कांग्रेस की इस हालत कि उसे क्षेत्रीय दलों के बीच वोटकटवा पार्टी की भूमिका निभानी पड़ रही है, के लिए उसके भीतर मौजूद परिवारवादी राजनीति और नेताओं का अहंकारी चरित्र ही जिम्मेदार है। कांग्रेस यह माने बैठी रही और शायद आज भी है कि ये देश उसकी जागीर है और यहाँ सत्ता उसीके हाथ रहनी है। इस अहंकार में जनता और जनता के हित से दूर हो चुकी इस पार्टी की ये दुर्गति तो होनी ही थी। लोकतंत्र में जनता सबसे अधिक सम्माननीय होती है, वो अर्श पर भी पहुंचाती है और फर्श पर भी ले आती है। कांग्रेस को जनता ने उसकी सही जगह पर पहुंचा दिया है।
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच इन दिनों लगता है आँख-मिचौनी का खेल चल रहा है। उत्तर प्रदेश के महाभारत में समाजवादी और कांग्रेस पार्टी किसी ऐसे खेल में मशगूल हैं, जिसका बहन मायावती को अंदाज़ा भी नहीं। पिछले दिनों प्रियंका गाँधी ने कहा कि कांग्रेस जीतने के लिए नहीं वोट काटने के लिए चुनाव लड़ रही है। कहने को तो प्रियंका गाँधी को उत्तर प्रदेश इसलिए भेजा गया था कि वह कांग्रेस का नेतृत्व कर सकें और अपनी सरकार बनाने की कोशिश कर सकें। लेकिन अब यह पता चल गया है कि कांग्रेस महज एक “वोटकटुवा” पार्टी बनकर रह गई है।
प्रियंका वाड्रा ने खुद कहा है कि उनकी पार्टी वह वोट काटने का का काम करेगी। यानि नतीजे आने से पहले ही भूमिका तैयार कर ली गई है कि उनकी पार्टी में भूमिका पार्टी को जिताने की कम वोट काटने की कहीं ज्यादा है। कांग्रेस ख़ुशी ख़ुशी समाजवादियों के साथ मंच साझा कर रही है, लेकिन वहीं कांग्रेस पार्टी अपने उम्मीदवार बहुजन समाज पार्टी के खिलाफ भी उतार रही है।
ये बानगी देखिये, गाज़ियाबाद और मेरठ में कांग्रेस ने डॉली शर्मा और हरेन्द्र शर्मा को उतारा ताकि बीजेपी का नुकसान किया जा सके लेकिन वहीं बिजनौर और सहारनपुर में कांग्रेस ने बीएसपी से ही निकाले गए नसीमुद्दीन सिद्दीकी और इमरान मसूद को मैदान में उतार दिया ताकि बहुजन समाज पार्टी को हराया जा सके। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शायद इसी खबर की तरफ मायावती का ध्यान खींचा।
आगरा की कहानी भी बहुत रोचक थी, जहाँ कांग्रेस ने प्रीता हरित को मैदान में उतारा, जो दलित समुदाय के लिए काम करते हैं, इससे बीएसपी के उम्मीदवार को खतरा पैदा होगा। अगर सालों की रंजिश को भुलाकर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी साथ आये हैं तो उसमें कहीं न कहीं पारदर्शिता होनी चाहिए। खासकर इस हालत में कांग्रेस को भी डबल गेम से बचना चाहिए। बहन मायावती को इस खेल का अंदाज़ा लग गया है, इसलिए उन्होंने खुद एकता बनाए रखने की अपील की है। अगर अन्दर ही अन्दर कहीं आग नहीं है, तो धुआं कहाँ से उठ रहा है?
एक तरफ मायावती प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोये हुए बैठी हैं, दूसरी तरफ यह भीतरघात; ज़ाहिर है अन्दर ही अन्दर बहुत कुछ चल रहा है, जिसका अंदाज़ा मायावती को नहीं है। मायावती मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस खींचने का बयान दे चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में भी मायावती कांग्रेस से यूँ ही खफा नहीं हैं।
कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों की नज़र ही दलित वोट बैंक पर है, उन्हें मायावती की इस वक़्त सबसे ज्यादा ज़रुरत है।लेकिन एक बार अगर मतलब निकल गया तो इनकी चाल और चरित्र की गारंटी कौन लेगा? मगर इन सबके बीच आखिर यह तथ्य अब सामने आ चुका है कि देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत अब एक वोटकटुआ पार्टी जैसी बनकर रह गयी है।
कांग्रेस की इस हालत कि उसे क्षेत्रीय दलों के बीच वोटकटवा पार्टी की भूमिका निभानी पड़ रही है, के लिए उसके भीतर मौजूद परिवारवादी राजनीति और नेताओं का अहंकारी चरित्र ही जिम्मेदार है। कांग्रेस यह माने बैठी रही और शायद आज भी है कि ये देश उसकी जागीर है और यहाँ सत्ता उसीके हाथ रहनी है। इस अहंकार में जनता और जनता के हित से दूर हो चुकी इस पार्टी की ये दुर्गति तो होनी ही थी। लोकतंत्र में जनता सबसे अधिक सम्माननीय होती है, वो अर्श पर भी पहुंचाती है और फर्श पर भी ले आती है। कांग्रेस को जनता ने उसकी सही जगह पर पहुंचा दिया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)