2004 के चुनाव में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अपने कार्यों के कारण काफी लोकप्रिय थी और उसकी वापसी की पूरी संभावना थी, तब एक तरह से अप्रत्याशित हार मिलने पर भाजपा चाहती तो उसके लिए ईवीएम पर राष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा करना कोई बड़ी बात नहीं थी। अटल जी के चेहरे पर ऐसा आन्दोलन बड़े आराम से खड़ा हो जाता। लेकिन उसने अपनी पराजय को स्वीकारते हुए लोकतान्त्रिक संस्थाओं और व्यवस्थाओं पर अपना विश्वास बनाए रखा और विपक्ष की भूमिका निभाती रही।
लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान हो चुका है, लेकिन देश में ईवीएम को लेकर विपक्षी दलों का विलाप थमने का नाम नहीं ले रहा। बीते रविवार को कांग्रेस, आप, टीडीपी आदि विपक्षी दलों द्वारा प्रेसवार्ता में कहा गया कि वे पचास प्रतिशत वीवीपैट पर्चियों का मिलान ईवीएम वोटों से करवाने की मांग लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जाएंगे। गौरतलब है कि इससे पूर्व इक्कीस विपक्षी दलों की एक ऐसी ही याचिका को सर्वोच्च न्यायालय खारिज कर चुका है।
न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सभी मतदान केंद्रों में ईवीएम से मतदान के बाद पर्चियों के वीवीपैट से मिलान के लिये मूलभूत ढांचे से संबंधित कई तरह की परेशानियां हैं और नयी व्यवस्था लागू करने के लिये काफी समय लगेगा, जिसके क्रियान्वयन में बड़ी संख्या में कर्मचारियों की जरूरत होगी।
हालांकि न्यायालय ने चुनाव आयोग को हर संसदीय क्षेत्र के प्रत्येक विधानसभा में एक की बजाय पांच मतदान केन्द्रों की पर्चियों के मिलान का निर्देश दिया है, जिसके अनुसार आयोग काम कर रहा है। मगर विपक्षी दलों को इतने से संतोष नहीं है, इसलिए अब उन्होंने एकबार फिर कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का ऐलान किया है।
केजरीवाल का कहना है कि ईवीएम पर मतदाताओं का भरोसा नहीं रहा है। देखा जाए तो मतदाताओं के लिए ईवीएम पर विश्वास का कोई संकट ही नहीं है, क्योंकि उनकी तरफ से तो कोई सवाल उठ ही नहीं रहा। अबतक न तो सोशल मीडिया पर और न ही सड़क पर ईवीएम को लेकर कोई जनाक्रोश या विरोध दिखाई दिया है। अगर जनता के मन में ईवीएम के प्रति कोई शक-सुब्हा होता तो सोशल मीडिया के इस दौर में अबतक ये मुद्दा बन गया होता। कुछ नहीं तो लोग मतदान का बहिष्कार ही करते।
लेकिन कहीं जनता द्वारा ऐसा कोई विरोध नहीं जताया गया है। फिर इस बात का क्या आधार है कि ईवीएम पर जनता को भरोसा नहीं है? जाहिर है, ये सारा प्रपंच हार से हतोत्साहित चंद विपक्षी दलों के दिमाग की उपज है और उनतक ही सीमित है। विपक्ष को अपने इस प्रपंच को मतदाताओं पर थोपने के कुत्सित प्रयास से बाज आना चाहिए।
देखा जाए तो विपक्ष के लिए ईवीएम हर चुनाव में समस्या नहीं होती बल्कि जिस चुनाव में उसे हार मिलती है या मिलने की संभावना होती है, वहाँ वो ईवीएम को मुद्दा बनाता है। अभी गत वर्ष हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को देखें तो इनमें परिणाम आने से पूर्व तो ईवीएम को लेकर कुछ सवाल विपक्ष उठा रहा था, लेकिन परिणाम आने के बाद इस मामले पर सन्नाटा छा गया। कारण कि तीन प्रमुख राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा को हार और कांग्रेस को जीत मिली। यहाँ जीत मिली सो ईवीएम पर कोई सवाल नहीं उठा।
लेकिन अब लोकसभा चुनाव में यह साफ़ दिख रहा है कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के आगे कोई विपक्षी दल या नेता अकेला खड़ा होने की स्थिति में नहीं है, ऐसे में विपक्षी दलों द्वारा कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर भानुमती के कुनबे जैसा गठबंधन बनाने की कोशिश महीनों से चल रही है, बावजूद इसके एक चरण का मतदान होने तक कोई राष्ट्रव्यापी गठबंधन आकार नहीं ले सका है बल्कि गठबंधन के कई दल अलग-अलग राज्यों में एकदूसरे के खिलाफ ही ताल ठोंकने में लगे हैं। ऐसे में प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं ये दल एकता के अभाव में अपनी संभावित पराजय से सशंकित हैं और इसीलिए एकबार फिर ईवीएम में गड़बड़ी का राग गाने लगे हैं।
अभी कुछ समय पहले अमेरिका में एक स्वयंभू हैकर ने प्रेस कांफ्रेंस कर 2014 सहित कई चुनावों में राजनीतिक दलों के लिए ईवीएम हैंकिंग का हवा-हवाई दावा किया था, जिसे आधार बनाकर तब भी विपक्षी दलों ने हंगामा किया था। यहाँ तक कि उस प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल मौजूद भी रहे थे। बहरहाल जल्दी ही पता चल गया कि वो कथित ईवीएम हैकर और उसके सब दावे फर्जी हैं। लेकिन इस बीच विपक्षी दलों ने इस मामले को बेमतलब तूल देकर दुनिया भर में भारतीय लोकतंत्र की साख पर सवाल खड़े करने का काम जरूर कर दिया।
चुनाव आयोग की तरफ से बार-बार कहा जाता रहा है कि ईवीएम से किसी प्रकार की छेड़छाड़ संभव नहीं है। तकनीकी विशेषज्ञ भी इस बात की तस्दीक करते हैं। चुनाव आयोग ने तो विपक्षी दलों को ईवीएम हैकिंग की चुनौती भी दी थी, जिसे कोई दल पूरा नहीं कर सका। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जिन्होंने एक समय दिल्ली विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर उसमें ईवीएम हैकिंग का डेमो दिया था, वो तो इस चुनौती को स्वीकार तक नहीं किए थे। वास्तव में, ईवीएम हैकिंग जैसी कोई चीज है ही नहीं, ये केवल विपक्षी दलों के लिए अपनी पराजय को स्वीकारने से बचने का एक बहाना भर है।
विडम्बना ही है कि देश में ईवीएम की शुरुआत उसी कांग्रेस की सरकारों के कार्यकाल में हुई है, जो आज इसपर सर्वाधिक सवाल उठा रही है। ईवीएम का प्रयोग पहली बार 1982 में केरल के परूर विधानसभा क्षेत्र के चुनाव में हुआ था, लेकिन उसके बाद तमाम तकनीकी परीक्षणों और कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरते हुए इसे पूरी तरह से प्रयोग में आने में लगभग डेढ़-दो दशक लग गए।
1998 के बाद से इसे चुनावों में पूरी तरह से इस्तेमाल करने की शुरुआत हुई। 2004 के आम चुनाव में देश के सभी मतदान केन्द्रों पर दस लाख से अधिक ईवीएम के जरिये मतदान हुआ था। तब से सभी चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल किया जा रहा है। 2004 और 2009 के चुनाव तथा इस दौरान हुए अनेक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को जीत मिली, लेकिन तब भाजपा की तरफ से ईवीएम पर कोई सवाल नहीं उठाया गया।
2004 के चुनाव में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अपने कार्यों के कारण काफी लोकप्रिय थी और उसकी वापसी की पूरी संभावना थी, तब एक तरह से अप्रत्याशित हार मिलने पर भाजपा चाहती तो उसके लिए ईवीएम पर राष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा करना कोई बड़ी बात नहीं थी। अटल जी के चेहरे पर ऐसा आन्दोलन बड़े आराम से खड़ा हो जाता। लेकिन उसने अपनी पराजय को स्वीकारते हुए लोकतान्त्रिक संस्थाओं और व्यवस्थाओं पर अपना विश्वास बनाए रखा और विपक्ष की भूमिका निभाती रही जिसका फल उसे 2014 में मिला।
मगर, ऐसा लगता है कि कांग्रेस आदि दल विपक्ष में रहने को पचा नहीं पा रहे, इसी कारण जब-तब ईवीएम पर बेबुनियादी सवाल उठाकर जनता द्वारा अपनी अस्वीकृति को ढंकने की कोशिश में लगे हैं। खोट ईवीएम नहीं, इन दलों की नीयत में है जिसे जनता खूब समझती है। अच्छा होगा कि ये दल इस तरह के नकारात्मक प्रपंचों को छोड़ जनता के बीच जाकर अपनी छवि सुधारने का काम करें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)