रंजना बिष्ट
पत्रकार उमेश चतुर्वेदी की यह पुस्तक मीडिया के बदलते स्वरूप पर जहां एक ओर चिंता जाहिर करती है, वहीं दूसरी ओर सकारात्मक बदलाव के प्रति उम्मीद भी जगाती है। लेखक का मानना है कि उदारीकरण व नई आर्थिक नीतियों ने समाज व व्यवस्था को पूरी तरह बदल दिया है। मीडिया भी इस बदलाव से अछूता नहीं रहा है। प्रिंट हो चाहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, उनके काम करने की शैली में आमूलचूल परिवर्तन आया है। पहले पत्रकारिता सरोकारों की बात करती थी, मगर अब वह प्रॉफिट व पैसा कमाने की होड़ में शामिल हो गई है। पेड न्यूज ने तो और भी भ्रामक स्थिति पैदा कर दी है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अब लोकतांत्रिक नहीं रह गया है। वह आमजन के बजाय सरकार व उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट जगत का हिमायती बन गया है। नई आर्थिकी, कॉर्पोरेट कल्चर और मीडिया’ लेख से यह बात साफ होती है कि कैसे मीडिया में कॉर्पोरेट का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है, उसके लिए मीडिया कम खर्च में अधिक मुनाफा कमाने का जरिया मात्र है और उनके हित को ही ध्यान में रखकर खबरों की प्राथमिकता तय होती है।
हिन्दी में खबरों का व्यापार’, ‘चुनाव के दौरान मीडिया मैनेजमेंट’ में पेड न्यूज के बढ़ते चलन तथा 2009 के आम चुनाव में मीडिया की भूमिका को बखूबी उजागर किया गया है। पेड न्यूज का यह चलन बेहद खतरनाक व अखबारों की विश्वसनीयता व अस्तित्व के लिए घातक है जिस पर रोक लगाने के लिए तीसरे प्रेस आयोग की गठन की मांग भी करते हैं। पुस्तक मीडिया के अतीत, वर्तमान और भविष्य की पड़ताल करती है तथा उसकी खामियों को उजागर करने के साथ उसे कर्त्तव्य-बोध व आने वाली चुनौतियों की ओर संकेत व सचेत भी करती है। एक ओर जहां पेड न्यूज के बढ़ते चलन ने मीडिया की साख पर सवाल खडे़ किए, उसकी विश्वसनीयता को कम किया है वहीं आज वर्चुअल मीडिया ने आमजन को एक उम्मीद की किरण दिखाई है।
सरोकार और मानवता दूसरी प्राथमिकता बन गई है। इसमें लोकमान्य तिलक से संबंधित एक घटना का जिक्र भी किया गया है जिसमें लोकमान्य तिलक ने ‘केसरी’ निकालते वक्त एक बयान दिया था कि अब वे जगद्गुरु बन गए हैं। अखबारों का प्रभाव कितना व्यापक है, इस बात से साफ जाहिर होता है। आज जिस प्रकार कॉर्पोरेट व सत्ता इसे अपने निजी स्वार्थों के लिए इस्तेमाल कर रही हैं उससे इसकी साख पर बुरा प्रभाव पड़ा है। कभी-कभी अर्थशास्त्र का वह सिद्धांत भी इस पर फिट बैठता है कि खोटे सिक्कों की अधिकता बाजार से असल सिक्कों को गायब कर देती है। अनावश्यक खबरों के प्रसारण व विज्ञापनों की अधिकता ने मीडिया की छवि को धूमिल करने का ही काम किया है। पत्रकारिता के किंतु-परंतु’ में बाबूराव विष्णुराव पराड़कर की बात का उल्लेख किया गया है जिसमें उन्होंने कहा है कि आने वाले समय में पत्र सर्वांग सुंदर होंगे, लेखों में विविधता होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे। आज यह स्थिति बन चुकी है, अखबार व टीवी चैनल मनोरंजन से भरपूर खबरें परोस रहे हैं… मगर आमजन, जैसे किसान व मजदूर की त्रासदी पर वे कभी बात नहीं करते। भारतीय पत्रकारिता की शुरुआत सत्ता के विरोध से हुई थी, मगर आज यह सरकार की अनुंशसा में लगी हुई है। बाजारवाद के दौर में पत्रकारिता बिक चुकी है। जरूरत आंतरिक व वैचारिक लोकतंत्र की’, ‘उदारीकरण तमाशा, कल्चर और हिन्दी के खबरिया चैनल’ इन आलेखों में भाषा के पतन पर चिंता जाहिर की गई है। इन दिनों हिन्दी के प्रचलित व अपेक्षाकृत सहज शब्दों की जगह अंग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है।
उदारीकरण व नई आर्थिकी के चलते चैनलों व अखबारों की भाषा पर भी बुरा प्रभाव पड़ा है, खासकर हिन्दी जगत पर। अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है, यह भाषायी पत्रकारिता के लिए एक संकट है। भाषा की शुद्धता पर भी ध्यान देने की जरूरत है। अन्ना आंदोलन का सरोकारी तमाशा और मायूस मीडिया’, ‘अयोध्या व कॉमनवेल्थ के बीच मीडिया’ नामक इन दोनों लेखों में मीडिया की प्रशंसा की गई है कि उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ रहे जनाक्रोश व कॉमनवेल्थ गेम्स में हुई धांधली के मामले को जनता के सामने उजागर किया। हालांकि इसके पीछे वर्चुअल मीडिया का दबाव भी काम कर रहा था, मगर इस दौरान मीडिया जनता का विश्वास जीतने में सफल रहीं। अभिव्यक्ति के लोकतांत्रिक साधन के रूप में सामने आए वर्चुअल स्पेस ने मीडिया को मर्यादित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। मीडिया को अतिवादी होने से बचना होगा अन्यथा वह अप्रासंगिक साबित हो जाएगा।
‘हिन्दी में खबरों का व्यापार’, ‘चुनाव के दौरान मीडिया मैनेजमेंट’ में पेड न्यूज के बढ़ते चलन तथा 2009 के आम चुनाव में मीडिया की भूमिका को बखूबी उजागर किया गया है। पेड न्यूज का यह चलन बेहद खतरनाक व अखबारों की विश्वसनीयता व अस्तित्व के लिए घातक है जिस पर रोक लगाने के लिए तीसरे प्रेस आयोग की गठन की मांग भी करते हैं। पुस्तक मीडिया के अतीत, वर्तमान और भविष्य की पड़ताल करती है तथा उसकी खामियों को उजागर करने के साथ उसे कर्त्तव्य-बोध व आने वाली चुनौतियों की ओर संकेत व सचेत भी करती है। एक ओर जहां पेड न्यूज के बढ़ते चलन ने मीडिया की साख पर सवाल खडे़ किए, उसकी विश्वसनीयता को कम किया है वहीं आज वर्चुअल मीडिया ने आमजन को एक उम्मीद की किरण दिखाई है… उन्हें एक ऐसा लोकतांत्रिक माध्यम मिल गया है… जहां वे खुलकर अपनी बात कह सकते हैं। अन्ना आंदोलन वर्चुअल मीडिया की ही देन थी। उसके दबाव के चलते इस आंदोलन को व्यापक कवरेज प्राप्त हुई। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए मीडिया को मिशन की ओर लौटना ही होगा। लोकतांत्रिक समाज में लोकतंत्र की अवहेलना ज्यादा दिन तक नहीं की जा सकती। यह पुस्तक जानकारी से भरपूर व पठनीय है।