना यह जा रहा है कि मोदी के साथ बढ़ते अपने रिश्तों के चलते वे जाते-जाते भारत को इस समूह का सदस्य बना जाएंगे। इसका फायदा यह होगा कि भारत को मिसाइल तकनीक के सदस्य देशों से आदान-प्रदान का मौका मिलेगा। इससे भारत दुनिया में सबसे ताकतवर और कुशल मानी जाने वाली अमेरिकी ड्रोन और मिसाइल तकनीक को भी हासिल कर सकेगा। एमटीसीआर समूह में 35 देश शामिल हैं। इनमें से अभी तक किसी ने भारत के खिलाफ विरोध का सुर बुलंद नहीं किया था। अलबत्ता इटली ने अपने नौसैनिकों के मुद्दों को लेकर जरूर अड़ंगा लगाया था। लेकिन अमेरिकी रूख के बाद उसका भी सुर बदल गया है। वैसे भारत के पास अग्नि, ब्रह्मोस जैसी मिसाइलें पहले से हैं। लेकिन माना जाता है कि अमेरिकी तकनीक के मुकाबले भारतीय तकनीक अभी-भी कमजोर है। जब भारत एमटीसीआर का सदस्य बन जाएगा तो अमेरिकी तकनीक वह हासिल कर सकेगा और इसके जरिए भारत का मिसाइल कार्यक्रम और उन्नत हो जाएगा।
एमटीसीआर में अमेरिकी सहयोग से इसी 12 जून को सियोल में होने जा रही परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह की सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी मजबूत हो जाएगी। चीन की तरफ से इस पर अड़ंगा लगा था। लेकिन उम्मीद की जा रही है कि अब वह भी अपने कदम पीछे खींच लेगा। इस समय अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी चीन में ही हैं और माना जा रहा है कि वह चीन से इस सिलसिले में चर्चा करेंगे। जॉन कैरी जापान को भी परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह देशों में भारत को शामिल करने के लिए जापान को भी राजी कर रहे हैं। हालांकि जापान ने अपनी तरफ से विरोध के कोई संकेत नहीं दिए हैं। वैसे चीन का रूख भी बदल सकता है। उसने भी इसके संकेत दिए हैं। चीन के राष्ट्रीय टेलीविजन पर 2008 में 26 नवंबर को मुंबई पर हुए हमले को लेकर पाकिस्तान स्थित आतंकी समूह अलकायदा के हाथ को लेकर डाक्यूमेंट्री दिखाई है। यह पहला मौका है, जब चीन ने खुलेतौर पर माना है कि भारत में आतंकवादी गतिविधियों के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। जो चीन हाल के दिनों तक मसूद अजहर की निंदा वाले प्रस्ताव का विरोध कर रहा था, उसका यह रूप निश्चित तौर पर चीन के रूख में बदलाव का ही संकेत है। चीन के रूख में बदलाव की एक बड़ी वजह मोदी-ओबामा के रिश्तों का रसायन भी है। साठ के दशक में जो अमेरिका हमें मोटा गेहूं देकर ना सिर्फ अहसान जताता था, बल्कि हमारी बजाय पाकिस्तान को तरजीह देता था, उस अमेरिका के रूख में यह बदलाव निश्चित तौर पर ऐतिहासिक है।
(लेखक नेशनलिस्ट ऑनलाइन की सलाहकार समिति के सदस्य हैं)