प्रियंका के सक्रिय राजनीति में प्रवेश को अलग-अलग प्रकार से देखा जा रहा है और देखा जाता रहेगा, लेकिन सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस की राजनीति का आदि-अंत सब नेहरू-गांधी खानदान तक ही सीमित है? गौरतलब है कि आजादी के बाद पं नेहरू से शुरू हुआ कांग्रेसी परिवारवाद का यह सिलसिला इंदिरा, राजीव, सोनिया, राहुल से होते हुए अब प्रियंका तक पहुंचा है।
आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को पार्टी का पूर्वी यूपी महासचिव एवं प्रभारी बनाने का ऐलान किया है। इसीके साथ अबतक पार्टी के चुनाव प्रचार में जब-तब नजर आती रहीं प्रियंका गांधी का सक्रिय राजनीति में आधिकारिक प्रवेश हो गया है। कहते हैं कि केंद्र की सरकार का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है। ऐसा कहे जाने का कारण है कि यूपी सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाला राज्य है, जिसमें से 73 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी ने पिछले चुनाव में जीत हासिल की थी। कांग्रेस बमुश्किल सोनिया-राहुल की रायबरेली और अमेठी की दो सीटें बचा पाई।
अबकी सोनिया गांधी ने चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान किया है, ऐसे में प्रियंका के राजनीति में आगमन के साथ ही सोनिया के बाद खाली होने वाली सीट रायबरेली से चुनाव में उतरने का कयास भी लगाया जाने लगा है। वहीं सोशल मीडिया पर वायरल पोस्टर में कांग्रेस कार्यकर्ता उनके फूलपुर से लड़ने की मांग करते नजर आ रहे हैं।
बहरहाल, प्रियंका के सक्रिय राजनीति में प्रवेश को अलग-अलग प्रकार से देखा जा रहा है और देखा जाता रहेगा, लेकिन सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस की राजनीति का आदि-अंत सब नेहरू-गांधी खानदान तक ही सीमित है? गौरतलब है कि आजादी के बाद पं नेहरू से शुरू हुआ कांग्रेसी परिवारवाद का यह सिलसिला इंदिरा, राजीव, सोनिया, राहुल से होते हुए अब प्रियंका तक पहुंचा है। यूँ तो प्रियंका को पार्टी में लाने की मांग कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा जब-तब उठाई जाती रही है, लेकिन अब अचानक उन्हें संगठन में लाया जाना यूँ ही नहीं है बल्कि इसके पीछे बड़े कारण हैं।
गौरतलब है कि गत दिनों कलकत्ता में संभावित महागठबंधन के दलों की महारैली का ममता बनर्जी द्वारा आयोजन किया गया। इसके जरिये ममता की कोशिश कहीं न कहीं खुद को प्रधानमन्त्री के रूप में पेश करने की थी। राहुल गांधी को भावी प्रधानमन्त्री के रूप में देख रही कांग्रेस को ये बात भला कैसे हजम हो सकती थी, सो इस महारैली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने खुद भाग नहीं लिया। अभिषेक मनु सिंधवी उनके प्रतिनिधि बनकर पहुंचे।
बसपा प्रमुख मायावती ने भी अपने प्रतिनिधि के रूप में सतीश चन्द्र मिश्रा को भेज अपनी मंशा स्पष्ट कर दी। इधर यूपी में भी पिछले दिनों सपा-बसपा ने गठबंधन का ऐलान किया जिसमें कांग्रेस के प्रति आलोचनात्मक रुख दिखाते हुए गठबंधन में शामिल होने की स्थिति में उसके लिए महज दो सीटें रायबरेली और अमेठी छोड़ने की बात कही गयी।
इस उपेक्षा के बाद कांग्रेस ने प्रदेश की सभी सीटों पर अकेले ही चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। जाहिर है कि तीन राज्यों की जीत के बाद लोकसभा चुनाव के गठबंधन के समीकरणों में कांग्रेस जैसा भाव मिलने की उम्मीद कर रही थी, वैसा भाव उसे मिल नहीं रहा। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि लोकसभा चुनाव में सब तरफ से उपेक्षित महसूस कर रही कांग्रेस ने प्रियंका के रूप में बड़ा दाँव चला है।
यूपी की सभी सीटों पर अपने दम पर लड़ने का ऐलान कर चुकी पार्टी ने प्रियंका को पूर्वांचल का प्रभार देकर बड़ा उलटफेर करने की कोशिश की है। कहा यह भी जा रहा कि प्रियंका को लाकर कांग्रेस ने एक तरह से राहुल गांधी की विफलता को स्वीकार लिया है। अब प्रियंका के आने से पार्टी के मंसूबे कितने पूरे होते हैं, ये तो भविष्य में पता चलेगा। लेकिन फिलहाल एक बात तो साफ़ है कि परिवारवाद के आरोपों को झेलते रहने के बावजूद कांग्रेस में परिवारवाद के नए अध्याय की शुरुआत हो गयी है। देखना होगा कि परिवारवादी राजनीति के इस रूप को जनता कैसे लेती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)