संसद ठप्प करने की नकारात्मक राजनीति से बाज आयें विपक्षी दल

संसद  का शीतकालीन सत्र समाप्त होने में चंद दिन शेष बचे हैं और अबतक का यह पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ता दिखाई दे रहा है। नोटबंदी को लेकर विपक्षी दल लोकतंत्र के मंदिर संसद मे जो अराजकता का माहौल बनाए हुए हैं, वह शर्मनाक है। सरकार नोटबंदी पर चर्चा को तैयार है, लेकिन विपक्षियों को तो चर्चा चाहिए ही नहीं, क्योंकि चर्चा में वे टिक नहीं पायेंगे, इसलिए बस फिजूल का हंगामा कर संसद का वक़्त और देश का पैसा बर्बाद कर रहे हैं। वे जनता की आड़ में अपने राजनीतिक स्वार्थों और झूठी प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ने में मशगूल हैं। ऐसे कठिन समय में और इतने गंभीर मुद्दे पर भी ये विपक्षी दल अपनी ओछी राजनीति से बाज़ नहीं आ रहे। नोटबंदी पर चर्चा करने की बजाय कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल अपने अनुसार राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। टकराव की ऐसी स्थिति बनी है कि समस्याओं को लेकर जो व्यापक बहस दिखनी चाहिए, वो महज विपक्ष की हुल्लड़बाजी तक सीमित होकर रह गई है। सदन को ठप्प हुए दो सप्ताह से अधिक समय बीत चुका है तथा सत्र भी अब समाप्त होने वाला है, लेकिन संसद में कामकाज न के बराबर हुआ है। इस गतिरोध को देखते हुए सत्तारूढ़ भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने नाराजगी जताई है। यही नहीं, आडवाणी जी ने संसदीय कार्यमंत्री व लोकसभाध्यक्ष से अपील भी की कि सदन में हल्ला मचाने वाले सांसदों को सदन से बाहर कर उनके वेतन में कटौती की जानी चाहिए। आडवाणी की फटकार के अगले ही दिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी विपक्षी सांसदों को आड़े हाथो लेते हुए अपील की कि संसद में गतिरोध समाप्त कर काम शुरू किया जाए। लेकिन, महामहिम के अपील का भी कोई असर इन विपक्षी माननीयों पर होता हुआ नहीं दिख रहा है। सरकार की तरफ से भी शांति की तमाम कोशिशें की गईं, मगर लगता है कि विपक्ष सोचकर ही बैठा है कि काम नहीं, बस हंगामा करना है।

अभी केंद्र में एक ऐसी सरकार है, जिसे जनता ने पूर्ण बहुमत देकर सत्तारूढ़ किया है, अतः इस जनमत का सम्मान और सहयोग किया जाना चाहिए। अगर विपक्ष को नाराजगी है, असहमति है तो वो चर्चा में तार्किक ढंग से उसे उठाये, लेकिन संसद को ठप्प करने का ये जो तरीका उसने अख्तियार किया है, ये सिर्फ उसे हानि ही पहुंचाएगा। विपक्षी दलों का ये रवैया न केवल भारतीय लोकतंत्र के लिए अनुचित है, बल्कि खुद उनके प्रति भी जनता में नकारात्मक सन्देश प्रसारित करने वाला है। वे जितनी जल्दी इसे बदल लें, उतना ही बेहतर होगा।

संसद चर्चा का वो मंच है, जहाँ जनता से जुड़े मुद्दों और समस्याओं पर हमारे द्वारा चुनकर भेजे गये प्रतिनिधि सकारात्मक चर्चा करते हैं और समस्याओं का समाधान खोजते हैं। लेकिन, अब हमारी संसद से सकारात्मकता विलुप्त होती चली जा रही है, हर मुद्दे पर बहस की जगह हंगामे ने ले लिया है। विपक्षी दलों को लगता है कि विरोध करने का सबसे सही तरीका यही है कि संसद के कार्यवाही को रोक दिया जाये, विपक्ष को इस तरीके को बदलना होगा। उसे आम जनता से जुड़ी समस्याओं को लेकर विरोध करने का हक है, उसे समस्याओं को लेकर सरकार को घेरने का अधिकार है, किन्तु सदन की कार्यवाही को रोकना किसी भी स्थिति में सही नहीं है।

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नोटबंदी का फैसला जैसे ही सामने आया विपक्ष के रुख को देखकर अंदाज़ा हो गया था कि संसद तो चलने से रही और हुआ भी यही। सत्र शुरू होने के साथ ही विपक्ष ने नोटबंदी पर चर्चा की मांग की, सरकार विपक्ष की इस मांग को स्वीकार करते हुए चर्चा को राजी भी हो गई। किन्तु, विपक्ष हर रोज़ नई शर्तों के साथ हाजिर होने लगा। पहले विपक्ष ने कहा कि प्रधानमंत्री की उपस्थिति होना जरूरी है, प्रधानमंत्री भी उपस्थित हो गये। तब विपक्ष ने दूसरी चाल चली और मतदान के नियमानुसार चर्चा की जिद पकड़ कर बैठ गया। समझना आसान है कि विपक्ष की इच्छा संसद चलने देने की नहीं है और इसीलिए वो रोज नयी-नयी मांगों और शर्तों के साथ हंगामा कर रहा है।वैसे यह कोई पहली बार नहीं है कि विपक्ष ऐसा रुख अख्तियार किया हो, अब तो कमोबेश ये लगभग हर संसद सत्र की कहानी बन गई है।

ये विपक्षी दल शायद यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि अभी केंद्र में एक ऐसी सरकार है, जिसे जनता ने पूर्ण बहुमत देकर सत्तारूढ़ किया है, अतः इस जनमत का सम्मान और सहयोग किया जाना चाहिए। अगर विपक्ष को नाराजगी है, असहमति है तो वो चर्चा में तार्किक ढंग से उसे उठाये, लेकिन संसद को ठप्प करने का ये जो तरीका उसने अख्तियार किया है, ये सिर्फ उसे हानि ही पहुंचाएगा। विपक्षी दलों का ये रवैया न केवल भारतीय लोकतंत्र के लिए अनुचित है, बल्कि खुद उनके प्रति भी जनता में नकारात्मक सन्देश प्रसारित करने वाला है। वे जितनी जल्दी इसे बदल लें, उतना ही बेहतर होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)