उत्तर प्रदेश की राजनीति में चल रहा सत्ताधारी परिवारवादी कुनबे का सियासी ड्रामा आखिरकार उसी बिंदु पर खत्म हुआ जिस पर उसे खत्म होना था। सियासी ड्रामे का यह अंतिम चरण कहा जा सकता है। इसके पहले भी अक्तूबर महीने में यह उठा-पटक तेज हुई थी। उस समय सपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर शिवपाल यादव को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया था। बेहद नाटकीय ढंग से इन दो महीनों में दो बार पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम गोपाल यादव का निष्कासन और फिर पार्टी में वापसी भी हुई। नाटकीयता की पराकाष्ठा तो तब हुई जब एकबार मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का भी पार्टी से निष्कासन किया गया और फिर कुछ घंटों में ही वापसी हुई। गत 23 अक्तूबर को जब यह सियासी ड्रामा अपने प्राथमिक दौर में था तब मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट में मैंने लिखा था, “जो विधायक अखिलेश के घर पहुंचे हैं वे सब मुलायम के ख़ास हैं और मुलायम की सहमति पर गए हैं। इधर शेष विधायक तो शिवपाल खेमे के हैं। बिना दिक्कत के मुलायम सिंह यादव बेटे को मजबूत कर रहे हैं। पिछली बार(2012 चुनाव के बाद) तो सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण हुआ था मगर इसबार मुलायम सिंह यादव पार्टी की कमान भी अखिलेश को देने के मूड में पैंतरा खेल रहे हैं। बेशक सपा के प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव हैं, मगर अगला राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश ही होंगे। यह सारी कवायद इसी की चल रही है। मुलायम को मै शुरू से हल्के में नहीं ले रहा हूँ। मुलायम पूरे कुनबे में अपने बेटे अखिलेश का वर्चस्व साबित कराने का हर संभव दांव चल रहे हैं। अब राष्ट्रीय अध्यक्ष की घोषणा बाकी है। वो जब चाहें कर दें।“ आज एक जनवरी 2017 को यह पोस्ट सही साबित होती दिख रही है। सियासत के अखाड़े में मंझे हुए पहलवान की तरह मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव के हाथों विरासत की ताकत का हस्तांतरण भी कर दिया उनकी छवि को बेदाग़ साबित करने की पूरी कोशिश भी कर दी। शिवपाल सिंह यादव न तब ताकतवर थे और न आज हैं। वे तब भी इस पूरे सियासी मंचन में मोहरे की भूमिका में थे और आज भी मोहरे की तरह ही हैं।
आज जब अखिलेश के पास यादव परिवार की समाजवादी पार्टी का वर्चस्व हस्तांतरित हो चुका है तो यह सवाल मुखर होकर उठेगा कि आखिर अखिलेश यादव साढ़े चार साल तक क्यों अपनी असफलताओं पर चुप रहे ? गायत्री प्रजापति पर उनका ध्यान आज क्यों गया ? इस सियासी नुरा-कुश्ती में घड़ी की सुई वहीँ की वहीँ है। पहले भी ताकत अखिलेश-मुलायम के पास थी, आज भी उन्हीं के पास है। शक्ति के केंद्र में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। फिर साढ़े चार साल की असफलता का जवाब अखिलेश से क्यों नहीं माँगा जाय ? यूपी में अपराध, हत्याएं, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसी घटनाओं पर जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को चुनावों में जवाब देने का वक्त आया तो वे जवाब देने की बजाय, सियासी नुरा-कुश्ती के माध्यम से अपनी असफलताओं पर परदेदारी करने का स्वांग क्यों रच रहे हैं ?
इसको लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं होगा कि समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव की हैसियत हर समय इतनी थी कि वे पहले भी अखिलेश को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना सकते थे। ऐसे में, सवाल उठता है कि आखिर मुलायम सिंह यादव ने महज़ अखिलेश की सियासी ताजपोशी के लिए इस नाटकीय घटनाक्रम का ताना-बाना क्यों बुना ? इसके पीछे एक वाजिब वजह है। वजह यह है कि पिछले पांच साल के शासन में अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार क़ानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार, महिला सुरक्षा आदि के मसले पर बुरी तरह असफल एवं नाकाम रही है। सरकार द्वारा अपराधियों एवं भ्रष्टाचारियों का संरक्षण साढ़े चार साल तक चलता रहा। मुलायम सिंह यादव राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी हैं, सो उन्हें इस बात का भान हो गया था कि इसबार समाजवादी पार्टी चुनावों में इन खामियों का खामियाजा भुगत सकती है। लिहाजा नेताजी का पुत्रमोह उन्हें इस चिंता में डाल दिया कि चुनाव हार गए तो इसका सारा ठीकरा उनके पुत्र और यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सिर पर ही फूटेगा। लिहाजा उन्होंने समाजवादी पार्टी में अखिलेश बनाम शिवपाल का दो फाड़ पैदा करके अखिलेश द्वारा कुछ मंत्रियों को बर्खास्त करने फिर शिवपाल द्वारा उन्हें वापस लाने आदि की नाट्य पटकथा लिखी। इस पटकथा के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया कि अखिलेश अपने ही कुनबे से लड़कर दागियों पर कार्यवाही करने के लिए हर सीमा तक लड़ने को तैयार हैं। शायद मुलायम सिंह यादव ने इस नाट्य मंचन के माध्यम से वो हर दाँव चलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जिससे अखिलेश यादव की छवि में सुधार किया जा सके।
आज अखिलेश की ताजपोशी भी हो गयी, उनके प्रति पार्टी में एकतरफा जनसमर्थन की नुमाइश भी दिखा दी गयी और नेता जी ने पुत्र का राजतिलक भी कर दिया। अर्थात मुलायम सिंह वह करने में सफल रहे जो करना चाहते थे। इसी बीच इस सियासी ड्रामे के ताने-बाने पर अखिलेश यादव के एक सलाहकार का ई-मेल भी मीडिया में सामने आया, जिसमें इस ड्रामे से उनकी छवि में सुधार होने की बात कही गयी थी। इस ई-मेल ने समाजवादी परिवार के सियासी ड्रामे की कलई खोल कर रख दी है।
अब जब यह सियासी नूरा-कुश्ती अपने अंतिम पड़ाव को पार कर रही है, और अखिलेश के पास यादव परिवार की समाजवादी पार्टी का वर्चस्व हस्तांतरित हो चुका है तो यह सवाल मुखर होकर उठेगा कि आखिर अखिलेश यादव साढ़े चार साल तक क्यों अपनी असफलताओं पर चुप रहे ? गायत्री प्रजापति पर उनका ध्यान आज क्यों गया ? इस सियासी नुरा-कुश्ती में घड़ी की सुई वहीँ की वहीँ है। पहले भी ताकत अखिलेश-मुलायम के पास थी, आज भी उन्हीं के पास है। शक्ति के केंद्र में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। फिर साढ़े चार साल की असफलता का जवाब अखिलेश से क्यों नहीं माँगा जाय ? यूपी में अपराध, हत्याएं, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसी घटनाओं पर जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को चुनावों में जवाब देने का वक्त आया तो वे जवाब देने की बजाय, सियासी नुरा-कुश्ती के माध्यम से अपनी असफलताओं पर परदेदारी करने का स्वांग क्यों रच रहे हैं ? इसमें कोई दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व में जो सरकार पिछले पांच साल से चली है, वो एक बेहतर और विकासवादी नीति की सरकार नहीं कही जा सकती है। इस बात को भी खारिज नहीं किया जा सकता है कि यूपी सरकार का मुखिया होने के नाते वे अपनी जवाबदेही को बहानों का चोला पहनाकर जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते हैं। उन्हें जनता को जवाब तो देना ही होगा। अपने साढ़े चार साल की विफलताओं को इस नुराकुश्ती के माध्यम से ढांपने की कवायद कर रहे अखिलेश यादव का अपनी जवाबदेही से मुकरना जनता के साथ छलावा ही कहा जाएगा।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं और नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम में संपादक हैं)