नये कृषि क़ानून से छोटे और सीमांत किसान एपीएमसी मंडी के बाहर भी अपनी उपज को वाजिब कीमत पर बेच सकेंगे और जरूरत पड़ने पर अपनी उपज का भंडारण भी कर सकेंगे, क्योंकि नया क़ानून फसल कटाई के बाद भंडारण में निजी निवेश को बाधित करने वाले ईसीए अधिनियम को समाप्त करता है।
सरकार ने कुछ महीने पहले कृषि क्षेत्र में 3 बिल पारित किये थे, जिसका उद्देश्य देशभर में कृषि उपज के विपणन, बिक्री और भंडारण की मौजूदा व्यवस्था में सुधार लाना है। इन बिलों से किसानों के उपज के लिए खरीदारों की उपलब्धता में बढ़ोतरी होगी और बिना लाइसेंस या भंडारण सीमा के स्वतंत्र रूप से व्यापार करने की अनुमति मिलने से कारोबारियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, जिससे वे किसानों को बेहतर कीमत देने के लिये मजबूर होंगे।
नये कृषि बिलों के विरोध में कथित किसान आंदोलन चल रहा है, जिसका संकेंद्रण कुछ राज्यों तक सीमित है। कुछ विपक्षी राजनीतिक दल भी इसमें शामिल हैं। किसान नेता न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानून बनाने की बात कह रहे हैं, ताकि निजी कारोबारी भी एमएसपी पर किसानों की उपज को खरीदने के लिये बाध्य हों।
किसान आंदोलन के नेताओं का कहना है कि नये कृषि बिलों से एमएसपी खत्म हो जायेगी। वे तीनों बिलों को वापिस लेने की मांग पर अड़े हैं। भले ही, किसान आंदोलन के केंद्र में एमएसपी है, लेकिन सच में यह व्यवस्था सभी राज्यों में मौजूद नहीं है और जहां है वहाँ भी एमएसपी पर खरीददारी नहीं की जा रही है।
इस तरह, फिलवक्त एमएसपी का फायदा देश के सभी किसानों को नहीं मिल रहा है। वस्तुतः सरकार द्वारा लाए कानूनों में एमएसपी को खत्म करने की कोई बात नहीं है, केवल किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए और अधिक विकल्प मुहैया कराने की व्यवस्था की गयी है।
11 दिसंबर, 2020 तक; एमएसपी पर खरीफ फसल की खरीददारी में पंजाब की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत थी, जबकि पश्चिम बंगाल में शून्य और उत्तर प्रदेश में 8 प्रतिशत थी। हालांकि, पंजाब धान के उत्पादक राज्यों में देश में तीसरे स्थान पर है, जबकि पश्चिम बंगाल पहले और उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है। आंध्र प्रदेश धान के उत्पादन में देश में चौथे स्थान पर है, लेकिन वहाँ एमएसपी पर केवल 1 प्रतिशत की खरीददारी हुई।
पंजाब और हरियाणा में एमएसपी पर लगभग 70 प्रतिशत की खरीददारी हुई है। ऐसे में कृषि बिल का विरोध पश्चिम बंगाल और दिल्ली के द्वारा करने का औचित्य समझ से परे है। दिल्ली में तो धान का उत्पादन होता भी नहीं है। आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि बीते सालों में गेहूं की एमएसपी पर केवल 25 से 35 प्रतिशत की खरीददारी हुई,
आन्दोलनकारी यह भी मांग कर रहे हैं कि मंडियों के भीतर और बाहर एमएसपी को सार्वभौमिक बनाया जाए, ताकि सभी खरीदार, सरकारी या निजी; इन दरों को न्यूनतम कीमत मानें अर्थात एमएसपी से नीचे उपज की बिक्री नहीं की जाये। जाहिर है, ऐसी व्यवस्था में निजी खरीददार सरकारी मंडियों में प्रवेश करने से परहेज करेंगे।
हमारी कृषि नीति में छोटे एवं सीमांत किसानों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, लेकिन अभी छोटे एवं सीमांत किसानों को एमएसपी या दूसरे लाभ नहीं मिल पा रहे हैं। नये कृषि कानूनों के माध्यम से सरकार ने मौजूदा विसंगतियों को दूर करने का प्रयास किया है।
नये कृषि क़ानून से छोटे और सीमांत किसान एपीएमसी मंडी के बाहर भी अपनी उपज को वाजिब कीमत पर बेच सकेंगे और जरूरत पड़ने पर अपनी उपज का भंडारण भी कर सकेंगे, क्योंकि नया क़ानून फसल कटाई के बाद भंडारण में निजी निवेश को बाधित करने वाले ईसीए अधिनियम को समाप्त करता है।
भारत में अनुबंध कृषि की प्रथा अधिकांश राज्यों में प्रचलित नहीं है। हालांकि, यह विदेशों जैसे, मलेशिया और थाईलैंड में लोकप्रिय है। मलेशिया में अनुबंध कृषि को आगे बढ़ाने के लिए संघीय भूमि विकास प्राधिकरण (एफईएलडीए) की स्थापना की गई है।
भारत में भी ऐसे संस्थान की स्थापना करके छोटे एवं सीमांत किसान को अनुबंध कृषि करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। थाईलैंड भी अनुबंध कृषि करने वाले देशों में अग्रणी है। यह देखा गया है कि इस पद्धति से खेती-किसानी करने से उपज के विपणन और उसकी सही कीमत मिलने में आसानी होती है। नए कानूनों में अनुबंध कृषि की व्यवस्था भी की गयी है।
किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) योजना को वर्ष 1998 में भारतीय रिजर्व बैंक ने शुरू किया था। इसके तहत इस ऋण का उपयोग किसानों द्वारा अपनी उत्पादन जरूरतों जैसे, नकदी और कृषि उत्पादों की खरीद के लिए किया जाता है। केसीसी; कृषि ऋणों में सबसे लोकप्रिय है, क्योंकि यह किसानों की आर्थिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। इसके तहत भारत सरकार 4 प्रतिशत ब्याज सबवेंशन वैसे किसानों को देती है, जिसने 3 लाख रुपए तक का ऋण लिया हो और समय पर किस्त एवं ब्याज का भुगतान कर रहा हो।
मार्च, 2020 के अंत में, सभी अनुसूचित व्यावसायिक बैंक (एएससीबी) में केसीसी ऋण की अधिशेष राशि लगभग 7095 बिलियन रूपये थी, जो कुल कृषि ऋण का लगभग 40 प्रतिशत था और मार्च 2020 तक 6.7 करोड़ सक्रिय केसीसी कार्ड धारक थे।
रियायती संस्थागत ऋण तक सार्वभौमिक पहुंच को सुलभ बनाने के लिए; भारत सरकार ने सभी 11.39 करोड़ पीएम-किसान लाभार्थियों को केसीसी प्रदान करने के लिए बैंकों को कहा है। नाबार्ड के एक अध्ययन से पता चलता है कि केसीसी योजना का किसानों को आर्थिक रूप से सबल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान है।
कहा जा सकता है कि एमएसपी किसी तरह से किसानों की समस्या का समाधान नहीं है, क्योंकि इसका फायदा बहुत सीमित क्षेत्र के किसानों को मिल रहा है। वह भी सभी फसलों के लिये नहीं।
आज किसानों के लिए एमएसपी से ज्यादा जरूरी सूखे, बाढ़ आदि जैसे आपदा से फसलों को बचाना, समय पर किसानों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराना तथा उनकी आय को बढ़ाने वाले कदम उठाना है। वर्तमान सरकार इन विषयों को लेकर गंभीरतापूर्वक काम कर रही है और नए कानून किसानों के आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध होने वाले हैं।
(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के कॉरपोरेट केंद्र मुंबई के आर्थिक अनुसंधान विभाग में कार्यरत हैं। आर्थिक मामलों के जानकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)