मोदी सरकार नए कृषि कानूनों के जरिए फसल विविधीकरण को बढ़ावा देने की दूरगामी योजना पर काम कर रही है ताकि कृषि जैव विविधता के विनाश, गेहूं-धान की एकफसली खेती, मिट्टी-पानी-हवा के प्रदूषित होने, भूजल संकट आदि से बचा जा सके।
इस साल कोरोना संकट में जब अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्र बदहाल थे तब खेती ने शानदार प्रदर्शन किया। इसी को देखते हुए सरकार ने कृषि क्षेत्र में बाजार अर्थव्यवस्था का आगाज करते हुए तीन नए कानून लागू किए।
पहला कानून है, किसान अपनी उपज ‘कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी)’ द्वारा अधिसूचित मंडियों से बाहर कहीं भी बेच सकेंगे। दूसरे कानून के अनुसार किसान अनुबंध वाली खेती और उपज की मार्केटिंग कर सकते हैं।
तीसरे कानून के अनुसार अनाज, दालों, खाद्य तेल, आलू, प्याज के भंडारण-विपणन को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर नियंत्रण मुक्त कर दिया गया है। सरकार का तर्क है कि नए कानूनों से किसानों को ज्यादा विकल्प मिलेगा और कीमत को लेकर भी अच्छी प्रतिस्पर्धा होगी।
इसके साथ ही कृषि बाजार, प्रसंस्करण, आधारभूत संरचना में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा। फिर खाद्य पदार्थों के मामले में देश अब हैंड टू माउथ वाली स्थिति से आगे निकल चुका है। ऐसे में पुराने नियंत्रण वाले कानूनों की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है।
किसानों के मन में सबसे बड़ा डर यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी और उन्हें अपनी उपज औने-पौने दामों पर बेचने पर मजबूर होना पड़ेगा। दूसरे, मंडियों के बाहर कारोबार होने पर मंडियों के पास पैसा नहीं आएगा और वे बंद हो जाएंगी। इससे किसानों के पास कीमत निर्धारण की कोई व्यवस्था नहीं बचेगी। इसीलिए वे मांग कर रहे हैं कि एमएसपी को अनिवार्य बनाया जाए।
इस संबंध में सबसे बड़ी बात यह है कि नए कानूनों का विरोध उन्हीं राज्यों के किसान संगठन कर रहे हैं, जिन राज्यों में समर्थन मूल्य पर बड़े पैमाने पर खरीद होती है। गौरतलब है कि देश के मात्र छह फीसद किसान समर्थन मूल्य पर अनाज बेचते हैं और इन छह फीसदी किसानों का 84 फीसद पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान हैं।
केंद्र व राज्य सरकारें पंजाब-हरियाणा से हर साल 90,000 करोड़ रूपये का अनाज खरीदती हैं, लेकिन यह खरीद सीधे किसानों से न होकर बिचौलियों-आढ़तियों के जरिए होती है। इसके एवज में इन आढ़तियों को कमीशन मिलता है।
पंजाब-हरियाणा में खेती-किसानी से लेकर राजनीति तक में इन आढ़तियों की गहरी पैठ है। जब मंडियों से बाहर कारोबार होने लगेगा तब आढ़तियों का महत्व कम हो जाएगा। इसीलिए ये आढ़ती किसानों की आड़ लेकर नए कानूनों का विरोध कर रहे हैं।
आढ़तियों की मजबूत लॉबी किसानों में भ्रम पैदा कर रही है कि नए कानूनों से एमएसपी और मंडी व्यवस्था खत्म हो जाएगी। दूसरी ओर सरकार का कहना है कि वह मंडी व्यवस्था के समानांतर खरीद-बिक्री का एक तंत्र विकसित कर रही है ताकि प्रतिस्पर्धा बढ़े और किसानों को उपज की अच्छी कीमत मिल सके। यह प्रयोग महाराष्ट्र में कामयाब रहा है जहां एफपीओ मंडियों को बॉयपास करके निजी क्षेत्र से सीधे कारोबार कर रहे हैं।
महाराष्ट्र में 2005-06 प्राइवेट मार्केट और कलेक्शन सेंटर की स्थापना के लिए डायरेक्ट मार्केटिंग लाइसेंस (डीएमएल) को अनुमति दी गयी थी। प्राइवेट मार्केट दरअसल निजी उद्यमियों द्वारा संचालित थोक मंडी है।
कलेक्शन सेंटर की स्थापना में बिग बास्केट व रिलायंस फ्रेश जैसी बड़ी कंपनियों ने प्रवेश किया और खेत से ही किसानों के उत्पादों की खरीद शुरू की। आज महाराष्ट्र में 18 प्राइवेट मार्केट की स्थापना हो चुकी है और हर साल चार हजार करोड़ रूपये का कारोबार होता है।
भले ही एमएसपी ने किसानों को एक न्यूनतम कीमत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो लेकिन गहराई से देखा जाए तो इसने भारत में असंतुलित कृषि विकास को बढ़ावा दिया। एमएसपी 24 फसलों के लिए घोषित किया जाता है लेकिन सरकारी खरीद गेहूं, धान, गन्ना, कपास जैसी चुनिंदा फसलों और कुछेक इलाकों (पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश) तक सीमित रही है।
इसी को देखते हुए सरकार नए कानूनों के जरिए फसल विविधीकरण को बढ़ावा देने की दूरगामी योजना पर काम कर रही है ताकि कृषि जैव विविधता के विनाश, गेहूं-धान की एकफसली खेती, मिट्टी-पानी-हवा के प्रदूषित होने और भूजल संकट आदि से बचा जा सके।
खेती में कामयाबी की गाथा लिखने वाले प्रगतिशील किसान उन्हीं फसलों के बल पर आगे बढ़े हैं जिनकी एमएसपी तय नही होती है। इसी को देखते हुए सरकार कृषि क्षेत्र में बाजार अर्थव्यवस्था का आगाज कर रही है ताकि किसान स्वावलंबी बनें।
(लेखक केंद्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)