दलित राग अलापने तथा आरएसएस और बीजेपी को दलित विरोधी बताने वाले विपक्षी दलों पर मोदी व अमित शाह का यह फैसला करारा तमाचा है। बीजेपी ने इस निर्णय के साथ देश को यह संदेश देने का काम किया है कि उसके एजेंडे में वर्षों से उपेक्षित दलित समाज का विशेष महत्व है। यह भी लगभग तय हो चुका है कि कोविंद ही भारत के अगले राष्ट्रपति होंगें।
एनडीए द्वारा राम नाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद यह चर्चा जोरों पर थी कि यूपीए द्वारा इस राष्ट्रपति चुनाव में किसको उम्मीदवार बनाया जायेगा। तमाम पशोपेश के उपरांत यूपीए की तरफ से लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया गया है। गौरतलब है कि एनडीए द्वारा गहन मंथन के बाद नेतृत्व ने रामनाथ कोविंद के नाम पर सहमति जताई तथा इसकी सूचना अन्य दलों को भी दी थी। ताकि रामनाथ गोविन्द के नामपर आम सहमति बनाई जा सके। किन्तु, विपक्ष के अड़ियल रुख के कारण यह संभव नहीं हो सका।
ध्यान दें तो एनडीए की तरफ से रामनाथ कोविंद के रूप में एक ऐसा नाम सामने आया जिसका अंजादा किसी को नही था। एक बात तो तय है कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी जबसे भारतीय राजनीति के क्षितिज पर पहुंची है, राजनीतिक पंडितों के सभी कयास विफल साबित हो रहे हैं। राजनीतिक पंडितों के अनुमान धरे के धरे रह जा रहे।
इनकी राजनीति की कार्यशैली न केवल चौंकाने वाली है, बल्कि इस बात की तरफ भी इशारा करती है कि यह जोड़ी किसी भी फैसलें को लेने से पहले उस फैसले के सभी पहलुओं पर भारी विमर्श करने और उसके दीर्घकालिक परिणामों को ध्यान में रखकर निर्णय लेने में विश्वास रखती है। इसमें कोई दोराय नही कि आज समूची भारतीय राजनीति की सबसे सफलतम जोड़ियों में से यह जोड़ी वर्तमान राजनीति की दिशा व दशा तय कर रही है।
राष्ट्रपति उम्मीदवार की घोषणा होते ही पूरा विपक्ष काफी देर तक यह समझने में असमर्थ रहा कि इस फैसले का विरोध कैसे करें! क्योंकि, एनडीए ने देश के सबसे सर्वोच्च पद के लिए दलित समुदाय से आने वाले रामनाथ कोविंद के नाम का चयन किया था। इसके जवाब में विपक्षी दलों ने दलित समुदाय से ही ताल्लुक रखने वाली मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित किया। यूपीए ने उम्मीदवारी के लिए दलित चेहरे का चयन तो कर लिया, परन्तु जो सहजता और सरलता कोविंद में है, उसे कहाँ से लाएगी ?
गौरतलब है कि रामनाथ कोविंद का जीवन सहज व सरल रहा है। दलगत राजनीति में सक्रिय रहने के बावजूद रामनाथ गोविन्द सबके प्रिय रहे तथा कभी विवादों में नही आए। उनका सार्वजनिक जीवन सहजता और अंतिम पंक्ति के खड़े व्यक्ति के लिए समर्पित रहा है। उनको जानने वाले यह तक बताते हैं कि सांसद होने के बावजूद वह वर्षों तक किराए के मकान में रहे। चूंकि, रामनाथ कोविंद का पूरा जीवन दलित, शोषित और पीड़ित वर्गों की आवाज उठाने तथा उनके हितों की पूर्ति के लिए संघर्ष करते हुए बीता है।
इसके अतिरिक्त पेशे से वकील रह चुके रामनाथ कोविंद को कानून तथा संविधान के साथ राजनीति का भी लम्बा अनुभव रहा है। उनकी यह सब विशेषताएं उनको राष्ट्रपति पद के मानकों के लिए उपयुक्त बनाती हैं। यही कारण है कि एनडीए के साथ कई बाहरी दलों ने भी इस फैसले का समर्थन किया है। मोदी के धुर विरोधी माने जाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो कोविंद के नाम की घोषणा होते ही राज भवन पहुंचकर उन्हें बधाई दिए। जेडीयू ने कोविंद को समर्थन देने की घोषणा भी कर दी है।
मायावती भी इस बात को जानती हैं कि कोविंद उत्तर प्रदेश के निवासी हैं और दलित समुदाय से आते हैं। ऐसे में, उन्होंने इस नाम का खुला विरोध तो नहीं किया, मगर यह ज़रूर कहा था कि यदि विपक्ष ने कोई दलित चेहरा नहीं लाया तो वे कोविंद का समर्थन करेंगी। हालांकि अब विपक्ष ने मीरा कुमार के रूप में दलित चेहरा सामने रख दिया है, तो देखना होगा कि मायावती क्या स्टैंड लेती हैं।
मुलायम एनडीए का साथ देने का संकेत दे चुके हैं। टीआरएस, अन्नाद्रमुक और बीजद ने पहले ही समर्थन देने का ऐलान कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ मीरा कुमार सबसे पहले तो वंशवाद की राजनीति से उपजी हुई नेता हैं तथा रसूखदार परिवार से आती हैं। ऐसे में कहना होगा कि कांग्रेस ने उनके दलित जाति को साधने का निरर्थक प्रयास किया है।
अगर कांग्रेस व वामपंथियों का दलित प्रेम इतना गहरा है, तो 2012 में उन्होंने प्रणब मुखजी के स्थान पर किसी दलित चेहरे को राष्ट्रपति क्यों नही बनाया ? इसके पहले भी उनके पास कई मौके थे, जब वह किसी दलित चेहरे का नाम राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित कर सकते थे; लेकिन, यूपीए न ऐसा कुछ नही किया।
स्पष्ट है कि कांग्रेस और वामदलों ने वर्षो से दलितों के नाम पर केवल राजनीतिक रोटियाँ सेंकने का काम किया है। किन्तु, जब एनडीए ने एक दलित तबके से आने वाले व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद का उम्मीदवार बनाया तो इनके दलित प्रेम के दोहरे मापदंडों की पोल खुल गई। बिहार से सटे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का यह कहना कि वह कोविंद को नही जानती, विपक्ष द्वारा नकारात्मक विरोध की मानसिकता को ही दर्शाता है।
देश यह देख रहा है कि किस तरह राष्ट्रपति चुनाव में यह दल छिछली राजनीति करने पर आमादा हैं। दलित राग अलापने तथा आरएसएस और बीजेपी को दलित विरोधी बताने वाले विपक्षी दलों पर मोदी व अमित शाह का यह फैसला करारा तमाचा है। बीजेपी ने इस निर्णय के साथ देश को यह संदेश देने का काम किया है कि उसके एजेंडे में वर्षों से उपेक्षित दलित समाज का विशेष महत्व है। यह भी लगभग तय हो चुका है कि कोविंद ही भारत के अगले राष्ट्रपति होंगें।
शुक्रवार को अपने नामांकन के बाद कोविंद ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह दलगत राजनीति से ऊपर उठ चुके हैं और सभी दलों से समर्थन की अपील भी की। विपक्ष इस बात को जानता है कि सभी दावों के बाद भी वह अपनी पसंद का राष्ट्रपति नही बना सकता है, लेकिन इसी बहाने वह अपनी राजनीतिक शक्ति दिखाने की रस्मअदायगी भर कर सकते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)