भारतवर्ष का इतिहास अनगिनत घटनाओं का इतिहास है, जो इसके विविध कालखंडों की उन तमाम गाथाओं को समेटे हुए है, जिनमें जय है, पराजय है, वैभवकाल है तो कही संक्रमणकाल का लंबा दौर। भारत के इतिहास के संबंध में तमाम बातें कही जाती है लेकिन एक बात जो बेहद महत्वपूर्ण है, वह है कि जहाँ दुनिया की कई सभ्यताएं विलुप्त हो गई, भारत का अस्तित्व बरकरार रहा। तमाम मुसीबतों के बावजूद वह अक्षुण्ण रहा। वह कौन सी बात थी जिसने इस देश को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई! कारण अनेकों हो सकते है लेकिन जो एक वजह थी, वह थी इस पुण्यभूमि पर जन्में लोगों में राष्ट्रवाद की भावना, एकात्मता का संदेश, सद्भाव की प्रवृत्ति, पूर्वजों द्वारा दिए संस्कारों की सौगात। आज जब राष्ट्रीयता का बोध रखना इसी भारत में कुछ लोगों को अरुचिकर लगने लगा है, राष्ट्रवादी होना वामपंथी वैचारिक विमर्श में अपराधी घोषित किया जाने लगा है, देश को टुकड़े टुकड़े करने के नारे को कुछ सिरफिरे युवाओं की नजर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समझा जाने लगा है, ऐसे समय में पंडित मदन मोहन मालवीय के विचार बेहद प्रासंगिक हो जाते है।
विनम्रता, शुचिता, राष्ट्र प्रेम तथा भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा के महान आदर्श पंडित मदन मोहन मालवीय सदैव उन कोशिशों में लगे रहे, जो राष्ट्रभक्त और निष्ठावान युवाओं की असीमित शक्ति से इस भारतवर्ष को समृद्ध करें। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थपना इसी विराट दूरदर्शी सोच का परिणाम था। मालवीयजी चाहते थे कि देश में इस मानसिकता का, इस संकल्प का, इस संस्कृति का विकास होना चाहिए कि जहाँ हम एक स्वावलंबी समाज की रचना कर सकेंगे जिसमें व्यक्ति स्वाभिमानी होगा और समाज स्वावलंबी।
जब देश में जातीय तनाव और क्षेत्रीय विभेद पैदा करने की कोशिश करते कुछ तत्व नजर आते है, उसी दीक्षांत समारोह में मालवीयजी जी की ये बातें युवाओं को दिशा दिखाती नजर आती है। वे कहते है, ‘अपने देशवासियों से प्रेम करो तथा उनमें एकता का विकास करो। आप में सहनशीलता, क्षमा तथा निःस्वार्थ सेवा के महान भावों के विकास की आवश्यकता है। हम लोग आपसे यह आशा करते है कि आप अपने छोटे भाईयों के उत्थान के लिए, अधिक से अधिक अपना समय और शक्ति लगावें। हम लोग आपसे आशा करते है कि आप उन्हीं के साथ मिलकर काम करें, उनके शोक तथा आनंद में उनका हाथ बटाएं और उनके जीवन को दिनोदिन सुखमय बनाने का प्रयत्न करें।’
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीयजी की दृष्टि बेहद संजीदा व दूरदर्शी विचारों से परिपूर्ण थी। 1929 में विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने जो बात कही थी, वे आज के समय में भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। अपने सामने उपस्थित युवाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘यह देश आपका जन्मस्थान है। यह एक सुंदर देश है। सभी बातों के विचार से इसके समान संसार में कोई दूसरा देश नही है। आपको इस बात के लिए कृतज्ञ और गौरवान्वित होना चाहिए कि उस कृपालु परमेश्वर ने आपको इस देश में पैदा किया है। आपका इसके प्रति एक मुख्य कर्तव्य है। आपने इसी माता की गोद में जन्म लिया है, इसने आपको भोजन दिया, वस्त्र दिया तथा आपका पालन-पोषण करके आपको बड़ा बनाया है। यही आपको सब प्रकार की सुविधा, सुख, लाभ तथा यश देती है। यही आपकी क्रीड़ा-भूमि रही है और यही आपके जीवन का कार्यक्षेत्र बनेगी तथा आपकी सभी आशाओं तथा उमंगों का केंद्र रहेगी। यही आपके पूर्वजों तथा जाति के बड़े से बड़े तथा छोटे से छोटे मनुष्यों का कार्यक्षेत्र रही है। अतएव पृथ्वी के धरातल पर यही भूमि आपके लिए सबसे बढ़कर प्रिय और आदरणीय होनी चाहिए। इसलिए जब कभी देश आपसे किसी प्रकार की सहायता मांगे, उस समय आपको अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिए सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए।’
जब देश में जातीय तनाव और क्षेत्रीय विभेद पैदा करने की कोशिश करते कुछ तत्व नजर आते है, उसी दीक्षांत समारोह में मालवीयजी जी की ये बातें युवाओं को दिशा दिखाती नजर आती है। वे कहते है, ‘अपने देशवासियों से प्रेम करो तथा उनमें एकता का विकास करो। आप में सहनशीलता, क्षमा तथा निःस्वार्थ सेवा के महान भावों के विकास की आवश्यकता है। हम लोग आपसे यह आशा करते है कि आप अपने छोटे भाईयों के उत्थान के लिए, अधिक से अधिक अपना समय और शक्ति लगावें। हम लोग आपसे आशा करते है कि आप उन्हीं के साथ मिलकर काम करें, उनके शोक तथा आनंद में उनका हाथ बटाएं और उनके जीवन को दिनोदिन सुखमय बनाने का प्रयत्न करें।’
देश के प्रति युवाओं के कर्तव्यों का बोध कराते हुए वे कहते है कि ‘नागरिक का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य यह है कि वह मातृभूमि के सम्मान की रक्षा के लिए अपने जीवन का बालिदन कर दे। इसके साथ साथ मै आपको यह भी बता देना चाहता हूँ कि वही कर्त्तव्य आपको यही भी सिखलाता है, इसी सेवा के लिए जीवन सुरक्षित रक्खा जाय और मूर्खतापूर्ण जोश में आकर शीघ्र ही समाप्त न कर दिया जाय। अतएव मै आपसे यही चाहता हूँ कि आप अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए शुद्ध भाव से उपयुक्त संरक्षकता में रहकर देश की स्वतंत्रता के लिए अपना कार्य करें।’
देशभक्ति एक विराट भावना का अलौकिक स्वरुप है, जो हमें न केवल राष्ट्रभक्ति करने की बल्कि बल्कि सदैव राष्ट्रहित चिंतन करने की प्रेरणा देने, देशहित में जीने और समाज-हित में योगदान करने की शक्ति भी प्रदान करती है। आज वैसे दौर में जब देशभक्त शब्द के निहितार्थ तलाशे जा रहे है, 1907 में अपनी पत्रिका अभ्युदय के संपादकीय ‘स्वराज्य की योग्यता व साधन’ के जरिये मालवीयजी लिखते है कि ‘स्वराज्य का सबसे बड़ा साधन यह है कि देश में जहाँ तक संभव हो, प्राणी-प्राणी में देश की भक्ति का भाव बढ़ाया जाय। इससे लोगों में परस्पर प्रीति और परस्पर विश्वास बढ़ेंगे तथा बैर और फूट घटेगी। इससे और अनंत उत्तम गुण मनुष्य में उत्पन्न होंगे, जो उनको देश की सेवा करने के योग्य बनावेंगे और अनेक प्रकार के पाप तथा लज्जा के कामों से उनको बचावेंगे।’
अभ्युदय में ही ‘राष्ट्रीयता और देशभक्ति’ शीर्षक अपनी संपादकीय टिप्पणी में (भाद्रपद-शुक्ल ६, संवत १९६४ ) ‘राष्ट्रीयता किसे कहते है ?’ को समझाते हुए मालवीयजी कहते है कि ‘राष्ट्रीयता उस भाव का नाम है जो कि देश के सम्पूर्ण निवासियों के हृदयों में देश-हित की लालसा के साथ व्याप रहा हो, जिसके आगे अन्य भावों की श्रेणी नीची ही रहती हो। भारत में राष्ट्रीय भाव कैसे पैदा हो? प्रत्येक भाव में भक्ति और प्रेम होते हैं और प्रत्येक प्रेम और भक्ति के आधार भी होते हैं। यह प्रकृति का नियम है कि मनुष्य जिस वस्तु से प्रेम रखता है उसका दास बन जाता है और उसके आगे अन्य समस्त वस्तुओं को तुच्छ मानता है। धन ही से प्रेम रखने वाले धर्म और यश की कुछ भी अपेक्षा नही करते; और जिनको धर्म और यश प्यारा है, उनके आगे धन मिट्टी जैसा ही है। देशभक्ति का संचार हमारे ह्रदय से स्वार्थ को निकाल कर फेंक देगा। हम अदूरदर्शी, स्वार्थी और खुशामदियों की तरह ऐसे कार्य कदापि नही करेंगे जिनसे कि देशवासियों को हानि पहुँचे; बल्कि दूरदर्शी, परमार्थी, सत्यशील और दृढ़ताप्रिय आतामाओं की भांति, असंख्यों कष्ट उठाते हुए भी वही करेंगे, जिसमें देश का भला हो। निर्धन धनवान, निर्बल बलवान् और मुर्ख बुद्धिमान हो जायं, प्रत्येक प्रकार के सामाजिक दुःख मिटें और दुर्भिक्ष आदि विपत्तियाँ दूर होकर लाखों बिलबिलाती हुई आत्माओं को सुख पहुँचे। देश-भक्ति द्वारा इतने धर्मों का संपादन होता हुआ देख कर भी यदि कोई धर्म के आगे देशभक्ति को कुछ नही समझता, उस पुरुष को जान लीजिये कि वह धर्म के तत्व ही को नही पहचानता…इसमें संदेह नहीं कि जो देशवासी अपनी मातृ-भूमि की गुरुता को भली भांति समझ लेंगे, उनमें धर्म-भेद और वर्ण-भेद रहते हुए भी एकता का अभाव नहीं पाया जाएगा। यदि आप विद्वान है, बलवान् है और धनवान हैं तो आपका धर्म यह है कि अपनी विद्या, धन और बल को देश की सेवा में लगाओ। उनकी सहायता करो जो कि तुम्हारी सहायता के भूखे है। उनको योग्य बनाओ जो कि अन्यथा अयोग्य ही बने रहेंगे। जो ऐसा नही करते, वे अपनी योग्यता का उचित प्रयोग नही करते और ईश्वर की सौंपी हुई अमानत में ख़यानत(विश्वासघात) करते है, जो कि एक अधर्म है, और जिसका बुरा फल मिले बिना रह नही सकता।’
(अभ्युदय पत्रिका के संदर्भ मालवीयजी के लेख, संपादक- पं. पद्मकांत मालवीय, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, १९६२ शीर्षक पुस्तक से लिए गए है, दीक्षांत भाषण हेतु साभार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पुस्तकालय, पांडुलिपि विभाग)