मोदी पर सवाल उठाने से पूर्व राहुल को यह समझना चाहिए कि उनका तर्क उनकी दादी इंदिरा गांधी पर अधिक लागू होता है। 1971 में हमारी सेना के जांबाजों ने खून बहा कर भारत को जीत दिलाई थी, उनके शौर्य से बांग्लादेश बना था। लेकिन इंदिरा गांधी को भारत रत्न से नवाजा गया था। उनके नेतृत्व को मजबूत बताया गया था। आज कोई सेना के साथ नरेंद्र मोदी की तारीफ कर देता है तो इसमें राजनीति कैसे हो गई?
कांग्रेस अध्य्क्ष राहुल गांधी के लिए थोड़े समय भी सकारात्मक रहना शायद मुश्किल होता है। पुलमावा हमले के बाद उन्होंने अपने उस समय का कार्यक्रम रद्द कर दिया था। इसे विपक्षी पार्टी के सकारात्मक कदम के रूप में देखा गया था। लेकिन अब इक्कीस दलों की बैठक के बाद उनका बयान हद पार करने वाला था।
मुम्बई पर आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान को सबूत देकर निश्चिंत होने वाली राहुल गांधी की कांग्रेस आज विपक्ष में है। इस रूप में वह सरकार को नसीहत दे रहे थे। कहा कि देश की एकता, अखंडता, संप्रभुता की रक्षा के लिए सबको साथ लेकर चलना चाहिए। शहादत का सत्ता पक्ष राजनीतिक फायदा न उठाए। वह इस प्रकरण का राजनीतिकरण कर रही है।
विपक्ष की इस बैठक के समय पर गौर कीजिए। एक दिन पहले भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान की सीमा में घुस कर आतंकी ठिकाने नष्ट किये थे। जब विपक्ष की बैठक हो रही थी उस समय भारत के एक लड़ाकू विमान और पाइलेट के लापता होने के समाचार प्रसारित हो रहे थे। ऐसे में यदि बैठक कर ही रहे थे तो उसे देश की परिस्थितियों को मद्देनजर रखना चाहिए था। इस बैठक से केवल दो सन्देश आने चाहिए था। पहला, पाकिस्तान को चेतावनी देनी चाहिए थी और दूसरा यह कि उन्हें भारत सरकार के प्रति अपना समर्थन दोहराना चाहिए था।
विपक्ष का यह सन्देश पाकिस्तान तक पहुंचता। उसे भी लगता कि भारत एकजुट है। ऐसे में उसका मनोबल कमजोर पड़ता। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है। लेकिन अब भारत के विपक्षी नेताओं की बैठक का नकारात्मक सन्देश पाकिस्तान पहुंचा है। इसमें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री पर नहीं, अपने प्रधानमंत्री पर सवाल है।
देखा जाए तो एयर स्ट्राइक के बाद से ही ये विपक्षी नेता भारतीय वायु सेना की प्रंशसा कर रहे हैं। प्रशंसा में प्रधानमंत्री या सरकार का नाम तक इन्होने नहीं लिया है। क्या यह विपक्ष की राजनीति नहीं थी। निस्संदेह हमारी सेना प्रशंसा और सम्मान की हकदार है। लेकिन राहुल को यह बताना चाहिए कि मुम्बई हमले के बाद पाकिस्तान की सीमा में घुस कर ऐसा हमला क्यों नहीं किया गया। हमारी सेना तो उस समय भी ऐसी ही जांबाज थी।
लेकिन उस समय का राजनीतिक नेतृत्व कमजोर था। आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं, उन्होंने सेना को अधिकार दिया। अनेक देशों से संवाद कायम किया। यह रणनीति बनाई गई कि हमले में नागरिक न मारे जाएं और हमारी सेना को भी नुकसान न हो। यह एयर स्ट्राइक पूरी तरह सफल रही।
मोदी पर सवाल उठाने से पूर्व राहुल को यह समझना चाहिए कि उनका तर्क उनकी दादी इंदिरा गांधी पर अधिक लागू होता है। 1971 में हमारी सेना के जांबाजों ने खून बहा कर भारत को जीत दिलाई थी, उनके शौर्य से बांग्लादेश बना था। लेकिन इंदिरा गांधी को भारत रत्न से नवाजा गया था। उनके नेतृत्व को मजबूत बताया गया था। आज कोई सेना के साथ नरेंद्र मोदी की तारीफ कर देता है तो इसमें राजनीति कैसे हो गई?
विश्व इतिहास में ऐसा कोई युद्ध नहीं है जिसकी जीत का श्रेय राजा या शासक को न मिला है। इसी प्रकार पराजय के लिए भी उसे ही जिम्मेदार ठहराया गया। राहुल गांधी को 1962 के चीनी हमले की भी जानकारी लेनी चाहिए। पराजय की दास्तान लंबी है। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस सदमे से कभी उबर नहीं सके। दो वर्ष बाद उनका निधन हो गया।
इक्कीस विपक्षी पार्टियों की बैठक के बाद राहुल गांधी ने अंग्रेजी और उनके परम सहयोगी रणदीप सिंह सुरजेवाला ने हिंदी में बयान दिया। लगा देश की एकता, अखंडता, सम्प्रभुता के लिए यही लोग बेहाल हैं। इन लोगों से पूछकर सरकार युद्ध की रणनीति बनाये तभी सम्प्रभुता, एकता, अखंडता बचेगी। तभी ये मानेगें कि राजनीति नहीं हो रही है। लेकिन कुछ घण्टे भी अपनी बात कायम न रखने वाले नेताओं पर किस सीमा तक विश्वास किया जा सकता है, प्रधानमंत्री मोदी के प्रति नकारात्मक भाव रखने वालों से किस हद तक सकारात्मक सहयोग की अपेक्षा की जा सकती है।
अब विपक्ष में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता तो हैं नहीं, जो अपने दल सहित उन्नीस सौ इकहत्तर युद्ध के समय युद्ध की समाप्ति तक सरकार के साथ खड़े रहे। उन्होंने माना कि देश पर संकट हो तो सरकार से हमको अलग नहीं दिखना चाहिए। दुश्मन को यह लगना चाहिए कि इस समय विपक्ष ही नही पूरा देश प्रधानमंत्री के पीछे है। यह सन्देश दुश्मन तक पहुंचा भी था।
क्या भारत की ये विपक्षी पार्टियां युद्ध के माहौल में ऐसा बड़प्पन नहीं दिखा सकती थीं। कुछ दिन रुक जाते। लेकिन वास्तविकता यह है कि विपक्ष की यह बैठक केवल राजनीति के लिए बुलाई गई थी। वैसे छह सात पार्टियों को छोड़ कर किसी का खास अस्तित्व नहीं है, कुछ तो कहने को नाममात्र की पार्टी हैं। ये पार्टियाँ बस संख्या बढ़ाने आईं थीं, जिससे दूर तक यह सन्देश जाए कि भारत की इक्कीस पार्टियां यह मानती हैं कि देश की सरकार राजनीति कर रही है। ये पार्टियां दुश्मन को अपने राष्ट्रीय हित के अनुरूप सन्देश देने में नाकाम रही हैं।
सत्ता पक्ष पर भारतीय वायुसेना की ओर से पाकिस्तान पर किए गए एयर स्ट्राइक का राजनीतिकरण करने का आरोप लगाया गया। राष्ट्रीय संकट में कांग्रेस और उसके सहयोगियों की यह राजनीति अशोभनीय है। ऐसे कठिन समय में आरोप की ये राजनीति उचित नहीं कही जा सकती। कांग्रेस को बतौर विपक्ष तो कम से कम अपनी जिम्मेदारी समझनी ही चाहिए।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)