भारतीय थल सेनाध्यक्ष विपिन रावत का ताजा बयान सेना पर पत्थर बरसाने वालों के लिए कड़े सन्देश और चेतावनी की तरह नज़र आ रहा। लेकिन, राष्ट्रीय हित में जारी इस चेतावनी को भी कांग्रेस व कुछ अन्य विपक्षी दलों ने राजनीतिक चश्मे से देखने में कोई गुरेज़ नहीं किया, जो देश के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। साथ ही, यह इन विपक्षी दलों के राष्ट्र-हित के तमाम दावों की भी पोल खोल रहा है। गौरतलब है कि सभी राजनीतिक दल समय–समय पर यह दावा करतें हैं कि राष्ट्र और इसकी सुरक्षा के लिए वे प्रतिबद्ध हैं। परन्तु, जिस प्रकार से सेनाध्यक्ष के बयान के राजनीतिकरण का प्रयास किया जा रहा है, वह दिखाता है कि इन दलों की कथनी व करनी में कितना अंतर है।
वर्तमान भाजपा सरकार अपने शुरूआती दौर से ही सेना के साथ डटकर खड़ी रही है। चाहें वह सर्जिकल स्ट्राइक का मसला हो या वन रैंक वन पेंशन का। इसमें संशय नही है कि सरकार का रुख राष्ट्र-विरोधी तत्वों पर हमेशा से कठोर रहा है। भारत में राष्ट्रवादी भावना का परस्पर आदान-प्रदान भारत को विविधताओं में एकता वाला देश बनाता है। इस एकता को अखण्ड रखने के लिए यदि कुछ विशेष कड़े कदम उठाने पड़ें तो समस्या नहीं होनी चाहिए। सरकार को हमेशा इसके लिए प्रतिबद्ध रहने की जरूरत होती है और यह प्रतिबद्धिता विपक्षियों के लगातार हमले के बावजूद वर्तमान सरकार द्वारा उठाये गये क़दमों में दिखाई देती है।
दरअसल, थल सेना प्रमुख बिपिन रावत ने गुरूवार को अपने कश्मीर दौरे के दौरान मीडिया से बातचीत में कहा कि आतंक-विरोधी अभियान में सेना पर पथराव करने वाले व सेना को क्षति पहुँचाने वाले लोगो को राष्ट्र-विरोधी करार किया जायेगा एवं उनपर सख्त कार्यवाही की जायेगी। गौरतलब है कि रावत यहाँ उन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने आये थे जिन्होंने हाल ही में आतंकियों के विरुद्ध सैन्य अभियान के दौरान अपनी जान गंवाई थी। रावत के इस सीधे व सख्त बयान के बाद कांग्रेस व नेशनल कांफ्रेंस आदि विपक्षी दल बिलबिला उठें हैं। जहाँ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद इस बयान को ज्यादती वाला बताते हुए कश्मीर में विरोधी ताकतों को सहानुभूति देते नज़र आए, वहीँ नेशनल कांफ्रेंस की तरफ से तो इस बयान के लिए सेना प्रमुख को ही निशाने पर ले लिया गया। इन दलों के अनुसार कश्मीर में सेना पर पथराव करने वाले युवाओं के साथ शांति-वार्ता का प्रयास किया जाना चाहिए और उन्हें समझाने की कोशिश होनी चाहिए। साथ ही, इन विपक्षी दलों ने वर्तमान केंद्र सरकार को कश्मीर के कथित बिगड़े हालातों के लिए जिम्मेदार भी ठहराया। हालांकि वास्तव में देखें तो धीरे-धीरे कश्मीर में हालात सुधर रहे हैं और सरकार व सेना के कठोर रुख के कारण वहाँ से अलगाववादियों की ज़मीन खिसक रही है, जिस कारण वे बौखलाए हुए हैं।कश्मीर की मौजूदा उथल-पुथल उनकी इसी बौखलाहट का परिणाम है।
बहरहाल, पत्थरबाजों से शांति-वार्ता का राग आलापने वाले कांग्रेसी पहले यह क्यों नही स्पष्ट करते कि उन्हें सेना पर पत्थरबाजी करने वालों के प्रति इतनी सहानभूति क्यों है ? वर्तमान सरकार की मंशा पर सवाल उठाने से पूर्व कांग्रेस आदि विपक्षियों को अपने गिरेबान में झांक कर देखने की जरूरत है। क्योंकि यदि उन्होंने अपने शासनकाल में इस कड़े रुख को अपनाया होता तो आज शायद आये दिन भारतीय सेना के जवानों पर खुलेआम अपने ही देश में हमले नही हो रहे होते।
कश्मीर में खुले आम देखा गया है कि किस तरह से वहां के तमाम लोग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आतंकियों संरक्षण प्रदान करते हैं, जिस कारण हमारे जवानों को आतंकरोधी कार्रवाई खासी दिक्कत होती है और अक्सर जवानों की जान जाने में भी ये कारण बनता है। ऐसे में, कबतक हम यूँ ही चुप बैठकर अपने देश के जवानों की बलि चढ़ते हुए देखेंगे ? जो सख्ती कांग्रेस पिछले 60 साल में नही कर सकी, वह भाजपा ने अपने शासन के ढाई वर्ष के भीतर करके दिखा दिया, ऐसे में इस सख्ती के विरोध का कांग्रेसी रवैया दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है।
वर्तमान भाजपा सरकार अपने शुरूआती दौर से ही सेना के साथ डटकर खड़ी रही है। चाहें वह सर्जिकल स्ट्राइक का मसला हो या वन रैंक वन पेंशन का। इसमें संशय नही है कि सरकार का रुख राष्ट्र-विरोधी तत्वों पर हमेशा से कठोर रहा है। भारत में राष्ट्रवादी भावना का परस्पर आदान-प्रदान भारत को विविधताओं में एकता वाला देश बनाता है। इस एकता को अखण्ड रखने के लिए यदि कुछ विशेष कड़े कदम उठाने पड़ें तो समस्या नहीं होनी चाहिए। सरकार को हमेशा इसके लिए प्रतिबद्ध रहने की जरूरत होती है और यह प्रतिबद्धिता विपक्षियों के लगातार हमले के बावजूद वर्तमान सरकार द्वारा उठाये गये क़दमों में दिखाई देती है। सरकार द्वारा सेना को दी गयी खुली छूट और अलगाववादियों के प्रति एकदम कठोर रुख का असर घाटी में अलगाववादियों के घटते जनसमर्थन के रूप में देखा जा सकता है।
(लेखिका पत्रकारिता की छात्रा हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)