महारैली : साबित हुआ कि विपक्षी दलों के पास मोदी विरोध के सिवा और कोई एजेंडा नहीं है!

इस महारैली में जनहित के एजेंडे और नेतृत्व के मुद्दे पर विपक्षी पार्टियों की कमजोरी ही उजागर हुई है। ये रैली केवल मोदी विरोध का उपक्रम भर साबित हुई। इसमें शामिल नेताओं के डायलॉग दिलचस्प थे। किसी ने कहा कि इस रैली के बाद मोदी की नींद टूट जाएगी तो किसीने सब दलों की अनेकता में एकता बताई। कोई बोला कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी से देश की जनता परेशान हो चुकी है। जनता का तो पता नहीं, लेकिन रैली से लगा कि सर्वाधिक परेशान विपक्षी नेता हैं।

कोलकाता की विपक्षी दलों की महारैली में कहने को लगभग बीस दलों की भागीदारी हुई, लेकिन ममता को छोड़ इनमें से किसी का भी पश्चिम बंगाल की राजनीति में महत्व नहीं है। रैली का पूरा इंतजाम ममता बनर्जी ने अपने लिए किया था। उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधने के प्रयास किया। पहला तो वह अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार शुरू करना चाहती थीं। इसके लिए भीड़ जुटाई गई। दूसरा, वह सम्भावित महागठबन्धन में अपना नेतृत्व आगे बढ़ाना चाहती थीं।

ममता बनर्जी को अपने उद्देश्य में कितनी सफलता मिली, यह तो भविष्य में पता चलेगा। लेकिन विपक्षी पार्टियों ने इस महारैली में जो मुद्दे उठाए उनका जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस कारण रैली में कई बार हास्यास्पद स्थिति बनी। इससे इन नेताओं को इससे सबक लेना चाहिए कि वह जिन मुद्दों के बल पर भाजपा को हटाना चाहते है, उनका जनमानस पर कोई असर नहीं पड़ रहा है।

साभार : Aaj Tak

रैली में हार्दिक पटेल ने नारा लगाया कि सुभाष लड़े थे गोरों से, हम लड़ेंगे चोरों से। लेकिन जब उन्होंने लोगों से नारा दोहराने को कहा तो भीड़ में कोई उत्साह नहीं दिखा। विपक्ष में राहुल गांधी से लेकर नीचे तक सभी नेता ऐसी ही अभद्र भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन जाहिर है कि आमजन इसे पसंद नहीं कर रहा है।

बात यह भी है कि इस तरह की अभद्र भाषा में ऐसे आरोप लगाने वाले खुद कितने पाक साफ़ हैं? हार्दिक पटेल को गुजरात के पाटीदारों ने ही अलग कर दिया है। उनपर आंदोलन के लिए जुटाए गए धन से अय्यासी का आरोप है। यह आरोप उनके साथ रहे लोग ही लगा रहे हैं। अब ये हार्दिक दूसरों को चोर बताएंगे तो कौन है जो मान लेगा।

राहुल गांधी स्वयं घोटाले के आरोप में जमानत पर हैं। वे खुद तो इस रैली में नहीं पहुंचे, लेकिन अभिषेक मनु सिंधवी उनका प्रतिनिधित्व कर रहे थे। कहने की जरूरत नहीं कि सिंधवी की ही छवि कितनी अच्छी है। राफेल के जिस मुद्दे को आधार बनाकर ‘चोर-चोर’ का जुमला विपक्षी नेता उछाल रहे हैं, उसपर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बिल्कुल स्पष्ट है कि इस सौदे में कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। इस के बावजूद विपक्ष द्वारा इस मुद्दे को उठाना निंदनीय ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट की अवमानना भी है।

पिछले दिनों कोयला घोटाले पर तत्कालीन सचिव को सजा मिली। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में किए गए आवंटन कोर्ट ने गलत मान कर रद्द किये, फिर भी मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी पर कोई सवाल नहीं; लेकिन जिस राफेल के दाम और प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट ने सही माना, उसके लिए प्रधानमंत्री को  चोर बताया जा रहा है। विपक्ष के नेता शायद आमजन को मूर्ख समझ रहे है, उन्हें लग रहा है कि वह जो कहेंगे उसे मान लिया जाएगा। यह गलतफहमी कोलकत्ता रैली में उपस्थित लोगों की ठंडी प्रक्तिक्रिया के बाद दूर हो जानी चाहिए।

अभी तीन राज्यों में कांग्रेस जीती, फिर भी अभी ईवीएम में गड़बड़ी का राग चल रहा है। यह मुद्दा भी हास्यास्पद हो गया है। निर्वाचन आयोग ने जब इन्हें चुनौती दी थी, ये सभी दहाड़ने वाले नेता भाग खड़े हुए थे। इसी प्रकार देश को तोड़ने, संविधान को समाप्त करने, संस्थाओं को नष्ट करने, कुछ अमीरों के लिए कार्य करने के आरोप भी बकवास बन कर रह गए हैं।

महागठबन्धन की दशा भी रोचक है। कहा गया कि बीस से ज्यादा दल इसमें शामिल हुए। उन की स्थिति पर गौर करिए। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने लोकदल और कांग्रेस दोनों को अपमानित किया है। लोकदल नेता जयंत चौधरी भी नरेंद्र मोदी को हटाने के लिए पहुंचे थे। सपा और बसपा दोनों कांग्रेस पर हमला बोल रहे है, जबकि इस मंच पर ये साथ थे।

मायावती अपने नेतृत्व के लिए सजग है। उन्होंने ममता बनर्जी से इसीलिए दूरी बना कर रखी है। सतीश चंद्र मिश्र को भेजना औपचारिकता का निर्वाह मात्र है। गजब तो तब हुआ जब शरद यादव ने राफेल की बजाय बोफोर्स घोटाले को उठाकर रैली को ही हास्यास्पद बना दिया।

साभार : The New Leam

इस महारैली में जनहित के एजेंडे और नेतृत्व के मुद्दे पर विपक्षी पार्टियों की कमजोरी ही उजागर हुई है। ये रैली केवल मोदी विरोध का उपक्रम भर साबित हुई। इसमें शामिल नेताओं के डायलॉग दिलचस्प थे। किसी ने कहा कि इस रैली के बाद मोदी की नींद टूट जाएगी तो किसीने सब दलों की अनेकता में एकता बताई। कोई बोला कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी से देश की जनता परेशान हो चुकी है। जनता का तो पता नहीं, लेकिन रैली से लगा कि सर्वाधिक परेशान विपक्षी नेता हैं।

मायावती के प्रतिनिधि अपने नम्बर बढ़ाने आये थे। वह बोले कि बाबा साहब अंबेडकर के विचारों को बचाने के लिए हमें केंद्र की सरकार को उखाड़ फेंकना होगा। किसी ने कहा कि देश की आजादी, किसान, व्यापार, खतरे में हैं। अघोषित इमरजेंसी है। इतना बोलने वालों को भी इमरजेंसी नजर आ रही है।

इमरजेंसी घोषित करने वाली कांग्रेस के नेता मंच पर मौजूद थे। एक नेता दहाड़े देश संकट में है, दुकानदारों का व्यापार जीएसटी के चलते बंद है। नोटबंदी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था बारह वर्ष पीछे चली गई। एक भी ऐसी संस्था नहीं बची है, जिसे केंद्र में वर्तमान सरकार ने नष्ट नहीं किया गया हो। लेकिन नेता जी यह नहीं बता सके कि कौन सी संस्था बर्बाद हो गई। जाहिर है कि विपक्ष के पास जनहित का का कोई रचनात्मक विज़न नहीं है, वो बस मोदी विरोध पर आधारित घिसे-पिटे मुद्दों पर मोर्चा खोल रहा है।

(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)