आज बात-बात में कश्मीरियत की दुहाई देने वाले प्रदेश के राजनीतिक दलों ने और स्थानीय भाषाओं की तो छोड़िये कम से कम कश्मीरी भाषा की भी सुध लेने की जरूरत कभी नहीं समझी। सवाल है कि वो कौन-सी कश्मीरियत थी, जिसमें कश्मीरी भाषा को ही आधिकारिक स्थान नहीं दिया गया? वह कौन-सी कश्मीरियत थी, जिसमें कश्मीरी बोलने वालों पर उर्दू और अंग्रेजी को थोप दिया गया था? जाहिर है, यह सवाल कश्मीरियत के नाम पर दशकों तक अपनी सियासत चमकाने वालों के पाखण्ड को ही सामने लाते हैं।
गत वर्ष पांच अगस्त को मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 का उन्मूलन कर आजादी के बाद से ही विवादों में रहे इस प्रदेश का शेष भारत के साथ सही अर्थों में एकीकरण करने का ऐतिहासिक कार्य किया था।
आज इस ऐतिहासिक कदम को एक साल से अधिक का समय बीत चुका है और इन एक सालों में सरकार ने केंद्र शासित प्रदेश के रूप में संचालित जम्मू-कश्मीर को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए अनेक कदम उठाए हैं। आज केंद्र की सभी कल्याणकारी योजनाएं और क़ानून वहाँ लागू हो चुके हैं, राज्य की डोमिसाइल नीति में भी परिवर्तन हुआ है और विकास की अनेक परियोजनाएं भी राज्य में तेजी से गतिशील हो गयी हैं।
बदलावों की इसी कड़ी में पिछले दिनों केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा ‘जम्मू कश्मीर अधिकारिक भाषा बिल 2020’ को पारित करते हुए जम्मू-कश्मीर के लिए नयी भाषा नीति की घोषणा कर दी गयी। ज्ञात हो कि अबतक प्रदेश में उर्दू और अंग्रेजी, इन दो भाषाओं को ही आधिकारिक दर्जा मिला हुआ था, परन्तु, इस नयी भाषा नीति के तहत उर्दू-अंग्रेजी के अतिरिक्त और तीन भाषाओं हिंदी, कश्मीरी व डोगरी को भी प्रदेश में आधिकारिक भाषा का दर्जा प्रदान किया गया है।
अभी चल रहे संसद के मानसून सत्र में इससे सम्बंधित विधेयक सदन में पेश होने की उम्मीद है, जिसके पारित होते ही जम्मू-कश्मीर में यह नयी भाषा नीति अस्तित्व में आ जाएगी। इसके साथ ही प्रदेश में उर्दू का भाषाई एकाधिकार भी समाप्त हो जाएगा।
2011 की जनगणना के मुताबिक़, जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी भाषाभाषियों की संख्या पैतालीस लाख है। पचास लाख लोग डोगरी भाषा के भी हैं। शेष बड़ा तबका हिंदी और उर्दू में अपना भाषा-व्यवहार करता है। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अनुच्छेद-370 की विभाजनकारी व्यवस्था से ग्रस्त रहे इस प्रदेश में औपनिवेशिक शासन से मिली अंग्रेजी और स्थानीय बहुसंख्यक मुस्लिम समाज की उर्दू के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा को उसका यथोचित स्थान व सम्मान नहीं दिया गया।
आज बात-बात में कश्मीरियत की दुहाई देने वाले प्रदेश के राजनीतिक दलों ने और स्थानीय भाषाओं की तो छोड़िये कम से कम कश्मीरी भाषा की भी सुध लेने की जरूरत कभी नहीं समझी। सवाल है कि वो कौन-सी कश्मीरियत थी, जिसमें कश्मीरी भाषा को ही आधिकारिक स्थान नहीं दिया गया? वह कौन-सी कश्मीरियत थी, जिसमें कश्मीरी बोलने वालों पर उर्दू और अंग्रेजी को थोप दिया गया था? जाहिर है, यह सवाल कश्मीरियत के नाम पर दशकों तक अपनी सियासत चमकाने वालों के पाखण्ड को ही सामने लाते हैं।
डोगरी की बात करें तो ये राज्य के जम्मू संभाग में बोली जाती है। इसे संयोग ही कहेंगे कि 2003 में इस भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ने का काम अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने ही किया था और आज इसे जम्मू-कश्मीर की आधिकारिक भाषा बनाए जाने का काम भी भाजपा की ही सरकार में संपन्न हुआ है।
डोगरी सांस्कृतिक रूप से एक समृद्ध भाषा है। ‘डोगरा अक्खर’ नामक इसकी अपनी लिपि भी रही है, लेकिन समय के साथ इसे देवनागरी लिपि में ही लिखा जाने लगा और अब यही प्रचलन में है। देवनागरी लिपि में डोगरी भाषा का काफी साहित्य उपलब्ध है।
परन्तु, ऐसी समृद्ध और मजबूत भाषा को जम्मू-कश्मीर इतने समय तक हाशिये पर रखा गया तो इसके पीछे प्रदेश के राजनीतिक कर्णधार बने रहे दलों की संकीर्ण राजनीति ही कारण है। बहरहाल, यह संतोषजनक है कि अब डोगरी भाषा को भी प्रदेश में इसकी उचित प्रतिष्ठा प्राप्त होने जा रही है।
कश्मीरी और डोगरी के अतिरिक्त हिंदी को भी जम्मू-कश्मीर में आधिकारिक भाषा बनाया गया है। भारतीय संविधान द्वारा हिंदी को देश की राजभाषा के रूप स्वीकारा गया है। परन्तु, अनुच्छेद-370 के रूप में प्रदत्त विशेषाधिकारों से संचालित जम्मू-कश्मीर में तो अबतक उसका अपना ही संविधान चलता आया था, अतः भारतीय संविधान के इस भाषा-विधान का भी यहाँ कोई अस्तित्व नहीं था। अब जब यह प्रदेश अनुच्छेद-370 से मुक्त होकर सही अर्थों में भारत से एकीकृत होने लगा है, तो हिंदी का वहाँ की आधिकारिक भाषा बनना आवश्यक था।
दरअसल हिंदी वो भाषा है, जो भारतीय समाज के विविधतापूर्ण सांस्कृतिक चरित्र का समुचित प्रतिनिधित्व करती है। इस देश की अधिकांश भाषाओं की तरह संस्कृत से जन्मी हिंदी ने भारतीय संस्कृति के समन्वयकारी स्वरुप का अनुकरण करते हुए अपने भीतर देशी-विदेशी अनेक भाषाओं-बोलियों के शब्दों का समावेश किया है।
जम्मू-कश्मीर में भी उर्दू, कश्मीरी, डोगरी जैसी भाषाओं के बीच हिंदी इस प्रदेश के समस्त सांस्कृतिक वैविध्य को स्वयं में समेटकर देश के अन्य राज्यों से उसका एकीकरण करने में सहायक सिद्ध होगी। साथ ही, अनुच्छेद-370 की समाप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर और शेष भारत के बीच जो समानता की एक भावना प्रस्फुटित हुई है, उसको भी हिंदी के आधिकारिक दर्जे से निश्चित रूप से बल मिलेगा।
कोई भी भाषा हो, उसका अपना एक विशेष सांस्कृतिक आग्रह होता है। ऐसे में, जब सरकार किसी भाषा को आधिकारिक दर्जा देती है, तो उसके भाषा-भाषियों के समक्ष यही तथ्य स्पष्ट होता है कि सरकार उनके सांस्कृतिक प्रतीकों की रक्षा करने के लिए प्रयास कर रही है। जम्मू-कश्मीर की नयी भाषा नीति के संदर्भ में भी यही सत्य है।
इससे न केवल जम्मू-कश्मीर के लोगों का केंद्र सरकार पर विश्वास बढ़ेगा बल्कि सरकार के लिए प्रदेश के जनमानस तक अपनी योजनाओं व नीतियों को लेकर जाने में भी सहूलियत हो जाएगी। समग्रतः गत वर्ष अनुच्छेद-370 से मुक्ति के साथ ही प्रदेश में समानता, विश्वास और विकास से युक्त परिवर्तन की जिस पटकथा का आरम्भ हुआ था, उसे यह नयी भाषा नीति निश्चित रूप से बल प्रदान करने का काम करेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)