उमेश चतुर्वेदी
स्विटजरलैंड की भारत में दो वजहों से कुछ ज्यादा ही चर्चा होती है। दुनियाभर में अपनी गोपनीयता के लिए विख्यात स्विस बैंकों में ना सिर्फ भारतीयों, बल्कि दुनियाभर के टैक्सचोरों, भ्रष्टाचारियों का कालाधन रखा हुआ है। भारत में किसी धनकुबेर पर जब भी हमला होता है, उस पर पहला आरोप यह लगता है कि उसने अपनी काली कमाई स्विस बैंक में छुपा रखी है। स्विटजरलैंड को उसके मनोरम जलवायु और बेहतरीन पर्यटक स्थल के तौर पर भी याद किया जाता है। लेकिन स्विटजरलैंड इन दिनों भारतीय राजनीति में एक और वजह से सुर्खियों में है। प्रधानमंत्री मोदी की हालिया स्विस यात्रा के दौरान स्विटजरलैंड ने परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों की सदस्यता हासिल करने के भारत के प्रयासों को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। स्विस राष्ट्रपति जोहान श्राइडर अम्मान के साथ प्रधानमंत्री मोदी की बातचीत के दौरान स्विटजरलैंड इस पर सहमत हो गया है। परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों का समूह सर्वसम्मति से किसी नए देश को सदस्य बनाने का फैसला करता है। इसका मतलब यह है कि अगर किसी भी सदस्य देश ने नए आवदेनकर्ता देश का विरोध कर दिया तो उसकी अर्जी एक तरह से खारिज ही हो जाती है। बेशक चीन के साथ भारत के संबंध इन दिनों सहयोग के रास्ते पर बढ़ चुके हैं। लेकिन स्थानीय कूटनीतिक वजहों से वह भारत की सदस्यता का विरोध कर रहा है। उसका तर्क है कि भारत ने चूंकि परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इसलिए भारत की सदस्यता के मुद्दे पर गहन चर्चा होनी चाहिए। ऑस्ट्रेलिया पहले ही भारत को सहयोग देने का स्पष्ट संकेत दे चुका है। परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों में से एक मैक्सिको के विरोध की आशंका है। हालांकि माना जा रहा है कि मोदी मैक्सिको के राजनीतिक नेतृत्व से बात करेंगे तो बात बन जाएगी। भारत ने इसी साल 12 मई को परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के संघ की सदस्यता हासिल करने के लिए आवेदन किया है। जिस पर 24 जून को सियोल में होने जा रही मीटिंग में फैसला होना है। ऐसे माहौल में स्विटजरलैंड का साथ मिलना भारत की उम्मीदें पक्का करने वाली बात है। इसका श्रेय भारतीय कूटनीति को दिया ही जाना चाहिए। जिसकी अगुआई प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं। अगर भारत को सदस्यता मिल जाती है तो भारत को अपने परमाणु कार्यक्रम को बढ़ावा देने में जबर्दस्त मदद मिलेगी। बेशक भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को लेकर सवाल उठे हैं। लेकिन बढ़ती जनसंख्या को जल्दी से बिजली मुहैया कराने में फिलहाल यही तकनीक ज्यादा कारगर नजर आ रही है। अगर भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह का सदस्य बनता है तो इस दिशा में भी वह जल्दी से कदम उठा सकेगा और उसे परमाणु आपूर्तिकर्ता देश अबाध यूरेनियम आपूर्ति कर सकेंगे।
स्विटजरलैंड में भारत को दूसरी कामयाबी मिली है कालाधन को लेकर सूचनाओं के आदान-प्रदान की। भारतीय जनता पार्टी विदेशों में छुपाए गए कालाधन लाने के लिए प्रतिबद्धता अपनी जाहिर करती रही है। 2014 के आम चुनावों में अभियान चलाते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेशों में छुपा कालेधन की घर वापसी का वादा किया था। इसके पहले 2009 के आम चुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी ने लालकृष्ण आडवाणी की अगुआई में कालाधन वापस लाने का अभियान छेड़ा था। कालाधन के खिलाफ जनजागृति लाने में बाबा रामदेव का भी बड़ा योगदान रहा है। अब जबकि नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने अपने कार्यकाल का दो साल पूरा कर लिया है, इसलिए सरकार खुद पर भी कालाधन वापसी को लेकर नैतिक दबाव मानती रही है। विपक्ष तो आए दिन इसके खिलाफ सरकार पर वादाखिलाफी का आरोप लगाता ही रहता है। लेकिन अतीत में स्विस बैंकों से सूचनाएं निकाल पाना आसान नहीं था। क्योंकि स्विस बैंक अपने ग्राहकों की गोपनीयता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध रहे हैं। दूसरी तरफ भारत और स्विटजरलैंड में ऐसी कोई ठोस संधि भी नहीं थी, जिसके जरिए भारत सरकार आधिकारिक तौर पर स्विस सरकार से भारतीय लोगों की स्विस बैंकों में जमा काली कमाई का हिसाब और जरूरी सूचनाएं हासिल कर सकें। प्रधानमंत्री मोदी के साथ स्विस राष्ट्रपति की कालाधन को लेकर जरूरी सूचनाओं के आदान-प्रदान की संधि निश्चित तौर पर इस दिशा में अहम प्रयास है। निश्चित तौर पर इस संधि से काली कमाई को स्विस बैंकों में छुपाने वालों की नींद उड़ेगी और वे हतोत्साहित होंगे। इसका असर यह होगा कि अब भारत आधिकारिक तौर पर स्विस बैंकों से जानकारियां हासिल कर सकेगा और काली कमाई के कारोबारियों पर कार्रवाई कर सकेगा।