अगर ममता बनर्जी को ऐसा लगता है कि हिंसा के इस्तेमाल से वो बंगाल की जनता के दिलों में जगह बना सकती हैं, तो वे बहुत बड़े भ्रम में जी रही हैं। हिंसा का रास्ता ममता बनर्जी और बांग्लादेशी घुसपैठियों को रास आ सकता है, लेकिन जो बंगाल की जनता सोनार बांग्ला का स्वप्न पूरा होते देखना चाहती है, वो हिंसा को कभी सहन नहीं कर सकती है।
आज अगर किसी को ‘तानाशाही’ और लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन देखना है तो पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को देखिए। जिस पश्चिम बंगाल ने शांतिनिकेतन के माध्यम से पूरे विश्व को शांति का सन्देश दिया था, आज वह बंगाल ममता सरकार के राज में बम की आवाज से दहल रहा है।
अपने विरोधियों को रोकने के लिए राजनीतिक हिंसा का सहारा लिया जाता है और इसपर किसी प्रकार की कार्यवाही की उम्मीद करना स्वयं को धोखा देना है, क्योंकि बंगाल के पुलिस थाने आज तृणमूल कांग्रेस के पार्टी दफ्तर की तरह कार्य कर रहे हैं।
ज्ञातव्य हो कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के गुंडों द्वारा भाजपा के 115 कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है। अभी बमुश्किल एक हफ्ते पहले बीजेपी नेता और टीटागढ़ नगरपालिका पार्षद मनीष शुक्ला की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। गौरतलब है कि इन्हीं राजनीतिक हिंसाओं को लेकर भाजपा के युवा मोर्चा ने सांसद तेजस्वी सूर्या के नेतृत्व में कल शांतिपूर्ण प्रदर्शन ‘नवान्न चलो’ आयोजित किया था। नवान्न पश्चिम बंगाल का सचिवालय है।
परन्तु, हमेशा की तरह इस बार भी तृणमूल सरकार ने अपने विरोध में होने वाले इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन को होने नहीं दिया और इसके विरुद्ध हिंसा का सहारा लिया, जिसकी शुरुआत तृणमूल के गुंडों ने भाजपा कार्यकर्ताओं पर बम फेंककर की और इसके बाद ममता बनर्जी की पुलिस ने कार्यकर्ताओं पर लाठियों, आंसू गैस, वाटर कैनन से हमला किया।
जानकारों के मुताबिक वाटर कैनन में जहरीली केमिकल का भी इस्तेमाल किया गया था, जिसके कारण कार्यकर्ताओं को रिएक्शन होने के कारण अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। ममता सरकार के इस हिंसक कृत्य में भाजपा के लगभग 1500 कार्यकर्ता घायल हुए, यहाँ तक की पुलिस ने 60 वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्गों पर भी हमला किया। इस प्रदर्शन में महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय भी शामिल थे। ये हालत पश्चिम बंगाल के ममता राज में विरोधियों की है।
अगर ऐसी कार्रवाई भाजपा शासित किसी भी राज्य में हुई होती तो अबतक पूरा नेशनल मीडिया खबरों से भरा होता, अवार्ड वापसी गैंग सक्रिय होता, लिबरल गैंग लोकतंत्र की दुहाई दे रहा होता और बॉलीवुड के चंद कलाकार भारतीय होने पर शर्मिंदगी का पोस्टर लेकर ट्वीट कर चुके होते। लेकिन ये तो ठहरा ममता बनर्जी का बंगाल, भला इसे लेकर ये सब कैसे होगा? इसलिए यहाँ पर मौन रहने का कार्यक्रम ही चलेगा।
इन सबके बीच बड़ा सवाल यही है कि तृणमूल राज में हिंसा का दौर कब ख़त्म होगा? कब कोई महिला अपनी बेटी, बेटा और पति नहीं खोएगी? बमुश्किल 2-3 दिन पहले कोलकाता में ममता बनर्जी ने उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था को लेकर प्रदर्शन किया था।
ये कितना हास्यास्पद है कि एक मुख्यमंत्री अपने खुद के राज में राजनीतिक हिंसा का सहारा अपने विरोधियों को डराने-धमकाने के लिए लेती हैं, पंचायत चुनावों में विरोधियों को नामांकन से रोकती हैं और दूसरे राज्य की क़ानून व्यवस्था को लेकर प्रदर्शन करने भी उतर पड़ती हैं।
ये वही ममता सरकार है जो चुनावी सभा के लिए विपक्षी नेता के हेलिकॉप्टर को उतरने की अनुमति भी नहीं देती है। तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद डेरेक ओब्रायन उत्तर प्रदेश में चुनावी पर्यटन करने जाते हैं, लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर! ये वही महाशय हैं, जिन्होंने संसद की रूल बुक को फाड़कर उपसभापति पर फेंका था। लेकिन ये सब कुछ भी न तो ममता बनर्जी को नजर आता है और न ही देश के लिबरल-सेकुलर गिरोह की ही इसपर आवाज सुनाई देती है।
बहरहाल, पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था जैसी कोई चीज आज के समय में बची नहीं है। जहाँ तक इन राजनीतिक हत्याओं की बात है तो पश्चिम बंगाल की जनता सब देख रही है कि कैसे एक चुनी हुई सरकार अपने विरोधियों को सहन नहीं कर पा रही है। इन हिंसाओं का सहारा लेना यह दर्शाता है कि ममता बनर्जी समेत पूरी तृणमूल कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में अपना अंत दिखाई पड़ने लगा है।
आज ऐसा प्रतीत होता है मानो तृणमूल कांग्रेस को वामदलों से हिंसा भेंट में मिली है। माँ, माटी और मानुष का दावा करने वाले आज तालिबान से प्रेरित दिखाई पड़ते हैं। जिस पश्चिम बंगाल में रवीन्द्र संगीत सुनाई पड़ता था, आज वहां बम धमाकों की गूंज सुनाई पड़ती है।
परन्तु, अगर ममता बनर्जी को ऐसा लगता है कि हिंसा के इस्तेमाल से वो बंगाल की जनता के दिलों में जगह बना सकती हैं, तो वे बहुत बड़े भ्रम में जी रही हैं। हिंसा का रास्ता ममता बनर्जी और बांग्लादेशी घुसपैठियों को रास आ सकता है, लेकिन जो बंगाल की जनता सोनार बांग्ला का स्वप्न पूरा होते देखना चाहती है, वो हिंसा को कभी सहन नहीं कर सकती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)