बिहार चुनाव : जातीय समीकरणों को नहीं, विकास और सुशासन की राजनीति को मिला जनादेश

गौर करें तो भारतीय जनता पार्टी जहाँ भी चुनावी मैदान में उतरती है, वहां सारे जातीय समीकरण ध्वस्त कर देती है और विकास के मुद्दे को राजनीति के केंद्र में ले आती है। यही हमने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान भी देखा था कि मुस्लिम, यादव और दलित वोट बैंक की राजनीति करने वाली पार्टियाँ धराशायी हो गई और भारतीय जनता पार्टी सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के रूप में अकेले सरकार बनाने में कामयाब रही। बिहार में भी कुछ ऐसा ही हुआ है।

मंगलवार की सुबह बिहार ही नहीं, पूरे देश में हलचल थी। वजह थी  बिहार विधानसभा चुनावों की मतगणना की तारीख 10 नवम्बर। हालाँकि इस दिन सिर्फ बिहार विधानसभा चुनाव के ही नहीं, अपितु कई अन्य राज्यों में भी उपचुनावों के परिणाम घोषित होने थे।

साभार : New Indian Express

बिहार में मंगलवार की सुबह में स्थिति अलग दिख रही थी, लेकिन दोपहर होते-होते गेंद ने अपना पाला बदल लिया और अंततः राजग को 125 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। चुनाव परिणाम को देखकर यह स्पष्ट है कि इस बार भी बिहार की जनता ने पूरी सूझबूझ से मतदान करते हुए मुस्लिम-यादव (M & Y) समीकरण भुनाने की कोशिश में लगे महागठबंधन के सामने महिला और युवा (M & Y) के समीकरण स्थापित किये।

यह इस बात का द्योतक है कि बिहार की जनता अब जाति के ठेकेदारों के झांसे में नहीं आकर लगातार मुद्दों पर वोट करने लगी है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत हैं। चुनाव परिणाम के आंकड़ों से स्पष्ट है कि कांग्रेस के खिलाफ विरोधी लहर थी। महागठबंधन सीट बटवारे में कांग्रेस पार्टी को 70 सीटें मिली जिसमें से वे मात्र 19 सीटें ही जीत पाई। कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व क्षेत्रीय पार्टियों पर आश्रित हो चुका है।

इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत जंगलराज के विरुद्ध सुशासन की जीत है। यह केंद्र की मोदी सरकार और राज्य की नीतीश सरकार द्वारा किए गए विकास कार्यों की जीत है। यही कारण है कि दोपहर बाद के रुझान में गेंद महागठबंधन के पाले से हटकर एनडीए के पास गई और परिणाम घोषित होने तक उन्ही के पास रही।

गौर करें तो भारतीय जनता पार्टी जहाँ भी चुनावी मैदान में उतरती है, वहां सारे जातीय समीकरण ध्वस्त कर देती है और विकास के मुद्दे को राजनीति के केंद्र में ले आती है। यही हमने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान भी देखा था कि मुस्लिम, यादव और दलित वोट बैंक की राजनीति करने वाली पार्टियाँ धराशायी हो गई और भारतीय जनता पार्टी सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के रूप में अकेले सरकार बनाने में कामयाब रही। बिहार में भी कुछ ऐसा ही हुआ है।

इतने चुनावों को देखने के बाद जातीय समीकरण बनाकर गठजोड़ की राजनीति करने वाली पार्टियों को उससे ऊपर उठकर मुद्दों की राजनीति करनी चाहिए अन्यथा आने वाले समय में तुष्टिकरण की राजनीति करने वाली पार्टियों का वही हाल होगा जो हमने उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव में देखा था।

आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव ने बिहार में 10 लाख सरकारी नौकरियों का वादा किया, विश्लेषकों की मानें तो बिहार के कुल बजट को देखते हुए बिहार में 10 लाख सरकारी नौकरियां देना संभव ही नहीं है। जनता को इस अध्ययनहीन वादे से भरमाने की कोशिश विफल हुई।  इस चुनाव ने यह सिद्ध किया है कि अब झूठे वादों से जनता को बरगला कर वोट नहीं लिया सकता है।

बिहार चुनाव में एनडीए की जीत का मनोवैज्ञानिक लाभ भारतीय जनता पार्टी को 2021 में विधानसभा चुनावों (तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, असम और पन्दिचेरी) में भी मिलेगा। पिछले दिनों भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव का शंखनाद वहां की दो दिवसीय यात्रा के दौरान ही कर दिया था।

बिहार के अलावा मध्य प्रदेश में 28 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में भी कांग्रेस 9 सीटों तक सिमट कर रह गई, वहीं भाजपा के खाते में 19 सीटें आई। उत्तर प्रदेश में भी 7 सीटों पर हुए उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी के खाते में 6 सीटें आईं तो वहीं गुजरात के 8 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में सभी सीटें भाजपा ने हासिल की।

बिहार विधानसभा चुनाव सहित ये सभी उपचुनावों के परिणाम साबित करते हैं कि अब जनता जातीय समीकरण से ऊपर उठकर उस दल को वोट कर रही है, जो विकास और सुशासन के मुद्दे पर राजनीति करता हो। निश्चित रूप से ऐसा करने वाली पार्टियों में भाजपा अग्रणी है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)