दरअसल, नवलखा देश विरोधी गतिविधियों में एक अर्से से संलिप्त रहे हैं। राज्य के हर ‘संघर्ष’ वाले पहलू का नवलखा ने फायदा उठाने की कोशिश की और राज्य को नुकसान पहुँचाने का हरसंभव प्रयास किया। चाहे वो कश्मीर हो या नक्सलवाद, नवलखा हर जगह ‘हस्तक्षेप’ के लिए मौजूद थे।
न्याय का रास्ता भले ही कानून से तय होता है किंतु इसकी बुनियाद ‘भरोसे’ पर टिकी होती है। यानी न्याय प्रणाली में आस्था रखने वालों को यह भरोसा होता कि जो भी निर्णय आएगा वो उचित और नैतिक होगा। अगर यह भरोसा टूट जाए तो क्या न्याय व्यवस्था चल पाएगी भले ही कानून कितने ही ‘अनुकूल’ क्यों न हों? क्योंकि अंततः आधे लोगों को मुकदमे में ‘हारना’ ही होता है तो यदि सार्वजनिक भावना न्याय में भरोसे की नहीं होगी तो क्या हारने वाले लोग इसे मानेंगे? बिल्कुल नहीं मानेंगे। और इस तरह एक किस्म की अराजकता व्याप्त हो जाएगी।
यह भावना जितनी मजबूत होगी दंड प्रक्रिया उतनी सुचारु होगी और अपराधियों के प्रति समाज असम्मान व्यक्त करता रहेगा। आधुनिक राजनीतिक संरचना में न्याय व्यवस्था ऐसे ही कार्य करती है तथा इसकी परिधि नागरिकों के विश्वास से निर्मित होती है। कुल मिलाकर यह कि न्याय की संपूर्ण व्यवस्था में एक किस्म की पवित्रता का भाव होता है जिसमें राज्य, समाज और व्यक्ति सभी हिस्सेदार होते हैं।
किंतु न्याय की यह पवित्रता तो उन नागरिकों के लिए है जो राज्य में भरोसा रखते हैं तथा न केवल कानून की भाषा बल्कि उसकी भावना का भी आदर करते हैं। अपराधियों के लिए ये बातें कोई मायने नहीं रखती। उनके लिए व्यक्तिगत स्वार्थ सबसे बड़ा होता है तथा वो इसे ‘जायज़’ ठहराने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाता है।
छोटे और मामूली किस्म का अपराधी ‘कानूनी प्रक्रियाओं’ की गड़बड़ियों का फायदा उठाकर बचने की कोशिश करता है लेकिन ‘घाघ अपराधी’ इसके लिए न्याय की धारणा को नष्ट करने का प्रयास करता है। वो न्याय में व्याप्त नागरिकों के भरोसे को तोड़ने की कोशिश करता है ताकि अराजक स्थिति बने या न्यायपालिका अपनी बुनियाद के कमजोर हो जाने के डर से उसके अपराध से नजरे फेर लें।
यह करना आसान नहीं होता क्योंकि यह बहुत महीन काम है। किंतु नागरिकों पर प्रभाव रखने वाले विद्वानों, नेताओं और मीडिया की सहायता से ऐसा किया जा सकता है। और किया जाता रहा है। यह लंबी प्रस्तावना यहीं खत्म होती है। बिना किसी निष्कर्ष के। आगे एक दूसरी कहानी है जो हो सकती है कि इस प्रस्तावना से मेल खाती हो।
अब एक नाम गौतम नवलखा। इस व्यक्ति से जुड़ी जब कोई खबर आपने पढ़ी होगी तो एक खास किस्म का विरोधाभास नजर आया होगा- वो यूं कि इनकी गिरफ्तारी तो किसी अपराध के संदर्भ में हुई होगी किंतु इसे ‘गलत’ , ‘शोषणपूर्ण’ तथा ‘मानवाधिकारों का हनन’ जैसे विशेषणों के साथ प्रस्तुत किया जाता है।
ऐसे विशेषणों के सहारे आरोपी की एक छवि गढ़ने की कोशिश की जाती है जो अपराध का ‘अ’ भी न जानता है। गौतम नवलखा के बारे में जब आप विकिपीडिया पर पढ़ेंगे तो आपको परिचय में ‘सिविल अधिकारों के संरक्षक, लोकतांत्रिक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार’ जैसे भारी भरकम लबादे मिलेंगे पर इसके पीछे की सच्चाई जानेंगे तो आप इस बात को समझ पाएंगे इस भारी कवच की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
गौतम नवलखा गत 14 अप्रैल को जब राष्ट्रीय जॉंच एजेंसी के सामने आत्मसमर्पण करते हैं तो फिर ‘भावनाओं’ को न्याय से दूर इस आरोपी के पक्ष में मोड़ने की कोशिश की जाती है। किंतु अपराध का एक इतिहास होता है जो साथ नहीं छोड़ता, बस उसे खोजने की नजर चाहिए। ऐसी ही एक नजर ‘सुमोना चक्रवर्ती’ के रूप में प्रत्यक्ष हुई जिन्होंने ट्वीटर पर एक पूरी शृंखला लिखी नवलखा के कारनामें पर। हम आगे आपसे जो चर्चा करेंगे वो काफी हद तक इसी शृंखला से प्रेरित है।
दरअसल, नवलखा देश विरोधी गतिविधियों में एक अर्से से संलिप्त रहे हैं। राज्य के हर उस ‘संघर्ष’ वाले पहलू का नवलखा ने फायदा उठाने की कोशिश की और राज्य को नुकसान पहुँचाने का हरसंभव प्रयास किया। चाहे वो कश्मीर हो या नक्सलवाद, नवलखा हर जगह ‘हस्तक्षेप’ के लिए मौजूद थे। कश्मीर मसले की जटिलता और उसमें पाकिस्तान की कुटिलता को विस्तार से लिखने की आवश्यकता नहीं है। मूल बात यह कि पाकिस्तान निरंतर हर वो कोशिश करता रहा है जिससे कश्मीर अशांत हो।
ऐसी ही कोशिश पाकिस्तान ने ‘कश्मीर अमेरिकन काउंसिल’ (केएसी) बनाकर की। कहने को यह परिषद कश्मीर डायस्पोरा द्वारा संचालित थी किंतु यह पूर्णतः पाकिस्तान के नियंत्रण में थी। पाकिस्तान ने इस केएसी हथियार को चलाने का जिम्मा अपने वफादार ‘गुलाम नबी फई’ को सौंपा।
अमेरिका से संचालित यह संस्था ‘कश्मीर समस्या’ के बारे में विचार करती थी और फिर यूएन तथा ओआईसी (ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन) इत्यादि जैसे संस्थाओं को रिपोर्ट करती थी। इस संस्था का मूल उद्देश्य कश्मीर में पाकिस्तान के स्वार्थों की पूर्ति करना था किंतु यह ‘पारदर्शी’ और ‘न्यायपूर्ण’ दिखे इसके लिए भारत के भी वैसे कुछ ‘प्रबुद्ध’ लोगों को इसमें शामिल कर लिया ताकि एक संतुलन दिखे।
तो 2010 में इस संस्था का एक सम्मेलन होता है -‘भारत पाकिस्तान संबंध : कश्मीर के गतिरोध की समाप्ति’। इस सम्मेलन में ‘सर्वसम्मति’ से ‘वाशिंगटन घोषणा’ पारित होता है जिसके केंद्र में दो बातें थीं। एक तो कश्मीर में मानवाधिकार का क्षरण हो रहा है इसलिए भारत सरकार को वहाँ से हथियारबंद सैनिकों को हटाना चाहिए और दूसरा वहाँ हुई ‘हत्याओं’ की पारदर्शी जांच हो। ये घोषणा साफतौर पर इशारा कर रही है कि यह किस देश का प्रोपगेंडा हो सकता है। बहरहाल इस सम्मेलन में कुछ ‘प्रबुद्घ भारतीय’ भी शामिल थे, जिनमें गौतम नवलखा भी थे। अन्य लोगों में कुलदीप नैयर, राजेंद्र सच्चर, हरिंदर बावेजा तथा वेद भसीन थे। इन सबके बारे में आप गूगल करके जान सकते हैं।
नबी फई कश्मीर को स्वतंत्र करना चाहते थे तो उनकी बात समझ आती है लेकिन गौतम नवलखा किस उद्देश्य से सम्मेलन में बोले कि यदि कश्मीरी आकांक्षाओं की अनदेखी की गई तो सशस्त्र विद्रोह शुरू हो सकता है जिसका प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया पर पड़ेगा। फिर एक दिन फई को ‘एफबीआई’ गिरफ्तार कर लेती है।
दरअसल, फई ने पाकिस्तान के ‘आईएसआई ‘ से 3.5 मिलियन डॉलर प्राप्त किया और उसे छुपाए रखा। यह राशि उसे अमेरिका में लॉबिंग करने के लिए मिला था ताकि अमेरिका कश्मीर में पाकिस्तानी हितों को बढ़ावा दे। एफबीआई ने अपनी जांच में बताया कि ‘केएसी’ दरअसल आईएसआई ही चलाती है। जो पाकिस्तानी संगठन भारत में न जाने कितने आतंकी घटनाओं को अंजाम दे चुका है उसके सम्मेलन में गौतम नवलखा कश्मीर का दर्द रो आए। इसके बाद कश्मीर में नवलखा की गिरफ्तारी भी होती है और तब वहाँ भाजपा की सरकार नहीं थी। उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे।
इसके बाद गौतम जब रिहा हो जाते हैं तो फिर वो ‘भीमा कोरेगॉंव’ में नई किस्म की उथल पुथल में लग जाते हैं। जातिगत हिंसा को बढ़ावा देकर ‘सर्वप्रिय अराजकता’ को प्राप्त करने की कोशिश यहाँ भी की गई, पर प्रयास सफल नहीं हो पाया। महाराष्ट्र पुलिस की जांच में ऐसे अनेक सबूत मिले जो व्यापक हिंसा भड़काने की तैयारी की ओर संकेत कर रहे थे। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश की भी बात सामने आई।
जांच में यह बात भी आई कि नवलखा अपने ‘आईएसआई लिंक’ का इस्तेमाल हथियार जमा करने के उद्देश्य से कर रहे थे। संभवतः यह लिंक सम्मेलन में भाग लेने के दौरान मजबूत हुआ हो। इन सब तथ्यों के आधार पर पुणे पुलिस ने नवलखा को उनके दिल्ली वाले आवास से गिरफ्तार किया। इसके विरुद्ध नवलखा ने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की और मात्र दो घंटे में रिहाई प्राप्त कर ली।
न्याय की यह तीव्रता आपको हैरान कर सकती है किंतु कभी कभी ऐसा हो जाता है। इसे हम संयोग कह सकते हैं। पर संयोगों का अंत यहीं नहीं होता बल्कि संबंधित न्यायाधीश भी एक संयोग हैं। नवलखा को रिहाई देने का फैसला जस्टिस मुरलीधर ने किया था। वही जस्टिस मुरलीधर जो हाल फिलहाल क्रांति के नए वाहक बने थे।
फिर यह मामला बम्बई उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में चलता रहा। अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने एक सप्ताह के अंदर नवलखा को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया। और जैसे ही आत्मसमर्पण का दिन आया वैसे ही ‘अपराध’ को नवलखा के ओढ़े गए लबादे से ढकने की कोशिश की जाने लगी। आप नवलखा के प्रति व्यक्त की जाने वाली ‘संवेदनाओं’ को समझने के लिए इस लेख की प्रस्तावना की सहायता ले सकते हैं।
(लेखक इतिहास के अध्येता हैं तथा विभिन्न अखबारों तथा ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स के लिए लिखते हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)