विविधतापूर्ण भारतीय संस्कृति का सफल वाहक है हमारा लोक-साहित्य

किसी संस्कृति विशेष के उत्थान-पतन विषयक उतार-चढ़ावों का जितना सफल अंकन लोक-साहित्य में रहता है, उतना अन्यत्र नहीं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि किसी भी संस्कृति की धूल उसकी आत्मा से जुड़ी होती है। अब अगर देश की बात की जाए तो भारतीय संस्कृति जितनी अधिक प्राचीन है, उतनी ही अधिक विभिन्न संस्कृतियों के सम्मिलित स्वरूप की वाहक भी। समय-समय पर विभिन्न संस्कृतियों ने इस पर आघात पहुंचाने के प्रयत्न भी किए परंतु बजाय इसे नष्ट करने के वे स्वयं ही इसकी अंगभूत बन गई। अतः प्रश्न उठता है कि वे कौन से तत्व है जो इसे विषिष्ट बनाये हुए है। आखिर जीवन भी एक प्रकार का सरित-प्रवाह है।

भारत का नाम सिंधु नदी ( हालांकि आज कम भारतीय ही इस तथ्य से वाकिफ है वह नदी नहीं नद है और दूसरा नद ब्रह्मपुत्र है) के नाम पर पड़ा जो कि आज पाकिस्तान से होकर बहती है और जैसा कि सर्वविदित है कि पाकिस्तान सन् 1947 में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन के अंत के साथ हुए भारत-विभाजन के बाद अस्तित्व में आया। इस तरह, भारतीय राष्ट्रवाद एक दुर्लभ घटना है। यह किसी भाषा (हमारा संविधान 23 भाषाओं को मान्यता देता है जबकि देश में 35 भाषाएं और 22,000 बोलियां हैं ), भूगोल ( उपमहाद्वीप का प्राकृतिक भूगोल जो कि पर्वतों और समुद्र से निर्मित होता है, वह 1947 में देश विभाजन के साथ ही खंडित हो गया ), नस्ल (भारतीय शब्द में विभिन्न नस्लें समाहित हैं ) और धर्म (भारत में दुनिया का हर धर्म जापान का प्राचीन जापानी शिंतों धर्म से लेकर हिंदू धर्म तक पाया जाता है, जिसमें किसी भी तरह के संगठित चर्च का ढांचा नहीं है और न ही कोई हिंदू पोप, हिंदू मक्का अथवा कोई एक पवित्र पुस्तक, समान मान्यताएं, पूजा पद्वति नहीं है)।

“दूसरे शब्दों में” निबंध में निर्मल वर्मा लिखते हैं, भारतीय संस्कृति की ये महान् काव्य रचनाएँ न तो ओल्ड टेस्टामेंट और कुरान की तरह निरी धर्म-पुस्तकें और आचार-संहिताएँ हैं, न ग्रीक महाकाव्यों-ईलियड और ओडिसी – की तरह ‘सेक्यूलर’ साहित्यिक कृतियाँ हैं। वे दोनों हैं और दोनों में से एक भी नहीं हैं। वे मनुष्य को उसकी समग्रता में, उसके उदात्त और पाशविक, गौरवपूर्ण और घृणास्पद, उजले और गँदले- उसके समस्त पक्षों को अपने प्रवाह में समेटकर बहती हैं। कला में सौंदर्य का आस्वादन और सत्य की बीहड़ खोज कोई अलग-अलग अनुभूतियाँ न होकर एक अखंडित और विराट अनुभव का साक्ष्य बन जाती है।

भारतीय राष्ट्रवाद, एक विचार आधारित राष्ट्रवाद है जो कि एक सनातन भूमि का विचार है। जिसकी उत्पति एक प्राचीन सभ्यता से हुई, जिसे एक समान इतिहास ने एकता में पिरोया और एक बहुलवादी लोकतंत्र ने निरंतरता प्रदान की। भारत के भूगोल ने इसे संभव बनाया और इतिहास ने इसकी पुष्टि की।  दुनिया भर में भारत के सम्मान का एक बड़ा कारण यही है कि वह सभी प्रकार के दबावों और तनावों के बावजूद कायम रहा है (इकबाल के शब्दों में कहें तो ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों से रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा) जबकि (विस्टन चर्चिल जैसे) कइयों ने उसके अवश्यंभावी विघटन की भविष्यवाणी करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इस तरह भारत ने बिना एकमत हुए भी सहमति बनाते हुए (एकम् सद् बहुधा विप्र वदंति) अपने अस्तित्व को कायम रखा है।

हिंदी के प्रसिद्व विचारक-निंबधकार विद्यानिवास मिश्र कहते हैं कि मैं हिंदू धर्म को लोकशास्त्र कहता हूं तो मेरा अभिप्राय इतना ही है कि वह विचारक, भावक और भावित सबको मिलाकर है। लोक साहित्य की भावधारा श्रुति परंपरा के सहारे अगणित मोड़ लेती हुई आज भी अपने प्राचीन रूप में प्रवाहित है। इसका लिखित साहित्य पहले नहीं उपलब्ध था, ग्रामीण जनता की यह निधि अत्यंत ही भावपूर्ण है और यह प्रकीर्ण साहित्य अत्याधिक विस्तृत है। उसमें कृत्रिमता का अभाव है, अनुभूतियों का सहज स्पंदन है। लोकगीतों की मानसी गंगा की समता बंधनयुक्त शास्त्रीय राग-रागनियां नहीं कर सकती हैं।

जनता का काव्य एवं जनता की परंपराएं लोकवार्ता शब्द द्वारा अभिहित होती है। हिंदी में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल ने किया। उल्लेखनीय है कि वे भारतीयता के अन्वेषी थे। इसे उन्होंने लोक में खोजा और वेद में भी। ‘लोके वेदे च आधार’ सूत्र ने उनकी मदद की। इस तरह से कहा जा सकता है कि वासुदेवशरण अग्रवाल ने भारत और भारतीयता को समझने की दृष्टि दी। लोक साहित्य मानव जाति की वह धरोहर है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती हुई निरंतर परिवर्तमान होती हुई अक्षुण्ण बनी रहती है। लोक-साहित्य का रूपाकार अवश्य किसी देश या जाति की भौगोलिक सीमा में आबद्व रहता है। पर उसकी आत्मा सार्वभौम और शास्वत है, उसकी स्थिति व परिस्थिति, आशा-निराशा,  कुंठा और विवशताएं एक सी है।

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भारतीय लोक नृत्य

डॉ वासुदेवशरण मानते है कि लोक साहित्य लोक जीवन का विधायक होने के कारण निजी महत्व रखता है, संस्कृति के उत्थान-पतन का जैसा वास्तविक चित्र लोक साहित्य में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। लोक साहित्य वस्तुतः संस्कृति के स्वरूप की स्थापना करने वाला अत्यंत महत्वपूर्ण साधन है। उदाहरण के लिए, कागज के नोट के प्रति लोक मानस की क्षोभ मिश्रित वेदना की यह अभिव्यक्ति समस्त परिवेश को सजीव रूप में प्रस्तुत करती हुई दिखाई देती है, यथा-“भाभी चल्यौ छेद को पईसा, जाय तू नार में लटकाय लीजो। तथा तू काहे को बनवाबेगी हमेल, रूपैया है गयो कागज को?” यह अनायास नहीं है कि वे जनपदीय-साहित्य और लोक-साहित्य को पर्यायवाची मानते हैं।

प्रसिद्व हिंदी कथाकार निर्मल वर्मा “कला का जोखिम” निंबध में कहते हैं कि किसी भी सार्थक संवाद के लिए हमें अनिवार्यतः, तीन सीढ़ियां पार करनी पड़ती है- दुनिया को पहचानना, उस पहचान से अपने को जानना, उस जानने को दूसरे में परखना। इन तीनों सोपानों में मनुष्य का कर्म बराबर मौजूद रहता है।

उल्लेखनीय है कि इस लोक में मनुष्यों का समूह ही नहीं, सृष्टि के चर-अचर सभी सम्मिलित हैं; पशु-पक्षी, वृक्ष-नदी, पर्वत सब लोक हैं। जबकि पश्चिम में हिन्दू धर्म को प्रस्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद ने इसी बात को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि जीवों में मनुष्य ही सर्वोच्च जीव है और यह लोक ही सर्वोच्च लोक है। हमारा ईश्वर भी मानव है और मानव भी ईश्वर है। हमारे लिए इस जगत को छोड़ और किसी जगत को जानने की संभावना नहीं है और मनुष्य ही इस जगत की सर्वोच्च सीमा है।

शायद यही कारण है कि स्वामी विवेकानंद न केवल क्रांतिकारियों को प्रभावित किया है बल्कि उत्तरोत्तर काल के राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों को भी। रोमां-रोलां बताते है कि बेलूर मठ की वाटिका में दिए एक व्याख्यान में महात्मा गांधी ने स्वीकार किया था कि “विवेकानंद के अध्ययन और उनकी पुस्तकों ने उनकी देशभक्ति को बढ़ाया।” इस प्रकार, भारत की आजादी के लिए गांधीजी के आंदोलन में विलीन होने वाले सभी क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आंदोलन स्वामीजी की सिंह गर्जना उठो, जागो के बाद ही शुरू हुए।

लोकवार्ता एक जीवित शास्त्र है। लोक का जितना जीवन है, उतना ही लोकवार्ता का विस्तार है। लोक में बसने वाला जन, जन की भूमि और भौतिक जीवन तथा जन की संस्कृति इन तीनों क्षेत्रों में लोक के पूरे ज्ञान का अन्तर्भाव होता है। लोकवार्ता का संबंध भी इन्हीं के साथ है। लोक वार्ता का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग लोक साहित्य है। लोकगीत, लोक कथाएं, लोक गाथाएं, कथागीत, धर्म गाथाएं, लोक नाट्य, नौंटकी, रामलीला आदि लोक साहित्य के विषय है। लोक साहित्य, लोक मानस की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।

लोक साहित्य बहुधा अलिखित ही रहता है और अपनी मौखिक परंपरा द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आगे बढ़ता रहता है। इस साहित्य के रचयिता का नाम अज्ञात रहता है। लोक का प्राणी जो कुछ कहता-सुनता है, उसे समूह की वाणी बनाकर और समूह से घुल-मिलकर ही कहता है। लोक भाषा के माध्यम से लोक चिंता का अकृत्रिम अभिव्यक्ति लोक साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है। महाभारत और रामायण इसके प्रबल प्रमाण है। राम और श्रीकृष्ण विषयक लोक गाथाएं लोक जीवन में प्रचलित थीं।

“दूसरे शब्दों में” निबंध में निर्मल वर्मा लिखते हैं, भारतीय संस्कृति की ये महान् काव्य रचनाएँ न तो ओल्ड टेस्टामेंट और कुरान की तरह निरी धर्म-पुस्तकें और आचार-संहिताएँ हैं, न ग्रीक महाकाव्यों-ईलियड और ओडिसी – की तरह ‘सेक्यूलर’ साहित्यिक कृतियाँ हैं। वे दोनों हैं और दोनों में से एक भी नहीं हैं। वे मनुष्य को उसकी समग्रता में, उसके उदात्त और पाशविक, गौरवपूर्ण और घृणास्पद, उजले और गँदले- उसके समस्त पक्षों को अपने प्रवाह में समेटकर बहती हैं। कला में सौंदर्य का आस्वादन और सत्य की बीहड़ खोज कोई अलग-अलग अनुभूतियाँ न होकर एक अखंडित और विराट अनुभव का साक्ष्य बन जाती है। डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में, संस्कृति मनुष्य के भूत, वर्तमान और भावी जीवन का सर्वांगपूर्ण प्रकार है इसका मूर्तिमान रूप होता है। जीवन के नाना विधि रूपों का समुदाय ही संस्कृति है।

लोकगीतों और लोकनृत्यों में लोक संस्कार मुख्य होते हैं। लोकगीत और लोकनृत्य संस्कारवत् लोक जीवन से लिपटे होते हैं। लोक गीतों के संदर्भ में वेरियर एल्विन का कथन है कि इनका महत्व इसलिए नहीं है कि इनके संगीत, स्वरूप और विषय में जनता का वास्तविक जीवन प्रतिबिम्बित होता है, प्रत्युत इनमें मानव शास्त्र के अध्ययन हेतु प्रामाणिक एवं ठोस सामग्री हमें उपलब्ध होती है। काका कालेलकर के अनुसार, लोक साहित्य के अध्ययन से हम कृत्रिमता का कवच तोड़ सकेंगे और स्वाभाविकता की शुद्ध हवा में फिरने-डोलने की शक्ति प्राप्त कर सकेंगे।

लोक संस्कृति ऐसे संस्कारों को हमेशा सहेज कर रखती है। समन्वयात्मकता लोक संस्कृति की मुख्य विशेषता। यही गुण लोक जीवन का जीता रखता है। हिंदी के प्रसिद्व निबंधकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं। ये लोग नगर में परिष्कृत रूचि सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अघिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रूचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उनको उत्पन्न करते हैं।

(लेखक ‘प्रजा प्रवाह’ के राष्ट्रीय संयुक्त संयोजक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)