कृषि सुधार के नए कानूनों के खिलाफ तथाकथित किसान नेताओं को मुद्दे नहीं मिल रहे हैं तो इसका कारण यह है कि ये आंदोलन किसानों के लिए नहीं बल्कि आढ़तियों-बिचौलियों की तगड़ी लॉबी को बचाने के लिए चलाया जा रहा है। किसानों के तथाकथित रहनुमा यह क्यों नहीं बता रहे हैं कि पुराने कानूनों के लागू रहते खेती घाटे का सौदा क्यों बन गई?
कृषि सुधार के नए कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसान संगठनों के साथ सरकार की 1 दिसंबर को हुई तीसरे दौर की वार्ता भी बिना किसी परिणाम के खत्म हो गई। चार घंटे लंबी इस वार्ता में किसान नेता कानूनों को समाप्त करने की पुरानी जिद पर अड़े रहे लेकिन वे नए कानून के उन प्रावधानों को नहीं बता सके जो सीधे किसान हितों के विरूद्ध हों।
तीन दिसंबर हो होने वाली चौथे दौर की वार्ता के लिए सरकार ने किसान नेताओं से दो टूक कह दिया है कि वे उन प्रावधानों को चिन्हित करके लाएं जो किसान हितों के विरूद्ध हों।
कृषि सुधार के नए कानूनों के खिलाफ तथाकथित किसान नेताओं को मुद्दे नहीं मिल रहे हैं तो इसका कारण यह है कि ये आंदोलन किसानों के लिए नहीं बल्कि आढ़तियों-बिचौलियों की तगड़ी लॉबी को बचाने के लिए चलाया जा रहा है।
किसानों के तथाकथित रहनुमा यह क्यों नहीं बता रहे हैं कि पुराने कानूनों के लागू रहते खेती घाटे का सौदा क्यों बन गई?
अन्नदाता आत्महत्या को क्यों गले लगा रहा है? हर साल बंपर फसल होने की दशा में किसान को अपनी लागत निकालनी क्यों मुश्किल हो जाती है? धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1880 रूपये प्रति क्विंटल है लेकिन कई राज्यों में 1100 रूपये प्रति क्विंटल में खरीदार नहीं मिल रहे हैं।
इसका कारण है कि देश में कृषि उपजों के कारोबार में हर कदम पर बाधाएं मौजूद हैं। उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में उद्योग-व्यापार को सुगम बनाने के लिए सिंगल विंडो सिस्टम, ई-कॉमर्स जैसे सैकड़ों उपाय किए गए लेकिन कृषि उपजों का कारोबार “जहां का तहां” वाली स्थिति में ही है।
इसी का नतीजा है कि जूता-चप्पल से लेकर हवाई जहाज तक बनाने वाली कंपनियां अपने सामान बेचने के लिए आजाद हैं लेकिन किसान नहीं। उसे अपनी उपज बेचने के लिए बिचौलियों का सहारा लेना ही पड़ता है और किसानों से पांच रूपये किलो खरीदी गई प्याज के लिए उपभोक्ता को पचास रूपये चुकाना पड़ता है। कई बार तो किसान की लागत भी नहीं निकल पाती है।
कृषि उपजों के कारोबार में सबसे बड़ी बाधा 1953 में बना एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) कानून है। इसके तहत किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए बिचौलियों (आढ़तियों) को सहारा लेना ही होगा।
इस कानून के कारण न तो नए व्यापारियों को आसानी से लाइसेंस मिलते हैं और न ही किसी नई मंडी का निर्माण हो पाता है। कृषि उपजों के कारोबार में हर कदम पर बिचौलियों के वर्चस्व का ही नतीजा है कि जहां 1950-51 में उपभोक्ता द्वारा चुकाई गई कीमत का 89 फीसदी हिस्सा किसानों तक पहुंचता था वहीं आज यह अनुपात घटकर 34 फीसदी रह गया है।
आज उपभोक्ता द्वारा चुकाई गई कीमत का 66 फीसदी उन नकली किसानों (बिचौलियों-आढ़तियों) की जेब में जा रहा है जो कभी खेत में गए ही नहीं। यदि पूरे देश के पैमाने पर देखें तो यह रकम सालाना 20 लाख करोड़ रूपये आएगी।
मोदी सरकार बिचौलियों-आढ़तियों के इसी वर्चस्व को तोड़ने के लिए कृाषि सुधार के नए कानूनों को लाई है। बिना पसीना बहाए हजारों करोड़ रूपये की वसूली करने वाली बिचौलियों-आढ़तियों की लॉबी भला कृषि कारोबार को क्यों निर्बाध होने देगी।
इसीलिए वह भांति-भांति के भ्रम फैलाकर किसानों को गुमराह कर रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि किसान आंदोलन उन्हीं राज्यों में जोर पकड़ रहा है जहां कांग्रेस की सरकार है या कांग्रेस समर्थित आढ़तियों की सशक्त लॉबी मौजूद है।
सच्चाई यह है कि मोदी सरकार कृषि उपजों के बाधामुक्त कारोबार को बढ़ावा दे रही है। इससे न सिर्फ उपज की वाजिब कीमत मिलेगी बल्कि किसानों की आमदनी बढ़ाने में सहायता मिलेगी जिससे खेती मुनाफा का सौदा बनेगी।
इसे पिछले छह वर्षों में मोदी सरकार द्वारा किए गए उपायों से समझा जा सकता है। सरकार ने न सिर्फ फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया बल्कि अधिक से अधिक सरकारी खरीद की पक्की व्यवस्था की।
सरकार हर गांव तक ब्रॉड बैंड सुविधा का विस्तार कर रही है ताकि हर किसान की इलेक्ट्रॉनिक मंडी (E-NAM) तक पहुंच बन सके। मेगाफूड पार्क्स, कोल्ड चेन प्रोजेक्ट्स के साथ-साथ किसान रेल चलाई जा रही है ताकि कम खर्च में उपज बाजार तक पहुंच सके।
सरकार के इन प्रगतिशील कदमों से आढ़तियों-बिचौलियों की लॉबी बौखला गई है। इसीलिए वह किसानों को मोहरा बनाकर उन्हें आंदोलन में झोंक रही है। मोदी विरोधी राजनीतिक दल, गैर सरकारी संगठन और मीडिया भी इस मौके का फायदा उठाकर मोदी सरकार को बदनाम करने में जुटे हैं लेकिन देश का बहुसंख्यक किसान सच्चाई जानता है इसीलिए वह सरकार के साथ है।
(लेखक केंद्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)