पिछले दिनों राष्ट्रपति चुनाव को लेकर खूब बहस चली। सवाल कैसे-कैसे उठे यह भी कम दिलचस्प नहीं है। भाजपा ने रामनाथ कोविंद को राजग के राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में क्या पेश किया कि विपक्षियों के लिए जैसे योग्यता का प्रश्न ही समाप्त हो गया और सिर्फ एक बात हवा में तैरती रही कि कोविंद दलित समुदाय से हैं। कौन दलित, किसका दलित, मेरा दलित, तुम्हारा दलित जैसी बातें विपक्ष का एजेंडा बन गयीं।
2019 में होने वाले लोक सभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता की दीवार दरकती हुई नज़र आ रही है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद विरोधी जितने ज्यादा मुखर हुए हैं, बीजेपी के सितारे उतने ज्यादा प्रखर हुए हैं। अच्छी बात यह है कि भारत की जनता इस बात को अच्छी तरह समझ गई है कि केंद्र की एनडीए सरकार सियासी एजेंडे को केंद्र में रखकर अपनी योजनाएं नहीं बना रही है, बल्कि इसके पीछे लोक-कल्याण की भावना और देश के विकास की एक दूरगामी सोच है। समाज के पिछड़ों, अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में लाने की, सबको विकास के समान अवसर मुहैया कराने की सोच है, जिससे देश में तरक्की का इंजन तेज गति के साथ आगे बढ़ सके।
यह बात दीगर है कि समय-समय पर देश में एजेंडा वाली सियासत कुछ देर के लिए भ्रम की स्थिति पैदा करती है। पिछले दिनों अपने देश में एक कैंपेन चलाया गया “नोट इन माय नाम” जिसमें देश में असहिष्णुता बढ़ने की बात कही गई। जानकारी के लिए, इस मीडिया अभियान के संचालन के पीछे कैसे-कैसे लोग जुड़े हुए थे, यह देखना भी ज़रूरी है।
इस मुठ्ठी भर भीड़ में वही लोग शामिल थे, जिन्होंने कभी जेएनयू में आग भड़काने की कोशिश की थी। इसके पीछे वही लोग शामिल थे, जो पिछले कई सालों से गौमांस खाने की आज़ादी को लेकर आन्दोलनरत हैं। इसके पीछे उसी विचारधारा के लोग शामिल हैं, जो कश्मीर में आतंकियों के मारे जाने पर आंसू बहाते हैं, लेकिन एक कश्मीरी सैन्य अधिकारी के पीट-पीट कर मारे जाने पर उफ्फ तक नहीं करते। इन्हें इखलाक की हत्या तो दिखाई देती है, मगर डॉ नारंग की हत्या पर ये चूं तक नहीं करते। केरल में भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं की हत्याओं पर भी ये खामोश रहते हैं।
ये वैसे लोग हैं, जो दिल्ली में राजनीतिक परजीवी का काम करते हैं। ये वैसे लोग हैं, जो कांग्रेसी सत्ताधीशों से तमाम तरह की खातिरदारी लेते रहे हैं और अब खुद को प्रासांगिक बनाए रखने की कोशिश में लगे हैं। मीडिया में खबरों को दिखाने को लेकर यही मानसिकता परिलक्षित होती है।
खबरों और मुहावरों का चयन जब विचारधारा पर आधारित होता है, तो ये समाज के लिए खतरा बनता है। पिछले दिनों राष्ट्रपति चुनाव को लेकर खूब बहस चली। सवाल कैसे-कैसे उठे यह भी कम दिलचस्प नहीं है। भाजपा ने रामनाथ कोविंद को राजग के राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में क्या पेश किया कि विपक्षियों के लिए जैसे योग्यता का प्रश्न ही समाप्त हो गया और सिर्फ एक बात हवा में तैरती रही कि कोविंद दलित समुदाय से हैं। कौन दलित, किसका दलित, मेरा दलित, तुम्हारा दलित जैसी बातें विपक्ष का एजेंडा बन गयीं।
क्या आज़ादी के इतने सालों बाद भी हमारा एजेंडा इन्हीं मानसिकताओं का गुलाम बना रहेगा ? क्या इसे बदलने की ज़रूरत नहीं ? चिंता होती है, जब कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी राष्ट्रपति चुनाव के विमर्श को जाति के तराजू पर तोलने पर आमादा होती है। कांग्रेस को कम से कम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उस बयान से सबक ज़रूर लेना चाहिए जब उन्होंने कहा कि हर बात पर सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना क्या ज़रूरी है। एक सकारात्मक विरोधी का यह भी काम होता है कि जब सरकार अच्छा काम करे तो उसकी सराहना भी की जाए। मगर यहाँ तो राजनीतिक से लेकर बौद्धिक स्तर तक विरोध नहीं, मोदी सरकार का अंध-विरोध चल रहा है।
उल्लेखनीय होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने डॉ एपीजे कलाम को राष्ट्रपति पद के लिए पसंद किया। उस वक़्त भी तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच इस तरह की चर्चा चरम पर थी कि एक मुस्लिम को राष्ट्रपति क्यों बनाया गया ? ऐसे लोग यह भूल गए थे कि डॉ कलाम देश के जाने-माने वैज्ञानिक भी थे। देश को मिसाइल तकनीक से सज्ज करने में उनके योगदान को किनारे रखकर उनके धर्म को विमर्श का विषय बनाया गया था। देश को इस तरह के एजेंडाबाजों से खतरा था और खतरा है।
इन सब बातों का राजनीतिक मज़मून ये है कि हाल में हुए तमाम चुनावों में नकार दिए जाने के बाद कांग्रेस उन्हीं तरीकों को अपना रही है, जो उसके खुद के भविष्य के लिए ठीक नहीं है। इस देश ने हमेशा सहमति की राजनीति को सर आँखों पर रखा है, इस बात को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए। मगर कांग्रेस और उसके वामी बौद्धिक अनुयायी अंधविरोध की राजनीति पर आमादा हैं।
केंद्र में सत्ता खोने के बाद कांग्रेस के लिए बहुत ज़रूरी है कि वह अपने आप को प्रासंगिक बनाए रखे। इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि वह अपने वजूद को कायम रखे। कांग्रेस को चाहिए कि वह आम जनता को केंद्र में रखकर अपना एजेंडा तय करे और लोकतान्त्रिक तरीके तथा तार्किकता के साथ अपनी बात जनता के सामने रखे। अगर वो ऐसा करती है तब तो ठीक है, वर्ना उसकी वर्तमान अंधविरोध के एजेंडे की राजनीति से उसका क्या हश्र होगा, ये जनता हाल के चुनाव परिणामों में बता चुकी है। अब भी वक़्त है कि कांग्रेस और उसके बौद्धिक अनुयायी समझ लें कि अंधविरोध के एजेंडे वाली राजनीति अब नहीं चलने वाली, इसके दिन अब लद चुके हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)