लंबी जद्दोजहद के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच जो गठबंधन हुआ है, उससे तात्कालिक रूप से भले ही कांग्रेस खुश हो लेकिन दीर्घकालिक रूप से देखें तो यह उसके लिए घाटे का सौदा साबित होगा। इसका कारण है कि जिन-जिन राज्यों में कांग्रेस ने क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन किया वहां वह पुन: मुख्यधारा में नहीं आ पाई। इसका दूरगामी नतीजा यह निकला कि कांग्रेस राज्य दर राज्य कमजोर होती गयी। इसके समानांतर भाजपा तथा क्षेत्रीय पार्टियों के प्रदर्शन में सुधार हुआ। उदाहरण के लिए जिस बिहार विधान सभा चुनावों में हुए महागठबंधन के नतीजों से प्रेरित होकर उत्तर प्रदेश में सीटों का समझौता किया गया है, उस बिहार में कांग्रेस का अच्छा अतीत रहा है। लेकिन आज की तारीख में कांग्रेस बिहार में दो क्षेत्रीय पार्टियों (जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल) की पिछलग्गू बन चुकी है और उसकी मुख्यधारा में आने की फिलहाल कोई उम्मीद नहीं दिख रही है। आज नहीं तो कल कांग्रेस की यही स्थिति उत्तर प्रदेश में भी होगी।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अपने सिकुड़ते दायरे के बावजूद कांग्रेस पार्टी जानबूझकर अपने पतन की असली वजह नहीं तलाश रही है। वह बहुत करती है तो आत्मचिंतन लेकिन इससे कुछ हासिल नहीं होता है। इसका कारण है आलाकमान संस्कृति। कांग्रेस में जिस आलाकमान संस्कृति को इंदिरा गांधी ने जन्म दिया उसने पार्टी में परिवारवाद के बीज बो दिए जिससे कांग्रेस आज तक बाहर नहीं निकल पाई है। क्षेत्रीय दिग्गज भी इस परिवार के आगे नतमस्तक रहते हैं। दूसरे शब्दों में परिवारवाद ने योग्यता और आंतरिक लोकतंत्र का अपहरण कर रखा है। भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों में जिस तरह कांग्रेसी नेताओं के नाम आए उससे भी कांग्रेस की प्रतिष्ठा गिरी।
देखा जाए तो कांग्रेस की यह स्थिति एक दिन में नहीं आई है। कभी देश के हर गांव-क़स्बा-तहसील से नुमाइंदगी दर्ज़ कराने वाली पार्टी पिछले तीन दशकों से लगातार अपना जनाधार खोती जा रही है। इसका अपवाद 2004 और 2009 के आम चुनाव रहे। इन दो वर्षों को छोड़ दिया जाए तो उसका मत प्रतिशत लगातार गिर रहा है। यदि प्रमुख राज्यों के मत प्रतिशत में आए बदलाव को देखा जाए तो स्थिति और स्पष्ट हो जाएगी। कांग्रेस की स्थिति में गिरावट के समानांतर ही भाजपा तथा क्षेत्रीय दलों के प्रदर्शन में सुधार हो रहा है। चूंकि, कांग्रेस क्षेत्रीय अस्मिताओं को सम्मान नहीं दे पाई इसलिए स्थानीय दिग्गजों ने अपनी अलग राह चुन ली। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने कमोबेश यही व्यवहार मतदाताओं के साथ किया। गरीबी, बेकारी, असमानता दूर करने के स्थायी उपायों के बजाए कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करने लगी जिससे आम जनता का कांग्रेस से मोहभंग होता चला गया।
कांग्रेस के मतों के क्षेत्रीय दलों के खाते में जाने की शुरूआत हिंदी क्षेत्र में मंडल की राजनीति करने वाले दलों और मायावती के साथ हुई। उसके बाद उड़ीसा में उसका स्थान नवीन पटनायक की बीजू जनता दल ने, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने, सीमांध्र और तेलंगाना में जगनमोहन रेड्डी और के चंद्रशेखर राव और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने ले लिया। बाकी अनेक राज्यों में भाजपा कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ कर ही चुकी है। कांग्रेस के वोटों के बिखरने को दिल्ली के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। आप ने दिल्ली में 70 में जो 67 सीटें जीतीं उनमें कांग्रेस के वोट ही सर्वाधिक थे। कांग्रेस का मत प्रतिशत वर्ष 2008 में 40.3 फीसदी था जो कि 2015 में घटकर 9.7 फीसदी रह गया।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस ने जब भी अपना मत प्रतिशत किसी के हाथ गंवाया वह उसे दुबारा हासिल नहीं कर पाई। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अपने सिकुड़ते दायरे के बावजूद कांग्रेस पार्टी जानबूझकर अपने पतन की असली वजह नहीं तलाश रही है। वह बहुत करती है तो आत्मचिंतन लेकिन इससे कुछ हासिल नहीं होता है। इसका कारण है आलाकमान संस्कृति। कांग्रेस में जिस आलाकमान संस्कृति को इंदिरा गांधी ने जन्म दिया उसने पार्टी में परिवारवाद के बीज बो दिए जिससे कांग्रेस आज तक बाहर नहीं निकल पाई है। क्षेत्रीय दिग्गज भी इस परिवार के आगे नतमस्तक रहते हैं। दूसरे शब्दों में परिवारवाद ने योग्यता और आंतरिक लोकतंत्र का अपहरण कर रखा है। भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों में जिस तरह कांग्रेसी नेताओं के नाम आए उससे भी कांग्रेस की प्रतिष्ठा गिरी।
परिवारवाद और भ्रष्टाचार के अलावा वैचारिक पंगुता भी कांग्रेस को पतन की ओर धकेल रही है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में पार्टी तकरीबन साल भर से “27 साल यूपी बेहाल” नामक अभियान चला रही थी। लेकिन चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस ने उसी समाजवादी पार्टी से चुनावी गठबंधन कर लिया जिसे वह उत्तर प्रदेश की बदहाली के लिए जिम्मेदार मानती रही है। कायदे से देखा जाए तो कांग्रेस को हिंदी पट्टी में जाति आधारित राजनीति की प्रभावी काट ढूंढ़कर मतदाताओं के सामने एक सशक्त विकल्प प्रस्तुत करना था, लेकिन उसने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर जातिवादी राजनीति के आगे समर्पण कर दिया। यह उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता की कमजोरी को दर्शाता है। यही सब कारण मिलकर कांग्रेस का सूर्यास्त कर रहे हैं।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)