वास्तव में विपक्ष के पास विरोध के लिए कोई ठोस मुद्दे बचे ही नहीं हैं। कोरोना जैसी आपदा के समय में भी जिस तरह सरकार ने व्यवस्था को यथासंभव संभाले रखा है और जनता में सरकार के प्रति विश्वास बना रहा है, उससे विपक्ष बुरी तरह से बौखलाया हुआ है। इस बौखलाहट में ही वो कृषि सुधार कानूनों को लेकर दुष्प्रचार की राजनीति कर सरकार की छवि खराब करने का कुत्सित प्रयास कर रहा है।
पिछले दिनों लोकसभा और राज्यसभा में कृषि विधेयक पारित किए गए और अब राष्ट्रपति की मंजूरी के साथ ये क़ानून की शक्ल ले चुके हैं। इन कृषि सुधार कानूनों में किसानों को वे तमाम अधिकार, छूट एवं लाभ के अवसर दिए गए हैं जो इससे पहले आज तक कभी नहीं मिले थे। हालांकि यह आश्चर्य की बात है कि किसानों का हितैषी होने का दावा करने वाली कांग्रेस आदि पार्टियाँ संसद से सड़क तक इन कृषि सुधारों के विरोध में लामबंद हैं।
विपक्ष द्वारा इन नए कृषि कानूनों के विरुद्ध माहौल बनाना और भ्रम फैलाना आज से कुछ समय पूर्व नागरिकता क़ानून के समय की याद दिलाता है। तब भी विपक्ष ने इसी प्रकार का दुष्प्रचार कर देश का माहौल खराब किया था।
वास्तव में विपक्ष के पास विरोध के लिए कोई ठोस मुद्दे बचे ही नहीं हैं। कोरोना जैसी आपदा के समय में भी जिस तरह सरकार ने व्यवस्था को यथासंभव संभाले रखा है और जनता में विश्वास बना रहा है, उससे विपक्ष बुरी तरह से बौखलाया हुआ है। इस बौखलाहट में ही वो कृषि सुधार कानूनों को लेकर दुष्प्रचार की राजनीति कर सरकार की छवि खराब करने का कुत्सित प्रयास कर रहा है।
सच्चाई यह है कि यह क़ानून किसानों के हित में है लेकिन विपक्ष द्वारा उसे किसानों के लिए अहितकारी रूप में कुप्रचारित किया जाने लगा। सच यह है कि इसके आने के बाद अब किसान अपनी फसल कहीं भी अच्छे दामों पर बेच सकेंगे लेकिन बताया यह गया कि सरकार एमएसपी की व्यवस्था समाप्त करने जा रही है। जबकि इस दौरान सरकार ने देश भर के किसानों को बड़ी सौगात देते हुए गेहूं समेत अन्य फसलों पर एमएसपी में वृद्धि की घोषणा की है। केंद्रीय कैबिनेट के इस फैसले से देश के लाखों किसानों को फायदा होगा।
यह वास्तव में दुखद एवं चिंतनीय है कि कोरोना संकट में, जहां पूरे विश्व की आर्थिक चाल सुस्त पड़ गई है, ऐसे में यदि भारत सरकार बीड़ा उठाकर समाज के जिम्मेदार एवं अहम वर्ग किसानों के विकास के लिए कुछ बड़ी व्यवस्था तय करती है तो ऐसे में साथ देने की बजाय विपक्ष अपनी घटिया राजनीति में लगा है।
इस कृषि सुधार क़ानून के विरोध में गत शनिवार को ट्रेड यूनियंस ने तथाकथित भारत बंद का आह्वान किया जो कि मौजूदा संदर्भों में कहीं से कहीं तक प्रासंगिक नहीं है। जो लोग छोटी-मोटी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर भारत बंद कराने चले आए उन्हें यह सोचना चाहिये कि आजकल कितने सारे काम ऑनलाइन, डिजिटली होने लगे हैं।
इनकी बदौलत भरे लॉकडाउन में यह देश बंद नहीं हो पाया तो अब ये मुठ्ठी भर लोग अपने कुत्सित राजनीतिक एजेंडे को लेकर कैसे भारत बंद करा सकते हैं। लेकिन आखिर यह सब क्यों। उस बिल के विरोध में जो कि किसानों के पक्ष में पारित हुआ है।
एक समाचार चैनल के पत्रकार ने इन प्रदर्शनकारियों से पूछा कि आप यहां क्यों आए हैं और किस बात का विरोध कर रहे हैं तो इस पर कुछ प्रदर्शनकारी बगलें झांकने लगे, कुछ जवाब ना दे सके और कुछ ने कहा कि उन्हें कुछ नहीं पता, वे बस विरोध करने यहां आ गए हैं या बुलाए गए हैं।
इसी तरह जब एक प्रदर्शनकारी से फसलों पर बात की गई तो उसने बड़े आत्मविश्वास से कहा कि समर्थन मूल्य घटा दिया गया है इसलिए वे यहां विरोध करने आए हैं। अब यह बड़े मजे की बात है कि इस प्रदर्शनकारी को यह पता ही नहीं है कि समर्थन मूल्य घटा नहीं, बढ़ा दिया गया है। यानी इस विरोध का वास्तविकता से दूर-दूर तक संबंध नहीं है।
खैर, मौखिक विरोध तक तो बात ठीक थी लेकिन ज्यादती वहां हो गई जब पंजाब में नेशनल हाईवे बाधित कर दिया गया और सेना तक के वाहनों को रोक दिया गया। इससे लोगों को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इस दौरान ट्रेनें नहीं चलीं। हरियाणा में पंजाब के सीमावर्ती इलाकों में असर दिखा, लेकिन शेष हिस्से में हालात सामान्य रहे। कुछ जगह जबरन बाजार बंद कराए गए, जिससे लोगों को जरूरी सामान के लिए परेशानी उठानी पड़ी।
यह संतोष की बात है कि प्रशासन ने कई जिलों में पूरे विरोध प्रदर्शन की वीडियोग्राफी की व्यवस्था कर रखी थी। इसका लाभ आने वाले समय में मिलेगा जब इन तथाकथित आंदोलनकारियों को चिन्हित किया जा सकेगा और इनके माध्यम से उन राजनीतिक आकाओं का पता चल सकेगा जो विरोध की राजनीति को चमकाकर अपने पक्ष में माहौल को मोड़ने की बेजा कोशिशों में लगे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)