प्रियंका अगर बनारस से प्रधानमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ लेती तो हार भले जातीं, लेकिन इससे कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार जरूर कर सकती थीं, मगर लड़ाई से ठीक पहले उम्मीद जगाकर पीछे चले जाने के फैसले से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में यह गलत सन्देश गया है कि वह खुद फैसला लेने में सक्षम नहीं हैं।
सोनिया गाँधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए 10 जनपथ के सामने आपने उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, तमिलनाडु और केरल के दूर देहात से आये हुए कांग्रेस कार्यकर्ताओं को हाथों में बैनर लिए खड़ा देखा होगा, जिनकी अक्सर मांग हुआ करती थी कि राहुल गाँधी को तत्काल पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाए।
यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहा जब तक राहुल गाँधी पार्टी के उपाध्यक्ष रहे फिर एक वो दिन भी आया जब राहुल गाँधी को पार्टी का निर्विरोध अध्यक्ष बना दिया गया। उपाध्यक्ष रहते हुए भी राहुल गाँधी की शक्तियों में कोई कमी नहीं थी और न ही उनके बगल में खड़े रहने वाले सिपहसालारों की समझ में, लेकिन पार्टी के हालात नहीं बदले।
राहुल गाँधी युवा हैं, इसलिए उम्मीद थी कि अबकी वह नए एजेंडे के साथ चुनावी मैदान में आएंगे, लेकिन उनकी युवा शक्ति चुनाव से पहले ही जवाब दे गई और आख़िरकार उन्हें अपनी बहन प्रियंका गाँधी वाड्रा को भी चुनाव अभियान में लाना पड़ा। देश की राजधानी दिल्ली में 28 मार्च को उन कांग्रेसियों का खूब जमावड़ा दिखाई दिया जो यह मांग कर रहे थे कि प्रियका गाँधी को अपनी मां की जगह रायबरेली से चुनावी मैदान से उतारा जाय।
तभी कांग्रेस के एक वर्ग के भीतर से यह आवाज़ सामने आई कि राय बरेली क्यों, बनारस क्यों नहीं? फिर कांग्रेस का एक धड़ा कहने लगा कि प्रियंका गाँधी तो कहीं से भी चुनाव लड़ सकती है। आखिर कांग्रेस के चाहने वालों की पुकार प्रियंका कब तक अनसुना करती, उन्हें कहना पड़ा कि वह चुनाव लड़ेंगी अगर राहुल गाँधी ऐसा चाहें तो! फिर बात उठने लगी कि प्रियंका बनारस से मोदी के खिलाफ लड़ेंगी।
25 तारीख की शाम तक यह संशय भी ख़त्म हो ही गया जब कांग्रेस की तरफ से यह खबर आई कि वह चुनाव नहीं लड़ेंगी। आखिरकार बनारस से अजय राय को पार्टी ने चुनाव मैदान में उतार दिया जो कि पिछली बार तीसरे स्थान पर रहते हुए जमानत जब्त करवा चुके हैं।
प्रियंका गाँधी के बनारस से चुनाव नहीं लड़ने के फैसले से उन कांग्रेस समर्थकों को निराशा मिली जो प्रियंका के मैदान में आने को लेकर जरूरत से ज्यादा उत्साहित हो गए थे। खबर यह भी थी कि कांग्रेस के आन्तरिक सर्वे में बनारस से प्रियंका के हार की सम्भावना जताई गई थी जिसके बाद कांग्रेस ने प्रियंका को बनारस से नहीं उतारने का फैसला किया। इसमें कोई दोराय नहीं कि प्रियंका यदि बनारस से उतरतीं तो उनकी हार लगभग तय थी।
प्रियंका को पहली बार सक्रिय राजनीति में इसलिए लाया गया कि पीएम मोदी के प्रभाव को कम किया जा सके लेकिन अभी तक पार्टी कैडर को ज़मीनी स्तर पर सक्रिय करने में वह नाकाम रही हैं। उत्तर प्रदेश में से खबर यह भी मिल रही है कि बहुत से जगहों पर पार्टी को सही उम्मीदवार भी नहीं मिल रहे हैं।
प्रियंका अगर बनारस से प्रधानमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ लेती तो हार भले होती, लेकिन इससे कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार ज़रूर होता लेकिन लड़ाई से ठीक पहले उम्मीद जगाकर पीछे चले जाने के फैसले से आम लोगों व कांग्रेस कार्यकर्ताओं में गलत सन्देश गया है कि वह खुद फैसला लेने में सक्षम नहीं हैं। बहरहाल, इतना तो तय है कि अब जो प्रियंका गांधी में इंदिरा का अक्स देखकर जी रहे हैं, उन्हें अगली बड़ी लड़ाई के लिए कई सालों का इन्तजार करना पड़ेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)