मोदी सरकार के कार्यकाल में विपक्ष की भूमिका जनता में भ्रम और सरकार के कामों में गतिरोध पैदा करने तक सीमित होकर रह गयी है। हाल ही में नागरिकता क़ानून पर भी विपक्ष ने यही दुष्प्रचार की राजनीति की थी और वर्तमान में किसान हित से जुड़े बिलों पर भी वो वही कर रहा है। विपक्ष को समझना चाहिए कि यह नकारात्मक राजनीति किसी भी प्रकार से देशहित में नहीं है और जनता सब समझ रही है।
बचपन से ही हम इन पंक्तियों को सुनते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है,यहाँ की अधिकांश आबादी अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है या कि भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का बेहद महत्वपूर्ण योगदान है। परंतु, इन सबके बावजूद आज़ादी के बाद भारतीय किसानों की दशा पर यदि आप नजर डालें तो चहुँओर आपको निराशा ही हाथ लगेगी। किसानों के नाम पर न जाने कितने आंदोलन हुए, न जाने कितने लोगों को बड़े-बड़े नेता बनाकर हमने संसद में पहुंचाया, पर ये लोग किसानों की स्थिति में कोई बहुत ठोस परिवर्तन लाने में सफल नहीं हुए।
आज़ाद भारत के राजनीतिक इतिहास को उठा कर देखें तो किसान को सॉफ़्ट टारगेट कह सकते हैं। किसानों की संख्या ज़्यादा थी और वह वोट में बदल सकती थी, इसलिए उन्हें क़र्ज़माफ़ी से लेकर अन्य मुद्दों तक बहलाया गया लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति को सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। लेकिन मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में कर्जमाफ़ी जैसी लोकलुभावन चीजों के बजाय किसानों को मजबूत करने व उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए अनेक कदम उठाए हैं।
इसी कड़ी में वर्तमान समय में केंद्र सरकार ने ‘कृषि उत्पाद बाज़ार समिति’ संबंधी अधिनियम लोक सभा में पारित किया जिसकी वजह से राजनीतिक गलियारों में हलचल मची हुई है। इसके तहत किसानों को अपनी उपज को बेचने के लिए किसी भी तरह की बाध्यता से मुक्त किया गया है।
पहले वे अपनी फसलों को नियत मंडियों में ही बेचा करते थे जहाँ पर एक बड़ा हिस्सा बिचौलियों के पास चला जाता था। इस बिल से उन्हें इस तरह की किसी भी चीज़ का सामना नहीं करना पड़ेगा।
वे अपनी फ़सल को अंतराराज्यीय बाज़ारों में बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह निकलकर आती है कि उन्हें अपने उत्पाद की सर्वश्रेष्ठ क़ीमत जहाँ पर भी मिले वे उसे वहाँ पर बेच सकते हैं।आप जहाँ से सर्वाधिक लाभ कमा पाते हैं, अपने उत्पाद को भेज कर वहाँ लाभ कमाना किसी भी स्थिति में बेहतर होता है।
एपीएमसी के एजेंटों द्वारा संगठित होकर कम बोली लगाया जाना एवं किसानों को कम क़ीमत पर फसल को बेचे जाने के लिए बाध्य करना एक बड़ी समस्या रही है, इस बिल के माध्यम से यही विसंगति दूर करने की कोशिश की जा रही है।
एक बात और जो गौर करने लायक़ है वह यह कि एपीएमसी बाज़ार की भूमिका में तो है ही,साथ-साथ नियामक की भूमिका में भी है। नियामक की इस भूमिका की वजह से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता थासरकार के इस कदम के बाद किसानों के लिए इससे बचने का रास्ता खुलेगा।
इन बिल के तहत किसान एवं ख़रीदार के बीच कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग को बढ़ावा देने की बात की गई है जिसमें एक ख़रीदार और किसान के बीच फ़सल उगाने से पूर्व ही एक कांट्रैक्ट हो जाएगा और वे फसल के बाद उन सभी नियमों का पालन करते हुए उत्पाद को ख़रीदार को बेच कर किसान अपना मुनाफ़ा कमाता रहेगा।
परंतु वर्तमान में राजनीति के तहत लगातार इस बात को उछाला जा रहा है कि इस बिल के पश्चात न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त कर दिया जाएगा। संसद में बोलते हुए केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने इस बात का स्पष्टीकरण दिया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य था, है और जारी रहेगा इसको हटाने की बात महज़ एक भ्रम है, हमें इससे बचना चाहिए जिसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी समर्थन किया। दरअसल यह सब राजनीति के क्रम में विपक्ष द्वारा सरकार के ख़िलाफ़ जानबूझकर किया जाने वाला षड्यन्त्र है।
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है और उससे अपेक्षा होती है कि वो सत्ता पक्ष के कार्यो में रचनात्मक भागीदारी निभाए तथा गलत होने पर विरोध करे। लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल में विपक्ष की भूमिका जनता में भ्रम और सरकार के कामों में गतिरोध पैदा करने तक सीमित होकर रह गयी है।
हाल ही में नागरिकता क़ानून पर भी विपक्ष ने यही दुष्प्रचार की राजनीति की थी और वर्तमान में किसान हित से जुड़े बिलों पर भी वो वही कर रहा है। विपक्ष को समझना चाहिए कि यह नकारात्मक राजनीति किसी भी प्रकार से देशहित में नहीं है और जनता सब समझ रही है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं। पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन करते हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)