‘एक जनपद, एक उत्पाद’ योजना का ही परिणाम है कि उत्तर प्रदेश का जो निर्यात 2018 से पूर्व 88000 करोड़ रुपए का था वह 2021-22 में बढ़कर 1.57 लाख करोड़ रुपए का हो गया है। आर्थिक रूप से यह बढ़ोत्तरी राज्य में आर्थिक विकास का ही सूचक है जो अंततः यहाँ रोज़गार वृद्धि की सूचना ही देता है।
उत्तर प्रदेश भारत का एक बड़ा राज्य है। यदि जनसंख्या के अनुसार देखेंगे तो यह सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य है जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 19 प्रतिशत है। लगभग दो लाख चालीस हजार वर्ग किलोमीटर वाले क्षेत्रफल के अनुसार यह देश का चौथा बड़ा राज्य है। इतने बड़े राज्य में व्यवस्था व प्रबंधन अपने आप में एक चुनौती है।
इतनी बड़ी जनसंख्या का भरण-पोषण सुचारु रूप से हो, उन्हें रोज़गार का बेहतर अवसर उपलब्ध हो, यह सरकार की ज़िम्मेदारी है। ऐसे बहुत से मुद्दों को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश में 2018 में ‘एक जनपद एक उत्पाद’ नामक महत्वाकांक्षी योजना की शुरुआत की गयी। 1979 में जापान में ऐसी ही योजना शुरू की गई थी। इस योजना में सबसे पहले एक जनपद को किसी एक विशिष्ट उत्पाद के उत्पादन से जोड़ दिया जाना तय हुआ।
ऐसा नहीं है कि यह एकदम से नई बात हो, इससे पूर्व में भी उत्तर प्रदेश के बहुत से शहर अपने विशिष्ट उत्पादों की वजह से जाने जाते रहे हैं जैसे कि आगरा का पेठा, अलीगढ़ का ताला, फ़िरोज़ाबाद की चूड़ियाँ, मुरादाबाद का पीतल उद्योग, मुज़फ़्फ़रनगर का गुड़ आदि। लेकिन अब इसे और अधिक तार्किक तरीके से संचालित करने के लिए परम्परागत उद्योग नगरियों से इतर नगरों को भी इसमें शामिल किया गया ताकि वहाँ पर रोज़गार सृजन का क्षेत्र और विस्तृत हो सके।
एक आम व्यक्ति के लिए उसके रोज़गार का प्रश्न प्रथम है। इस योजना के तहत इस प्रश्न का हल ढूँढने की कोशिश की गयी है। रोज़गार आवश्यक है लेकिन यदि वह रोज़गार अपने घर के आस-पास मिले तो ज़्यादा बेहतर है। उत्तर प्रदेश के ऊपर बीमारू राज्य का ठप्पा लगा हुआ था। जनसंख्या अधिक है, रोज़गार के अवसर कम हैं इसलिए बड़ी संख्या में यहाँ के लोग राज्य से बाहर दिल्ली, मुंबई, लुधियाना या अन्य बड़े-बड़े महानगरों की ओर रोज़गार की तलाश में भटकते हैं।
इस योजना की वजह से स्थानीय रोज़गार में वृद्धि हो सकेगी। यदि स्थानीय रोज़गार में वृद्धि होगी तो छोटे-छोटे शहरों, क़स्बों या गाँवों से जो बड़ी मात्रा में पलायन होता था, वह पलायन रुकेगा या कम होगा। इस पलायन के रुकने से जो असंतुलन बनता है, वह स्थिति बेहतर होगी।
यदि बड़े शहरों की तुलना में स्थानीय रोज़गार में अपेक्षाकृत कम आय भी हो तो लोग ख़ुशी से करते हैं। इसके पीछे कारण यह है कि वे अपने परिवार की देख-भाल के लिए उपस्थित होते हैं। आज गाँवों और क़स्बों में एक बड़ी समस्या यह है कि बुजुर्ग माता-पिता का ध्यान रखने के लिए कोई उनके साथ मौजूद नहीं होता। नई पीढ़ी पेट का प्रश्न हल करने के लिए दूर शहरों में है, उनके न होने से घर में अलग तरह की समस्याएँ होती हैं। इसलिए यह एक बेहतर मॉडल हो सकता है क्योंकि इसमें स्थानीय रोज़गार को वरीयता दी गई है।
प्रथम दृष्टि से ऐसा लगता है कि इसका एक मात्र उद्देश्य रोज़गार सृजन है। यह इसका प्रमुख उद्देश्य तो है ही, लेकिन इसका अन्य उद्देश्य भी इसके साथ जुड़ा हुआ है। उत्तर प्रदेश में विशिष्ट शिल्प कला या हस्त कला का बहुत बड़ा उद्योग है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के कुल हस्तशिल्प निर्यात का 44 प्रतिशत भाग अकेले उत्तर प्रदेश से होता रहा है।
आधुनिक तकनीक व बड़ी-बड़ी मशीनों के आने से इस तरह के उद्योगों पर प्रभाव पड़ता है। गेहूं डंठल शिल्प या मूँज से बहुत सी वस्तुएँ बनाने की कला को न केवल प्रोत्साहन की आवश्यकता थी अपितु उसे संरक्षित करने की भी ज़रूरत है। इसके अभाव में ये विशिष्ट शिल्प कलाएँ मृतप्राय हो जाएँगीं। इस योजना से इन कलाओं को आर्थिक बल तो मिल ही रहा है, संरक्षण भी मिल रहा है। स्थानीय शिल्प का संरक्षण इसका एक और उद्देश्य है।
अभी तक परम्परागत तरीक़े से सीखे हुए कामगार अपना काम करते रहे हैं। इस योजना का एक अन्य उद्देश्य यह भी है कि जो भी उत्पाद हैं उसे नए समय के साथ प्रस्तुत किया जाए। आशय यह है कि समय के साथ प्रत्येक वस्तु जिसका उत्पादन होता है, उसकी गुणवत्ता में सुधार करने की कोशिश की जाती है। यहाँ भी उसी बात जक ज़िक्र है। एक क्षेत्र विशेष जिस वस्तु को उत्पादित कर रहा था, अब उसको ज़िले के उत्पाद के टैग से जोड़ देने से उसे और विशिष्टता मिल जाएगी। उसमें शोध कर उसे और बेहतर बनाए जाने की सरकारी कोशिशें भी होंगी।
इस योजना को यदि आर्थिक रूप से समझने की कोशिश करें तो हमारे पास पहले से बहुत सारी जगहों पर विशिष्ट उत्पादन के लिए पूरी संरचना तैयार है। अलीगढ़ यदि तालों के लिए जाना जा रहा है तो वहाँ उसका बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा है। इसके लिए पूरी प्रक्रिया मौजूद है।
जिन जगहों पर खाद्य वस्तुओं का उत्पादन जुड़ा हुआ है, इस प्रक्रिया के तहत उसके लिए कच्चा माल उसी ज़िले से या आस पास के ज़िले से ही निकल आता है जिस वजह से लागत में कमी भी होगी। यदि आस पास के ज़िले में उत्पादन से सम्बंधित वस्तुओं का कच्चा माल उपलब्ध है तो उसे क्लस्टर बनाकर कार्य करने की योजना है। कम लागत की वजह से सफलता अधिक मिलेगी।
इस योजना की वजह से ही आज गेहूं डंठल शिल्प, ज़री-जरदोज़ी, चिकनकारी, मृत पशुओं के सींग पर शिल्प आदि को नई ऊँचाई मिल रही है। उत्तर प्रदेश क़ालीन उद्योग के 39 प्रतिशत व चमड़ा उद्योग के 26 प्रतिशत की अकेले हिस्सेदारी रखता है।
इस योजना से अन्य क्षेत्र में भी इसी तरह की बढ़ोत्तरी देखने को मिलेगी। इस योजना का ही परिणाम है कि उत्तर प्रदेश का जो निर्यात 2018 से पूर्व 88000 करोड़ रुपए का था वह 2021-22 में बढ़कर 1.57 लाख करोड़ रुपए का हो गया है। आर्थिक रूप से यह बढ़ोत्तरी राज्य में आर्थिक विकास का ही सूचक है जो अंततः यहाँ रोज़गार वृद्धि की सूचना ही देता है। इसे देखते हुए ही राजस्थान जैसे बड़े राज्य भी इस ओर अग्रसर हैं।
आज देश के सभी राज्यों में निर्यात रणनीति तैयार हो रही है। देश के सभी राज्य ‘राज्य निर्यात संवर्धन समिति’ तैयार कर रहे हैं। देश के 734 जनपदों में निर्यात क्षमता वाले उत्पादों व सेवाओं की पहचान हो रही है। 570 ज़िलों में ‘ज़िला निर्यात कार्य योजना’ तैयार हुई है।
जनपद स्तर पर इस तरह के कार्य अभी कम कुशल या लगभग अप्रशिक्षित कामगारों से भी चल रहा है लेकिन जब यह योजना पूरी तरह से सफल होते हुए दिखेगी तो लोग इससे जुड़े प्रशिक्षण के साथ आएँगे जो गुणवत्ता को भी बेहतर बनाने में मदद करेगी। इस तरह की बहुउद्देश्यीय योजनाएँ देश की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाकर गति प्रदान करने के साथ-साथ पलायन की वजह से उपजे असंतुलन को भी दूर कर पाने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं।
(सह-लेखक : अनुराग सिंह)
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)