आठ नवंबर को रात आठ बजे राष्ट्र के नाम संदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच सौ और एक हजार के नोट बंद होने का फैसला सुनाकर सबको चौंका दिया था। इस बात को अब बीस दिन से ज्यादा हो गए हैं लेकिन आज भी यह विमर्श का सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हालांकि विमुद्रीकरण के फैसले के बाद से ही इसके पक्ष-विपक्ष में बहस शुरू हो गयी, जो अब भी चल रही है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, मायावती की बहुजन समाज पार्टी एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सहित तमाम राजनीतिक दलों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। देश की जनता बैंक की कतार में है और देश के विपक्षी दल फैसले के विरोध में। सरकार के सामने बैंक की कतारों से निपटने की चुनौती तो थी ही, साथ में विरोधी दलों के असहयोगात्मक रुख से निपटने की चुनौती भी बनी है। चूँकि संसद का सत्र भी शुरू हो गया है लिहाजा नितीश कुमार को छोड़कर लगभग पूरा विपक्ष संसद से सड़क तक इस फैसले के विरोध में आ गया है। सरकार का शुरू से दावा रहा कि देश की आम जनता उनके इस फैसले के साथ है। वहीँ विरोध कर रहे दलों का तर्क था कि वो जनता की परेशानियों को देखते हुए अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। हालांकि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही जनता को अपने पाले में बताने का दावा जब कर रहे हों तो यह समझ पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि वाकई जनता किसके साथ है! इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। अलग-अलग माध्यमों से सर्वे आदि शुरू हो गए। मीडिया चैनलों के लोकल स्तर के लाइव चर्चा आदि से भी इस फैसले पर जनता का मिजाज टटोलने की कवायदें तेज होने लगीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने स्तर पर भी एक ऑनलाइन सर्वे कराया, जिसमे उनको इस फैसले पर भारी समर्थन मिला। हालांकि विरोध कर रहे कुछ दलों को इस बात का भान जरुर हुआ कि जनता इस मुद्दे पर उनके साथ नहीं है लिहाजा उन्होंने 28 नवंबर को ‘भारत बंद’ करने का अपना निर्णय वापस ले लिया। इसी बीच एक अंग्रेजी समाचार पत्र का सर्वे आया जिसमे बहुमत को सरकार के इस फैसले के खिलाफ बताया गया। अब बड़ा सवाल यह था कि क्या सच माने या क्या झूठ माने ?
इन निकाय चुनावों को जनता के बीच से आया आम सर्वे मानकर भी अगर विरोधी खेमा विमुद्रीकरण के बेजां विरोध से नहीं डिगा और जनता के कंधे पर बंदूक रखकर सरकार को घेरता रहा तो यह मोदी के लिए तो नहीं, लेकिन उसके खुद के लिए ज्यादा घातक होगा। विरोध सकारात्मक होना चाहिए, वैचारिक होना चाहिए, न कि सिर्फ इसलिए विरोध करो क्योंकि आपको मोदी का विरोध करना है। इन चुनावों के परिणामों पर एक लाइन में टिप्पणी करें तो यही कहेंगे कि जनता ने मोदी के निर्णय पर अपनी सहमति का मुहर लगाया ही है, विरोधियों को आईना भी दिखा दिया है।
लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक दल की जनता के बीच हैसियत मापने का सबसे व्यापक और सबसे बड़ा सर्वे चुनाव ही होता है। विमुद्रीकरण के मुद्दे पर जब देश में ‘हाँ-ना’ की बहस चल रही थी, इस दरम्यान तीन महत्वपूर्ण चुनाव संपन्न हुए। पहला, लोकसभा और विधानसभा की खाली हुई सीटों पर उपचुनाव, दूसरा महाराष्ट्र के निकायों के चुनाव और तीसरा गुजरात के स्थानीय निकायों के चुनाव। यह तीनों चुनाव विमुद्रीकरण के फैसले के बाद हुए। मतसंख्या के आधार पर अगर देखें तो किसी भी बड़े-बड़े सर्वे में जितना सेम्पल लिया जाता है, उससे सैकड़ों-हजारों गुना ज्यादा लोग इन चुनावों में प्रत्यक्ष हिस्सा लिए हैं। लोकसभा और विधानसभा के उपचुनावों में भाजपा अपनी सभी सीटें न सिर्फ सुरक्षित रखने में कामयाब हुई बल्कि त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में पिछले चुनाव की तुलना में भाजपा के वोट प्रतिशत में भारी इजाफा भी हुआ। इसके बाद 28 नवंबर को महाराष्ट्र के निकाय चुनावों के परिणाम आए जिसमे भाजपा को भारी बढ़त मिली है। चूँकि, वर्ष 2011 के चुनाव में भाजपा निकायों में तीसरे नम्बर की पार्टी होती थी, लेकिन इन परिणामों के बाद भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। यहाँ तक कि शिवसेना के साथ गठबंधन होने के बावजूद भाजपा शिवसेना से ज्यादा सीटें जीत गयी है। नगर पंचायतों के लिए हुए चुनावों में भाजपा को 851 सीटें मिली हैं, जो 2011 में मात्र 396 थीं। कुल 147 सीटों पर हुए म्युनिसिपल काउंसिल के लिए प्रत्यक्ष मतदान में भाजपा को अकेले 52 सीटों पर जीत मिली है। पिछले चुनावों में इन निकायों पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का कब्जा था, जो कि अब उसके हाथ से जा चुका है। इसके अलावा सोलापुर जैसे सीटों, जहाँ भाजपा कभी नहीं आई थी, पर भी इसबार भाजपा जीतने में कामयाब रही। महाराष्ट्र के स्थानीय चुनावों के परिणामों को इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि तमाम दल एवं बुद्धिजीवी इसे मिनी विधानसभा चुनाव भी कहते हैं। यह अलग बात है कि भाजपा को मिली बड़ी जीत के बाद इसपर हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने सन्नाटा साध लिया है और ऐसा जताना चाह रहे हैं कि ये चुनाव महत्वपूर्ण हैं ही नहीं। लेकिन वहीँ अगर परिणाम भाजपा के प्रतिकूल होते तो यही बुद्धिजीवी इसे देवेन्द्र फडनवीस नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी की हार बताते हुए नहीं थकते।
खैर, विमुद्रीकरण के बाद नरेंद्र मोदी के अपने राज्य गुजरात में भी निकाय चुनाव हुए। गुजरात पर सबकी नजर इसलिए थी क्योंकि वहां हाल में ही सत्ता में उथल-पुथल के अलावा सरकार के खिलाफ पटेल आन्दोलन हुआ था। ऊना काण्ड के बाद दलितों के नाम पर माहौल बनाने की कोशिश देश के उन राजनीतिक दलों ने भी कम नहीं की जिनकी गुजरात में वर्तमान की राजनीतिक हैसियत कुछ भी नहीं है। लेकिन गुजरात के चुनाव परिणामों ने तो कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ़ कर दिया। परिणामों के मुताबिक़ गुजरात के वापी नगरपालिका की 44 सीटों में भाजपा ने 41 सीटों पर जीत दर्ज की है, वहीँ कांग्रेस को यहाँ महज 3 सीटों पर संतोष करना पड़ा है। सूरत के कनकपुर-कनसाड़ की 28 में से 27 सीटों पर भाजपा को जीत मिली है। वहीँ कुछ जिला, तालुका पंचायत के उपचुनावों में भाजपा को 23 और कांग्रेस को महज 8 सीटें मिली हैं। गुजरात पर सबकी नजर इसलिए भी बनी हुई थी क्योंकि गुजरात से नरेंद्र मोदी के आने के बाद वहां महज ढाई साल में एक मुख्यमंत्री को बदलना पड़ा था। इसी दरम्यान वहां पटेल आन्दोलन को भी दिल्ली की मोदी-विरोधी ताकतों के सहयोग से हवा देने का काम किया गया। ऊना में दलित पिटाई मामले के बाद भी दिल्ली की राजनीति के सियासतदानों की गिद्ध निगाहें गुजरात में लगी रहीं। लेकिन इन चुनावों को अगर जनता का सबसे बड़ा और सबसे विशुद्ध सर्वे माने तो यह सर्वे मोदी के पक्ष में जाता है। यह इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि हाल में ही विपक्षी खेमा विमुद्रीकरण के मुद्दे पर जनता की परेशानियों का हवाला देकर असहयोग की स्थिति उत्पन्न कर रहा है।
इन चुनावों को जनता की बीच से आया आम सर्वे मानकर भी अगर विरोधी खेमा विमुद्रीकरण के बेजा विरोध से नहीं डिगा और जनता के कंधे पर बंदूक रखकर सरकार को घेरता रहा तो यह मोदी के लिए तो नहीं लेकिन उनके खुद के लिए ज्यादा घातक होगा। विरोध सकारात्मक होना चाहिए, वैचारिक होना चाहिए, न कि सिर्फ इसलिए विरोध करो क्योंकि आपको मोदी का विरोध करना है। इन चुनावों के परिणामों पर एक लाइन में टिप्पणी करें तो यही कहेंगे कि जनता ने मोदी के निर्णय पर अपनी सहमति का मुहर लगाया ही है, विरोधियों को आईना भी दिखा दिया है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्देशन में रिसर्च फेलो एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम में सम्पादक हैं।)