डब्ल्यू.पी.एस सिद्धू
न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी को लेकर चीन की सक्रियता लगातार जारी है। वह इस संगठन में अमेरिका के प्रभुत्व को कम करने, पाकिस्तान को शामिल कराने और भारत को इससे दूर रखने की कोशिशों में जुटा हुआ है। वह परमाणु अप्रसार संधि की हिमायत करने वाले कुछ देशों पर अपना रंग जमाने में कामयाब होता भी दिख रहा है। दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में इसी हफ्ते होने वाली एनएसजी की महत्वपूर्ण बैठक में इसका असर दिखाई भी दे सकता है। कहा यह भी जा रहा है कि वियना में बीते नौ और दस जून को हुई बैठक की अध्यक्षता करने वाले एनएसजी के अध्यक्ष और अर्जेटीना के राजदूत राफेल मरीयानो ग्रोसी को 17 पश्चिमी विशेषज्ञों ने एक चिट्ठी लिखी है, जिसमें तमाम आपत्तियों की बाकायदा सूची बनाकर भारत को एनएसजी की सदस्यता देने का विरोध किया गया है। इस चिट्ठी में विरोध की कई वजहें बताई गई हैं। कहा गया है कि भारत ने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर तो हस्ताक्षर नहीं ही किया है, उसका व्यवहार भी मौजूदा एनएसजी सदस्यों की तरह का नहीं है। आरोप यह भी लगाया गया है कि परमाणु अप्रसार को लेकर एनएसजी के बुनियादी उसूलों में नई दिल्ली विश्वास नहीं करता। वह दूसरे देशों तक परमाणु ईंधन से जुड़ी प्रौद्योगिकियों की पहुंच रोकने के लिए भी पर्याप्त कदम नहीं उठा रहा, जिसके कारण उन प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल परमाणु हथियारों के निर्माण में होने की आशंका है। चिट्ठी में जोर इस पर भी दिया गया है कि भारत एनएसजी के परमाणु-हथियार संपन्न देशों की तरह निरस्त्रीकरण से जुड़ी जिम्मेदारियां उठाने को तैयार नहीं है। यहां तक कि वह इस पर भी सहमत नहीं है कि भविष्य में परमाणु परीक्षण नहीं करेगा, परमाणु विखंडन प्रक्रिया में काम आने वाली सामग्रियों को नहीं बनाएगा और परमाणु हथियार मुक्त दुनिया की संकल्पना को साकार करते हुए अपने परमाणु हथियारों व मिसाइलों के भंडार घटाएगा। चिट्ठी यह भी कहती है कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के साथ भारत ने जो एडिशनल प्रोटोकॉल एग्रीमेंट किया है, वह भी दूसरे परमाणु-हथियार संपन्न देशों के मुकाबले कमजोर है। उल्लेखनीय है कि इसी समझौते के तहत इस एजेंसी को मुल्क के सभी असैन्य परमाणु क्रिया-कलापों की देखने-परखने का अधिकार मिलता है। बहरहाल, इन तमाम आरोपों के बरक्स अगर परमाणु-हथियार क्षमता संपन्न एनएसजी सदस्य देशों की पड़ताल करें, तो इन आरोपों की कलई खुल जाती है। चीन का ही उदाहरण लेते हैं। चीन ने परमाणु अप्रसार संधि पर 1992 में हस्ताक्षर किया था, जबकि वह 2004 में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह देशों में शामिल हुआ। इससे पहले उसके पास कोई उल्लेखनीय परमाणु भंडार नहीं था। मगर एनपीटी पर हस्ताक्षर करने और एनएसजी में शामिल होने के बाद कानूनी दायित्वों का उल्लंघन करते हुए उसने अपने परमाणु हथियारों व मिसाइलों के जखीरे को काफी बढ़ाया है। इसी तरह, 1998 में आईएईए के साथ चीन ने जो एडिशनल प्रोटोकॉल एग्रीमेंट किया था, उसकी भी खूब आलोचना हुई थी, क्योंकि उसमें चीन के परमाणु भंडार तक आईएईए की पहुंच लगभग नामुमकिन थी। इसका अमेरिका सबसे मुखर विरोधी था। बावजूद इसके चीन परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह देशों का सदस्य बना। ब्राजील भी एक अच्छा उदाहरण है, जिसने एडिशनल प्रोटोकॉल एग्रीमेंट नहीं किया है, फिर भी वह एनएसजी का सदस्य है।इनके अलावा, चीन की वह हरकत भी जगजाहिर है, जिसमें उसने न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रमों से जुड़ी रिपोर्टो को रोका, बल्कि पाकिस्तान का साथ देते हुए एनएसजी के प्रावधानों को भी गंभीर चुनौती दी। सवाल उस बैंकॉक संधि को लेकर भी उठते हैं, जो परमाणु हथिायर मुक्त दक्षिण-पूर्व एशिया का सपना साकार करता है और अब तक एनएसजी के किसी परमाणु हथियार संपन्न देश ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। मगर भारत की सदाशयता देखिए कि वह इस पर हस्ताक्षर को तैयार है। यहां एनएसजी के बुनियादी उसूलों को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। यह उसूल है, एनपीटी पर हस्ताक्षर करने वाले उन देशों तक परमाणु सामग्रियों व प्रौद्योगिकियों के निर्यात को नियंत्रित करना और परमाणु प्रसार को रोकना, जिनके पास परमाणु हथियार नहीं हैं। यह लक्ष्य भी अब तक पाया नहीं जा सका है। अलबत्ता, एनएसजी में कौन देश किसका मददगार है, इसका खुलासा जरूर इराक की उस फाइल से होता है, जो उसने 2002 में सुरक्षा परिषद को सौंपी थी। यह फाइल परमाणु हथियारों से संबंधित कार्यक्रमों को लेकर तैयार की गई थी। इन तमाम तथ्यों की रोशनी में देखें, तो स्पष्ट है कि परमाणु-आपूर्तिकर्ता समूह शायद ही अपने सदस्य देशों के हथियार कार्यक्रमों को प्रतिबंधित करता है या उनमें कमी लाता है। एनएसजी सदस्य बनने की इच्छा रखने वाले भारत जैसे देश भी इससे अछूते नहीं हैं। ऐसे में, मेरा यह मानना है कि परमाणु-हथियार कार्यक्रमों की यह दौड़ किसी कानूनी बंधन से नहीं थमने वाली, बल्कि यह पूरी तरह भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा पर निर्भर करेगी, खासकर चीन और अमेरिका के बीच जारी स्पर्धा को देखते हुए। मगर इसे परखने में परमाणु अप्रसार के ‘ठेकेदार’ अब तक विफल रहे हैं। अगर एनएसजी इस दिशा में कोशिश करे, तो वह एनपीटी पर हस्ताक्षर करने वाले उन देशों के बीच परमाणु प्रसार को रोकने में कहीं ज्यादा प्रभावी भूमिका निभा सकता है, जिन्होंने अब तक परमाणु हथियार नहीं बनाए हैं। भारत ने बेशक परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया है और वह परमाणु हथियारों से भी लैस है, मगर उसकी यह स्थिति कोई उलझन पैदा करने वाली नहीं होनी चाहिए। चूंकि परमाणु-अप्रसार को लेकर नई दिल्ली का रिकॉर्ड उल्लेखनीय हैं, इसलिए भारत की इस स्थिति को व्यापक तौर पर उभरती भू-राजनीतिक स्थिति के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत ने 300 पन्ने का जो आवेदन दिया है, उसमें भी यह झलक मिलती है कि नई दिल्ली किस तरह वैश्विक भूमिका निभा सकता है। इस आवेदन में भारत ने बताया है कि कैसे वह परमाणु -अप्रसार के मानदंडों को मजबूत बना सकता है। यह उसकी सदस्यता के साथ ही एनएसजी के उद्देश्यों को मजबूत बनाने का एक ठोस आधार माना जाना चाहिए। ऐसे में, अगर एनएसजी में भारत की सदस्यता रोकी गई, तो यही संदेश जाएगा कि चीन की जीत हुई है और जिस उद्देश्य के तहत इस समूह की नींव पड़ी, उसकी हार हुई।
( लेखक न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में सीनियर फेलो हैं,यह लेख हिन्दुस्तान में 21 जून को प्रकाशित हुआ है।)