नोटबंदी के बाद मोदी सरकार को गरीब विरोधी सरकार बताने वाली कांग्रेस पार्टीं का वजूद धीरे-धीरे भारतीय राजनीति के नक़्शे में सिमटता जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भाजपाध्यक्ष अमित शाह की ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की बात सही साबित होती नज़र आ रही है। नोटबंदी जैसे काले धन को ख़त्म करने और अर्थव्यवस्था को मजबूती देने वाले कदम को गरीब और किसान विरोधी बताकर कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियों ने भाजपा को घेरने का काम किया था, लेकिन उड़ीसा जैसे गरीब और पिछड़े राज्य में भाजपा ने स्थानीय निकाय चुनावों में परचम लहराकर यह साबित कर दिया है कि नोटबंदी को लेकर अमीर-गरीब किसी भी तबके के इमानदार लोगों में कोई आक्रोश नहीं है, बल्कि इससे भाजपा के प्रति जनता का समर्थन बढ़ा ही है। पिछले नगर निकाय चुनाव में कांग्रेस ने उड़ीसा में 126 सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वह तीसरे स्थान पर छिटक गई है। इसके साथ भाजपा ने कालाहांडी की सभी सीटों पर जीत दर्ज कर ली है, जो वर्तमान समय में उड़ीसा के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में आती है। इसका तात्पर्य यही है कि भाजपा के पक्ष में गरीब, किसान, मजदूर आदि वर्गों का समर्थन देश के सभी क्षेत्रों से बढ़ता जा रहा है। इससे पूर्व देश मध्य प्रदेश, चंडीगढ़, असम आदि राज्यों के निकाय चुनावों में भी भाजपा को बम्पर जीत मिल चुकी है।
नोटबंदी जैसे काले धन को ख़त्म करने और अर्थव्यवस्था को मजबूती देने वाले कदम को गरीब और किसान विरोधी बताकर कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियों ने भाजपा को घेरने की कोशिश की थी, लेकिन एक तरफ उड़ीसा जैसे गरीब व पिछड़े राज्य तथा दूसरी तरफ महाराष्ट्र जैसे देश के औद्योगिक महानगर के निकाय चुनावों में परचम लहराकर भाजपा ने यह साबित कर दिया है कि नोटबंदी को लेकर अमीर-गरीब किसी भी तबके के इमानदार लोगों में कोई आक्रोश नहीं है, बल्कि इससे भाजपा के प्रति जनता का समर्थन बढ़ा ही है।
इसके साथ भाजपा ने मुम्बई महानगर पालिका के अलावा महाराष्ट्र की नौ नगरपालिकाओं में से आठ के निकाय चुनावों में भी अकेले के दम पर जीत दर्ज की है। इसके बाद भाजपानीत केंद्र सरकार के नोटबंदी आदि कदमों पर सवाल खड़े करने वाली पार्टियॉ पुनः विचार करें कि उनसे भूल कहॉ हो गई। सभी पार्टियॉ नोटबंदी की आलोचना करती रहीं और भाजपा महानगर पालिका में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आ गयी। जिस हिसाब से भाजपा ने पहले उड़ीसा और फिर महाराष्ट्र के निकाय चुनावों में शिवसेना के अलग होने के बाद अकेले दम पर चुनाव लड़कर अपने लिए राह बनाई, उसने भाजपा के बढ़ते जनाधार और नोटबंदी के प्रति जनसमर्थन पर मुहर लगाने का काम किया है। अब यह विपक्षी पार्टियों को खुद सोचना चाहिए कि अगर नोटबंदी के मुद्दे को वित्तीय राजधानी में नहीं भुनाया जा सका, फिर इसके लिए उपयुक्त जगह और कौन सी हो सकती है ?
इसके साथ-साथ इन स्थानीय चुनावों में हार के प्रति कांग्रेस को गहन विश्लेषण की जरूरत है कि अगर स्थानीय चुनावों में उसकी हालत इस कदर खस्ता हो रही है, फिर राष्ट्रीय राजनीति में उसका वजूद कितना सुरक्षित है। नेतृत्वहीनता, नेताओं का बड़बोलापन, सांगठनिक कमजोरी आदि इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कारकों पर भी कांग्रेस को चिंतन करने की आवश्यकता है। कुलमिलाकर इतना तो स्पष्ट है कि अपने अंधविरोध में विपक्ष चाहे कुछ भी कहे, मगर नोटबंदी के बाद मोदी सरकार के प्रति देश के हर कोने में जनसमर्थन में भारी-भरकम बढ़ोत्तरी हुई है। ये जनसमर्थन नोटबंदी पर जनाक्रोश से सम्बंधित विपक्ष के दावों की पोल खोलने वाला है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)