क्या ऐसी घटनाओं के लिए केवल वारदात को अंजाम देने वाला आरोपी ही जिम्मेदार होता है? जी नहीं पूरा समाज जिम्मेदार होता है, वो मां जिम्मेदार होती है जो अपने बेटे में संस्कारों के बीज नहीं डाल पाई, वो पिता जिम्मेदार होता है जो अपने बेटे को एक औरत की इज़्ज़त करना नहीं सीखा पाया, वो बहन जिम्मेदार होती है जो उस कलाई पर राखी बांधने को तैयार हो जाती है जिस हाथ ने किसी की आबरू से खिलवाड़ किया हो, वो पत्नी जिम्मेदार होती है जो अपने पति को ऐसी करतूतों के बाद भी स्वीकार करती है, वो परिवार जिम्मेदार होता है जो अपने घर-गहने-बर्तन तक को बेच कर अपने दुराचारी बेटे को कानून की गिरफ्त से छुड़ा लाता है।
हर आँख नम है, हर शख्स शर्मिंदा है, क्योंकि आज मानवता शर्मसार है, इंसानियत लहूलुहान है। एक वो दौर था जब नर में नारायण का वास था लेकिन आज उस नर पर पिशाच हावी है। एक वो दौर था जब आदर्शों नैतिक मूल्यों संवेदनाओं से युक्त चरित्र किसी सभ्यता की नींव होते थे, लेकिन आज का समाज तो इनके खंडहरों पर खड़ा है। वो कल की बात थी जब मनुष्य को अपने इंसान होने का गुरूर था लेकिन आज का मानव तो खुद से ही शर्मिंदा है। क्योंकि आज उस पिशाच के लिए न उम्र की सीमा है न शर्म का कोई बंधन।
ढाई साल की बच्ची हो या आठ माह की क्या फर्क पड़ता है। मासूमियत पर हैवानियत हावी हो जाती है। लेकिन इस प्रकार की घटनाओं का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि ऐसी घटनाएं आज हमारे समाज का हिस्सा बन चुकी हैं। और खेद का विषय यह है कि ऐसी घटनाएं केवल एक खबर के रूप में अखबारों की सुर्खियां बनकर रह जाती हैं, समाज में आत्ममंथन का कारण नहीं बन पातीं।
नहीं तो आखिर क्यों एक बच्ची पलक झपकते ही अपने घर के सामने से लापता हो जाती है और दो दिन बाद उसकी क्षप्त विक्षिप्त लाश मिलती है जिसके अंग भी पूरे नहीं होते। क्यों एक पांच साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म के बाद उसकी हत्या करके उसका चेहरे को ईटों से इस कदर कुचल कर नदी में फेंक दिया जाता है कि उसके शव की अनेक हड्डियां टूटी मिलती हैं। क्यों एक दसवीं में पढ़ने वाली छात्रा छेड़खानी से इतनी परेशान हो जाती है कि आत्महत्या कर लेती है। क्यों एक दस माह की बच्ची से एक नाबालिग दुष्कर्म कर लेता है। क्यों ग्यारह-बारह साल की हमारी बच्चियां एक बच्चे को जन्म देने की पीड़ा सहने के लिए विवश होती हैं।
क्या ऐसी घटनाओं के लिए केवल वारदात को अंजाम देने वाला आरोपी ही जिम्मेदार होता है? जी नहीं पूरा समाज जिम्मेदार होता है, वो मां जिम्मेदार होती है जो अपने बेटे में संस्कारों के बीज नहीं डाल पाई, वो पिता जिम्मेदार होता है जो अपने बेटे को एक औरत की इज़्ज़त करना नहीं सीखा पाया, वो बहन जिम्मेदार होती है जो उस कलाई पर राखी बांधने को तैयार हो जाती है जिस हाथ ने किसी की आबरू से खिलवाड़ किया हो, वो पत्नी जिम्मेदार होती है जो अपने पति को ऐसी करतूतों के बाद भी उसे स्वीकार करती है, वो परिवार जिम्मेदार होता है जो अपने घर-गहने-बर्तन तक को बेच कर अपने दुराचारी बेटे को कानून की गिरफ्त से छुड़ा लाता है।
वो वकील जिम्मेदार होते हैं जो चंद पैसों की खातिर अपनी कानून की पढ़ाई का पूरा उपयोग उस आरोपी को फांसी के फंदे से छुड़ाने में लगा देते हैं, वो जज जिम्मेदार होते हैं जो सब जानते समझते हुए भी “साक्ष्यों के आभाव में” आरोपी को बाइज़्ज़त बरी कर देते हैं, वो पुलिस जिम्मेदार होती है, भ्रष्ट आचरण के वशीभूत केस को कमजोर करने का काम करती है, वो डॉक्टर जिम्मेदार होते हैं जो पोस्टमार्टम रिपोर्ट में अधूरा सच लिखते हैं, वो समाज जिम्मेदार होता है जो ऐसे परिवार से नाता जोड़ लेता है उसका सामाजिक बहिष्कार नहीं करता।
2018 में ही दुष्कर्म के 58 मामलों में आरोपी को फांसी की सज़ा सुनाई गई, लेकिन एक को भी फांसी दी नहीं गई। हालात यह है कि 2012 के निर्भया कांड के दोषियों को हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति तक के द्वारा उनकी फांसी की सज़ा बरकरार रखने के बावजूद आज तक फांसी नहीं दी गई है। शायद इसलिए कानून का भी डर आज खत्म होता जा रहा है।
कुछ समय पहले तक केवल आदतन अपराधी या मानसिक रूप से विक्षिप्त प्रवृत्ति वाले लोग ही ऐसी घटनाओं को अंजाम देते थे, लेकिन आज नाबालिग बच्चों से लेकर बूढ़े तक इस अपराधी मानसिकता में लिप्त हैं। पहले अनजान लोग ऐसे अपराध को अंजाम देते थे, आज रिश्ते तार तार हो रहे हैं। जिस समाज में दूधमुंही और अबोध बच्चियां तक बुरी नज़र का शिकार हो रही हों उस समाज का इससे अधिक क्या पतन होगा।
हम एक ऐसे लाचार समाज के रूप में विकसित होने के बजाए जो कि न्याय के लिए कानून और सरकार का मोहताज है, खुद को ऐसे समाज के रूप में विकसित करें जो अपने नैतिक मूल्यों के बल पर इंसानियत का रखवाला हो। इतिहास गवाह है कि अगर समाज खुद ना चाहे तो कोई सरकार, कोई कानून उसे नहीं बदल सकता लेकिन अगर समाज चाहे तो हर तरह के बदलाव सम्भव हैं। बदलाव वो ही स्थायी होता है जो भीतर से निकले ।इसलिए आज आवश्यक है कि यह बदलाव समाज के भीतर से निकले।
आज हमने अपनी बच्चियों को एक ऐसी दुनिया दे दी है जहाँ वो अपने ही घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। लेकिन अब हमें खुद पहल करनी होगी। इस समाज का नव निर्माण करना होगा। देश की सीमाओं की रक्षा तो हमारे वीर सैनिक कर ही रहे हैं, नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए आज समाज के हर व्यक्ति को सैनिक और हर माँ को मदर इंडिया बनना होगा।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)