अभिनव प्रकाश
संसदीय सचिवों की नियुक्ति को लेकर आम आदमी पार्टी एक बार फिर से विवादों में घिरी हुई हैं। दिल्ली सरकार द्वारा की गई नियुक्ति संविधान और लोकतंत्र की स्थापित परंपराओं की विपरीत हैं। इस प्रकार की दोहरे लाभ के पद की नियुक्तियों को पहले भी कई बार देश के विभिन्न हाई कोर्ट निरस्त कर चुके हैं। जैसा कि अब सामने आ रहा हैं कि आला अधिकारियों द्वारा चेताने के बावजूद ये नियुक्तियां की गईं। जब इस पर विवाद उठना शुरू हुआ तो दिल्ली सरकार ने एक नया कानून लाकर इस गैर-कानूनी कृत्य को कानूनी जामा पहनाना चाहा। और जब राष्ट्रपति ने इस बिल को अपनी स्वीकृति देने से मना कर दिया तो आम आदमी पार्टी संविधान और संविधानिक पदों की अवमानना पर उतर आई है। पार्टी का तर्क है कि चूंकि केजरीवाल सरकार आम आदमी के हित में काम कर रही हैं तो ऐसी नियुक्ति में गलत ही क्या है? नई तरह की राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी का यह रवैया दरअसल उन आशंकाओं को बल देता है जो इसकी स्थापना को समय से ही व्यक्त की जा रही हैं कि आम आदमी के नाम पर हो रही यह राजनीति लोकतंत्र के लिए एक खतरे की तरह है। इसे समझने के लिए पार्टी के उद्भव पर नजर डालिए। यह पार्टी और इसे चलाने वाले लोग किसी लोकतांत्रिक या सामाजिक संघर्षो से उठकर नहीं आए। कांग्रेस के शासन में अप्रत्याशित भ्रष्टाचार, गिरती अर्थव्यवस्था और प्रशासनिक अव्यवस्था से उपजा जनाक्रोश अन्ना हजारे के आंदोलन के माध्यम से मुखरित हुआ। पार्टी के मौजूदा नेता उस आंदोलन का हिस्सा भर थे, परंतु बेहद सधे हुए कदमों से उन्होंने इस मंच पर कब्जा किया और मीडिया की मदद से अपने आप को इस आक्रोश का चेहरा बना लिया। सभी को याद होगा कि किस प्रकार से मीडिया कुछ हजार की भीड़ को चौबीसों घंटे ऐसे दिखा रहा था मानो सवा अरब की आबादी वाले देश में कुछ और हो ही न रहा हो। आम आदमी पार्टी को खड़ा करने का श्रेय मीडिया को जाता है, किसी वास्तविक लोकतांत्रिक उभार को नहीं। राजनीति के इस मुकाम तक आने में अटल बिहारी वाजपेयी, मायावती, नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी जैसों ने अपनी जिंदगी के दशकों लगा दिए, गांव-गली में लोगों के साथ सालों बिताए, देश और राजनीति को समझा और जन-संघर्षो से तप कर निकले। परंतु दिल्ली में रहकर लाखों का चंदा लेने वाले एनजीओ, मीडिया और सिविल सोसायटी के तबके के लोग अकस्मात ही सत्ता पर काबिज हो गए। यह अपने आप में चिंता का विषय है कि किस प्रकार से मीडिया के उपयोग से एक कृत्रिम आंदोलन खड़ा किया जा सकता है और जन-मानस को प्रभावित कर रातों-रात सत्ता हासिल की जा सकती है। आप का मानना है कि कानून सड़कों पर बनाए जाएंगे। यह कुछ और नहीं, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान को खत्म करने की मांग है। लोकतंत्र का अभिप्राय यह नहीं है कि जनता जो जब चाहे वही होगा। वह तो भीड़तंत्र होता है जहां जंगलराज चलता है। लोकतंत्र कानून के राज की संरचना है, वे कानून जिन्हें जनता द्वारा नियुक्त जनप्रतिनिधि लोकतांत्रिक विवेचना के बाद निर्मित करते हैं। लेकिन जब से आम आदमी पार्टी सता में आई है, वह इन सब प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिए तमाम हथकंडे अपनाती रही है। नियमों को ताक पर रखते हुए अपने संदेहास्पद कानून पास करने की कोशिशें, गैर-कानूनी ढंग से बिल पेश करना, विपक्ष के सदस्यों को विरोध करने पर सदन से बाहर फेंका जाना, मीडिया पर घोषित-अघोषित पाबंदियां लगाना, दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर पर हर वक्त बेबुनियाद आरोप लगाना, उन्हें और प्रधानमंत्री को सड़क छाप भाषा में पत्र लिखना इत्यादि शामिल हैं। जो भी पार्टी से सहमत नहीं होता उसको भ्रष्टाचार के नाम पर या आम आदमी के विरोधी होने के नाम पर जिस प्रकार से धमकाया जाने लगा है वह स्टालिन-माओ की भाषा है, जिन्होंने इसी की आड़ लेते हुए सभी विरोधियों समेत करोड़ों लोगों को खत्म कर दिया था। आम आदमी पार्टी जन-लोकपाल के नाम पर एक ऐसा तानाशाह बनाना चाहती थी जो प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से भी ऊपर होता और जिसकी शक्तियों के सामने सुप्रीम कोर्ट भी गौण हो जाता। जो आरोप भी तय करता, जांच भी ख़ुद ही करता और सजा भी खुद ही सुनाता। यह लोकतंत्र और संविधान के मूलभूत सिद्धांत, सत्ता के विभाजन को नष्ट करने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं था। केजरीवाल सरकार शायद दिल्ली की पहली ऐसी सरकार है जिसमें दलितों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। दिल्ली की आधी से ज्यादा दलित-ओबीसी आबादी को केजरीवाल ने दरवाजा दिखा दिया है। आप सरकार ने बार-बार दिल्ली के सफाई कर्मचारियों की तनख्वाह रोकी है। पार्टी कभी कहती है कि एमसीडी से मांगो, कभी मोदी से मांगो। लोकतंत्र को अधिकतर लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाली पार्टियों ने ही नष्ट किया है। जब ये सत्ता में आती हैं तो पाती हैं कि लोकतंत्र और उसकी नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था उनके यूटोपियन एजेंडे को लागू करने में बाधक है और फिर वे लोकतंत्र को ही नष्ट करने लगती हैं। जूलियस सीजर ने भी रोमन गणतंत्र को यह कहते हुआ खत्म किया था कि वह आम आदमी को सत्ता दे रहा है। हिटलर ने भी आम आदमी को भ्रष्ट शासन से मुक्त करने के नाम पर ही सारी सत्ता हथिया ली थी। नक्सली संगठन भी यही कहते हुए आतंकी गतिविधि को अंजाम दे रहे हैं कि वे आम आदमी के हित में लड़ रहे हैं। आप देश के संवैधानिक पदों और व्यवस्था की वैधता पर जैसे हमले कर रही है वह अराजकतावाद है। यह अराजकतावाद देश के राजनीतिक भविष्य के समक्ष उभरते हुए एक गंभीर खतरे की तरफ ही इशारा कर रहा है।
(लेखक जेएनयू में रिसर्च स्कॉलर एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं यह लेख दैनिक जागरण में 20 जून को प्रकाशित हुआ है)