दिल्ली में चार सालों से पानी की गुणवत्ता का ग्राफ गिरता रहा और केजरीवाल अपनी सतही राजनीति में लगे रहे। निश्चित ही पेयजल की गुणवत्ता की तरह केजरीवाल की सरकार भी बुरी तरफ फेल साबित हो गई है। आने वाले चुनाव में अब जनता उनसे इन सब चीजों का हिसाब जरूर लेगी।
राजधानी नई दिल्ली में इन दिनों पानी को लेकर खासा घमासान मचा है। असल में, पिछले दिनों केंद्रीय खाद्य एवं उपभोक्ता मंत्रालय ने देश भर के 20 राज्यों को लेकर एक रैंकिंग जारी की थी। इसमें केवल राजधानियों के पानी की गुणवत्ता की जांच का हवाला था। दिल्ली का पानी इसमें सर्वाधिक प्रदूषित पाया गया। दिल्ली से जो 11 सैंपल लिए गए थे, वे सारे सैंपल 19 तय मापदंडों के अनुसार खरे नहीं उतरे थे।
चूंकि पानी पर इतना हंगामा मच चुका है तो तमाम कवायदें तो शुरू होना ही थी। अब दिल्ली सरकार की संयुक्त टीम पानी की क्वालिटी को जांचेगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जहां दिल्ली जब बोर्ड के दो पदाधिकारियों को इसके लिए नियुक्त किया, वहीं केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने भी दो सदस्यों की समिति का गठन कर दिया।
दिल्ली सरकार ने कुल 32 दल गठित करना तय किया है जो समूची दिल्ली से पानी के लगभग 1400 सेंपल लेगा। कल दिल्ली सरकार ने जांच प्रक्रिया शुरू की है और रिपोर्ट के लिए सवा महीने का इंतजार है। यह सारी उठापटक अब हो तो रही है लेकिन इसमें काफी देर हो गई है। सवाल है कि जब एक रिपोर्ट आ चुकी है तो स्थिति सुधारने के लिए प्रयास करने की बजाय फिर जांच में समय खपाने की क्या जरूरत है?
दूसरों के काम में नुक्स निकालने में माहिर केजरीवाल अब खुद के मामले में क्या बोलना चाहेंगे। नीतियों और योजनाओं को अगर एक तरफ छोड़ भी दिया जाए तो सबसे पहली प्राथमिकता तो बुनियादी सुविधाओं की होती है। याद रहे, बुनियादी सुविधाओं के दावे के दम पर ही तो केजरीवाल ने अपना चुनावी अभियान चलाया था और इसी लोक लुभावन वादे के चलते वे सत्ता में भी आए थे। क्या उनका दायित्व नहीं बनता था कि वे दिल्ली को शुद्ध हवा और पानी मुहैया कराएं। लेकिन नहीं, उन्होंने अपना पूरा समय व्यर्थ की बयानबाजियों और आरोप लगाने में नष्ट कर दिया। अब विपक्ष उन्हें घेर रहा है तो वे असहज हो रहे हैं।
भाजपा नेता मनोज तिवारी ने उन्हें पत्र लिखकर पानी की गुणवत्ता पर सवाल नहीं उठाया है, सीधे उन्हें आईना दिखाया है कि आपके राज्य में लोगों के पास पीने का साफ पानी तक नहीं है, उपर से यहां की हवा तो सांस लेने लायक बची ही नहीं है, तो आखिर केजरीवाल जिस दिल्ली को लंदन जैसी बनाने का दम भरते नहीं थकते थे, वे दावे अब कहां गुम हो गए। दिल्ली सरकार की यह लापरवाही यहां रह रहे नागरिकों की सेहत से खिलवाड़ नहीं तो क्या है। जांच या सैंपलिंग जैसी औपचारिकताओं के बहाने यदि केजरीवाल खुद को बचाने की सोच रहे हैं तो यह उनकी गलतफहमी है क्योंकि अब जनता ने ही उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।
आज सुबह ही दिल्ली के आरटीओ क्षेत्र में सार्वजनिक रूप से केजरीवाल सरकार के खिलाफ होर्डिंग लगे देखे गए। इन पर सवाल पूछा गया है कि यदि दिल्ली में साफ पानी है तो यहां डायरिया के 21,88,253 मामले चार वर्षों में कहां से आए। अस्पतालों में कॉलरा के 19,283 केस कहां से आए और पिछले साल यहां पानी से संबंधित 36, 426 शिकायतें कहां से आईं? दिल्ली जल बोर्ड के अध्यक्ष मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल स्वयं ही हैं। ऐसे में उनका यह पहला कर्तव्य होना चाहिये था कि जिन पिछले 4 सालों की बात कही गई है, वे उनकी ओर ध्यान देते और यह नौबत आने ही नहीं देते।
यह क्या कम विसंगति है कि जिस राज्य का मुखिया वहां के जल बोर्ड का अध्यक्ष भी है, वहीं का पानी घटिया और प्रदूषित है। तो केजरीवाल अभी तक कर क्या रहे थे। वे अपनी पार्टी को तो बचा नहीं पा रहे हैं, क्या वे अब जनता की सेहत को भी अपने दल की तरह उजाड़ना चाहते हैं।
बात केवल पानी की होती तो ठीक था, लेकिन दिल्ली में तो टैंकर भी चल रहे हैं और इस पूरे गोरखधंधे में टैंकर माफिया भी सक्रिय हैं। इन पर भी रोक लगाने के लिए दिल्ली सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। यदि दिल्ली में गत 4 वर्षों में 21 लाख लोग पानी से होने वाले रोगों की चपेट में आ गए हैं तो यह केजरीवाल सरकार के लिए अत्यंत शर्म की बात है।
निश्चित ही इतना लचर मुख्यमंत्री और इतना खराब कार्यकाल दिल्ली के अलावा अन्य राज्यों ने भी कभी नहीं देखा। बड़े दावों के दम पर केजरीवाल सत्ता में आ तो गए लेकिन जल्द ही भीतर से खोखले साबित हो गए। ऐसी सत्ता भी आखिर किस काम की जिसमें जनता त्रस्त हो जाए। आखिर सत्ता भी तो जनता के दम पर ही बनती है।
दिल्ली में चार सालों से पानी की गुणवत्ता का ग्राफ गिरता रहा और केजरीवाल अपनी सतही राजनीति में लगे रहे। निश्चित ही पेयजल की गुणवत्ता की तरह केजरीवाल की सरकार भी बुरी तरफ फेल साबित हो गई है। आने वाले चुनाव में अब जनता उनसे इन सब चीजों का हिसाब जरूर लेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)