वैसे तो कांग्रेस आज भी कहने को राष्ट्रीय पार्टी ही है लेकिन सबसे अधिक लोकसभा और विधान सभा की सीटों वाले प्रदेश में उसकी स्थिति कैसी है, यह किसी से छिपा नहीं है। अगर राजनैतिक लोकप्रियता और स्वीकार्यता के ग्राफ को समझना है तो उसके लिए यह देखना बेहद जरूरी है कि बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, और महाराष्ट्र जैसे बड़े प्रदेशों में पार्टी का चुनावी प्रदर्शन कैसा रहा है। कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता का आलम यह है पिछले लोकसभा चुनाव में और उसके बाद के सभी विधानसभा चुनावों में, किसी भी राज्य में कांग्रेस की स्थिति दयनीय से अलग नहीं रही है। फिर भी कांग्रेस को अपनी राजनैतिक हैसियत का बोध नहीं हो रहा कि वास्तव में उसकी जमीनी पकड़ कितनी और कैसी है। जमीनी हकीकत से बेखबर कांग्रेस के नेता जिस तरह की दरबारी राजनीति कर रहे हैं उसका आधार क्या है? क्या फिर दूसरी छोटी पार्टियों के भरोसे गठबंधनी सत्ता हासिल कारण चाहती है कांग्रेस? जबकि उसी गठबंधनी सत्ता की मजबूरी में टू जी, कोल और कामनवेल्थ हुआ जिसने सुपड़ा साफ कर दिया और अब यह हकीकत जनता बीच खुल रही।
कहने का आशय यह है कि मोतीलाल नेहरू के रक्तसंबंध में आज तक कांग्रेस का कोई भी ऐसा प्रत्याशी नहीं आया जो स्वतः स्फूर्त राजनीति और अपनी नेतृत्व क्षमता से सत्ता तक पहुंचा हो। बात चाहे जवाहरलाल नेहरू की हो, इन्दिरा गांधी की हो, राजीव गांधी की हो या फिर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की। जवाहरलाल नेहरू स्वाधीन भारत की सत्ता पर कैसे आसीन हुए यह किसी से छिपा नहीं है साथ ही अपनी कुर्सी बचाने के लिए स्वाधीनता सेनानियों के साथ कैसा खेल खेला यह भी इतिहास में दर्ज है। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण अंबेडकर का नेहरू कैबिनेट से त्यागपत्र है। उनके निधन के बाद भारतीय राजनीति में लाल बहादुर शास्त्री जरूर आए लेकिन वह समय भी इन्दिरा गांधी की भावुकता की राजनीति के पृष्ठभूमि निर्माण का ही था और इन्दिरा गांधी का सत्ता पर कब्जा भारतीय जनमानस के अन्तर्मन में भावुकता के क्षद्म बिजारोपण के साथ हुआ। वैसे ही राजीव गांधी का भी सत्ता पर आसिन होना किसी से छिपा नहीं है, व्यापक स्तर पर सहानुभूति और भावनाओं को भुनाया गया। सोनिया गांधी का आगमन भी उसी कड़ी में हुआ और उसी भावुकता में राहुल गांधी का भी राजनीतिक प्रवेश भी हुआ।
शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित करना कांग्रेस को वेंटिलेटर पर चलाने के सिवा और कुछ नहीं है। कहने का मतलब यह कि जिस देश और प्रदेश में 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या 40 वर्ष से कम आयु वालों की है वहाँ 70 वर्ष से ऊपर वाले को प्रत्याशी बनाना राजनीतिक हताशा, लापरवाही, नेता विहीनता और नीयत में खोट का स्पष्ट संकेत है। शीला दीक्षित प्रदेश से बाहर की नेता हैं यह कांग्रेस के विरुद्ध एक बड़ा मुद्दा है। शीला दीक्षित की छवि कभी भी उत्तर प्रदेश के बड़े नेता के रूप में नहीं देखी गई है और न ही उन्हें कभी राष्ट्रीय नेतृत्व में देखा गया है। उनकी पूरी क्षमता एक छोटे से प्रांत, जो आज के मशीनी युग में एक जिला के अलावा और कुछ नहीं है और जिसके प्रशासन के लिए मुख्यमंत्री की नहीं जिलाधिकारी की जरूरत होती है। शीला दीक्षित जीवन भर उन लोगों को कोसती रहीं हैं जो रोजगार के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार से दिल्ली आते हैं। शीला दीक्षित को लेकर जो प्रमुख राजनैतिक सवाल उठ रहे हैं उनमें सबसे बड़ा मुद्दा उनके बाहरी होने का ही है, दूसरा प्रादेशिक राजनीति में अनभिज्ञ होना और अनुभवहीन होना, तीसरा जीवन में किसी भी तरह की जमीनी राजनीति का कोई अनुभव नहीं, और चौथा जातीय राजनीति में कोई राजनीतिक आधार का न होना। यह अलग बात है कि आतंकवादियों में राष्ट्र भक्ति खोजने वाले राजनीतिक पंडित इसे अनेक तरह के बदलाव, कांग्रेस की सुनियोजित चाल, जातिगत समीकरण—जिसमें कांग्रेस का पारंपरिक वोट, मुसलमान और 14 प्रतिशत के लगभग ब्राह्मण वोटों का एकतरफा ध्रुवीकरण आदि की अंध वकालत कर रहे हैं। मानो शीला दीक्षित ब्राह्मणों की वैश्विक नेतृत्वकर्ता रहीं हैं। यही कारण है कि न जाने कितने काल्पनिक विशेषणों से परिभाषित भी कर रहे हैं। जबकि आलम यह है कि उतने बड़े प्रदेश में कांग्रेस का गणितीय जनाधार, पिछले कई चुनावों और वर्तमान में हुए कुछ सर्वे के आधार पर दहाई का अंक भी हासिल नहीं कर रहा है।
राहुल गांधी की छवि दिनोंदिन धूमिल हो रही है। वैसे तो उनकी नेतृत्वकर्ता की छवि पर हमेशा से प्रश्नवाचक चिह्न लगता रहा है लेकिन उत्तर प्रदेश के निर्णय से यह धारणा और अधिक मजबूत और पुष्ट हुई है। कांग्रेस अपने अतीत के दाग धोने और छिपाने की हर संभव कोशिश कर रही है लेकिन दाग हैं कि और चटक होते जा रहे हैं। प्रियंका गांधी के नाम को उत्तर प्रदेश में उछालना एक नया प्रयोग था जिसे अगर कांग्रेस और इन्दिरा गांधी के परिवार के इतिहास के आईने में देखा जाय तो यह बहुत नये और ऐतिहासिक कदम की ओर बढ़ रही कांग्रेस की राजनीति हो सकती थी लेकिन उसने अपना बढ़ा हुआ कदम भी पीछे खींच लिया और फिर वही ढाक के तीन पात। कहने का आशय यह है कि मोतीलाल नेहरू के रक्तसंबंध में आज तक कांग्रेस का कोई भी ऐसा प्रत्याशी नहीं आया जो स्वतः स्फूर्त राजनीति और अपनी नेतृत्व क्षमता से सत्ता तक पहुंचा हो। बात चाहे जवाहरलाल नेहरू की हो, इन्दिरा गांधी की हो, राजीव गांधी की हो या फिर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की। जवाहरलाल नेहरू स्वाधीन भारत की सत्ता पर कैसे आसीन हुए यह किसी से छिपा नहीं है साथ ही अपनी कुर्सी बचाने के लिए स्वाधीनता सेनानियों के साथ कैसा खेल खेला यह भी इतिहास में दर्ज है। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण अंबेडकर का नेहरू कैबिनेट से त्यागपत्र है। उनके निधन के बाद भारतीय राजनीति में लाल बहादुर शास्त्री जरूर आए लेकिन वह समय भी इन्दिरा गांधी की भावुकता की राजनीति के पृष्ठभूमि निर्माण का ही था और इन्दिरा गांधी का सत्ता पर कब्जा भारतीय जनमानस के अन्तर्मन में भावुकता के क्षद्म बिजारोपण के साथ हुआ। वैसे ही राजीव गांधी का भी सत्ता पर आसिन होना किसी से छिपा नहीं है, व्यापक स्तर पर सहानुभूति और भावनाओं को भुनाया गया। सोनिया गांधी का आगमन भी उसी कड़ी में हुआ और उसी भावुकता में राहुल गांधी का भी राजनीतिक प्रवेश भी हुआ।
अब स्थितियाँ बदल गईं हैं। लोगों ने इतिहास को समझना शुरू कर दिया है। सभी को पता है कि प्रियंका वाड्रा किस खानदान की बहू हैं और उनके पति की कितनी बड़ी राजनैतिक हैसियत है। अब भावुकता के लिए वैसी जगह नहीं है लिहाजा कांग्रेस प्रियंका वाड्रा को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का प्रत्याशी बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई क्योंकि पहली बात तो कांग्रेसी राजनीति का इतिहास इस तरह के त्वरित निर्णय की इजाजत नहीं देता और दूसरी ओर इनका भी अतीत कांग्रेस के अतीत के साथ जुड़ा हुआ है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)