मोदी सरकार द्वारा तीनों नए कृषि कानूनों को तीन साल तक स्थगित रखने और कृषि कानूनों की समीक्षा के लिए उच्चाधिकार प्राप्त समिति बनाने के प्रस्ताव के बावजूद किसान संगठन तीनों कानूनों की वापसी की मांग छोड़ने को तैयार नहीं है। यही कारण है कि गतिरोध खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। गहराई से देखा जाए तो यह आंदोलन किसानों के हित में न होकर मोदी विरोध में तब्दील हो चुका है।
आज वही किसान नेता आंदोलन कर रहे हैं जो लंबे समय से किसानों के हित के लिए खेती-किसानी में उदारीकरण की नीतियों को लागू करने की मांग करते रहे हैं। भारतीय किसान यूनियन और इसके नेता राकेश टिकैत भले ही आज तीनों नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं लेकिन भारतीय किसान यूनियन लंबे अरसे से एक देश – एक मंडी की मांग करती रही है।
राकेश टिकैत भी कई बार मांग कर चुके हैं कि किसानों को अपनी उपज देश में कहीं भी बेचने की आजादी मिलनी चाहिए। अब जब मोदी सरकार नए कृषि कानूनों के जरिए कृषि विपणन व्यवस्था में सुधार कर रही है तब वे विरोध कर रहे हैं।
कमोबेश यही स्थिति राजनेताओं की भी है। कपिल सिब्बल से लेकर शरद पवार तक कृषि क्षेत्र में उदारीकरण और बाजार अर्थव्यवस्था लागू करने की मांग कर रहते हैं। खुद कांग्रेस पार्टी ने 2019 के लोक सभा चुनाव के पहले जारी घोषणा पत्र में एपीएमसी एक्ट खत्म करने और किसानों को बिचौलियों के चंगुल से आजाद कराने का वादा किया था। 4 दिसंबर 2012 को केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने लोक सभा में किसानों को मंडी व्यवस्था से आगे उपज बेचने की आजादी के पक्ष में लंबा-चौड़ा भाषण दिया था।
संप्रग शासनकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कृषि मंत्री शरद पवार ने कृषि क्षेत्र में सुधारों के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की थी, लेकिन आढ़तियों-बिचौलियों की मजबूत लॉबी के विरोध के चलते वे ऐसा नहीं कर पाए। संप्रग सरकार में कृषि मंत्री रहते हुए शरद पवार ने मुक्त बाजार की वकालत की थी।
इसके लिए कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमएस) एक्ट में संशोधन के लिए उन्होंने कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र भी लिखा था ताकि कृषि के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़े। सबसे बड़ी बात यह है कि मोदी सरकार ने नए कृषि कानूनों में वही बदलाव किए हैं जिनकी बात कृषि मंत्री रहते हुए शरद पवार ने की थी।
संप्रग सरकार ने 2007 में निजी कंपनियों को गेहूं खरीदने की छूट दी थी जिससे किसानों को अपनी उपज की अच्छी कीमत मिली थी लेकिन सरकारी खरीद का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया और मनमोहन सिंह सरकार को आस्ट्रेलिया से महंगी दरों पर 53 लाख टन गेहूं खरीदने के लिए विवश होना पड़ा था।
इसके बाद सरकार ने 2008 में बड़ी कंपनियों को गेहूं खरीद की अनुमति देने से मना कर दिया था। उस दौर में पंजाब-हरियाणा के यही किसान नेता गेहूं खरीद में बड़ी कंपनियों को शामिल करने के लिए आंदोलन किए थे।
इतना ही नहीं, अर्थशास्त्रियों का एक ऐसा वर्ग भी है जो पहले कृषि क्षेत्र में उदारीकरण के लिए आवाज उठाता था लेकिन आज तीनों नए कानूनों का विरोध कर रहा है। इनमें सबसे प्रमुख नाम है पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु का।
भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार पद पर रहते हुए कौशिक बसु ने लगातार कृषि सुधारों का समर्थन किया था लेकिन अब वे दूसरी भाषा बोल रहे हैं। गौरतलब है कि कौशिक बसु यूपीए की सरकार में वर्ष 2009 से 2012 के बीच मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। यही हाल एक अन्य कृषि अर्थशास्त्री निर्विकार सिंह का है।
समग्रत: कुछेक किसान संगठनों द्वारा चलाए जा रहे इस आंदोलन को भले किसान हितैषी का तमगा दिया गया हो लेकिन सच्चाई यह है कि यह आंदोलन राजनीतिक रूप ले चुका है। सबसे बड़ी बात यह है कि आंदोलन मोदी विरोधियों का मंच बनता जा रहा है। इसी का नतीजा है कि इसके जनसमर्थन में लगातार गिरावट आ रही है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)