कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को दोषी ठहराने वाले अपने एक बयान के मामले में जिस तरह अदालत में यू-टर्न लिया और पुनः ट्वीट के जरिए अपने पुराने बयान पर टिके रहने की बात दोहराते हुए डबल यू-टर्न लिया है, यह उनके कमजोर व्यक्तित्व, सुझबुझ की कमी और राजनीतिक नादानी को ही निरुपित करता है। उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी ने 2014 में एक चुनावी जनसभा में गांधी जी की हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जिम्मेदार ठहराया था। इससे नाराज संघ के एक कार्यकर्ता ने उनके विरुद्ध अदालत में मानहानि का मुकदमा दर्ज करा दिया। जब राहुल गांधी ने इसे रद्द कराने के लिए उच्चतम न्यायालय की शरण ली तब उच्चतम न्यायालय ने उन्हें आड़े हाथों लेते हुए कहा कि वह या तो वह माफी मांगे या मानहानि के मुकदमें का सामना करने के लिए तैयार रहें। न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘आप किसी संगठन की सामुहिक रुप से निंदा नहीं कर सकते। आप बहुत आगे चले गए।’ न्यायालय की इस टिप्पणी के बाद जब राहुल गांधी को लगा कि वह इस मामले में फंस सकते हैं, तो वह अपने बयान से पलट गए। उन्होंने अपने हलफनामें में कहा है कि उन्होंने नहीं कहा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक संस्था के तौर पर महात्मा गांधी की हत्या की। अब जब उनके यू-टर्न पर खिंचाई शुरु हो गयी तो उन्होंने फिर ट्वीट किया कि वह अपने पुराने बयान पर कायम हैं। सवाल यह है कि आखिर राहुल गांधी कहना क्या चाहते हैं?
जहां तक महात्मा गांधी की हत्या का सवाल है तो हत्याकांड से जुड़े तमाम आयोग रिपोर्ट दे चुके हैं कि महात्मा गांधी के हत्यारे गोड़से का आरएसएस से कोई संबंध नहीं था। 1969 में गठित जीवन लाल कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहीं भी गांधी के हत्यारे गोड़से को आरएसएस का सदस्य नहीं कहा है। सच तो यह है कि आरएसएस अपने गठनकाल से ही एक राष्ट्रवादी सामाजिक संगठन है। वह आज भी अपने 40 हजार से अधिक शाखाओं के माध्यम से देश के प्रत्येक राज्य और प्रत्येक जिले में सामाजिक व सांस्कृतिक कार्य कर रहा है। राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी को गौर करना चाहिए कि 1962 के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु संघ की भूमिका से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को सन् 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया। सिर्फ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा राष्ट्रभक्त स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहां उपस्थित हो गए।
एक ओर अदालत में अपने बयान से मुकर रहे हैं तो दूसरी ओर यह साबित करने में जुटे हैं कि गांधी के हत्यारे गोडसे का आरएसएस से संबंध था। उचित होता कि राहुल गांधी और उनकी पार्टी कांग्रेस के पास अगर इस मामले में कोई साक्ष्य है तो वह अदालत के सामने पेश करते न कि ऐसे फिजूल का वितंडा मचाते। कहीं से उचित नहीं कि बगैर साक्ष्यों के आरएसएस को कठघरे में खड़ा करे। हालांकि गौर करें तो यह पहली बार नहीं है जब राहुल गांधी अपने ऊटपटांग बयान के मामले में तीखी आलोचना का सामना कर रहे हैं। याद होगा 2010 में विकीलीक्स वेबसाइट ने रहस्योदघाटन किया था कि उन्होंने अमेरिकी राजदूत से कहा था कि देश को इस्लामिक आतंकवाद से ज्यादा खतरा हिंदू कट्टरवाद से है। उस समय भी राहुल गांधी को फजीहत झेलनी पड़ी थी। इसी तरह 2013 में उन्होंने इंदौर की एक रैली में जुगाली की कि इंटेलिजेंस के एक अधिकारी ने उन्हें बताया की पाकिस्तान की खूफिया एजेंसी आइएसआइ मुज्जफरनगर दंगा पीड़ितों से संपर्क कर उन्हें आतंकवाद के लिए उकसाने की कोशिश कर रही है। मजे की बात यह कि उनके इस बयान के तत्काल बाद ही गृहमंत्रालय ने ऐसे किसी भी रिपोर्ट से इंकार कर दिया। तब भी राहुल गांधी की खूब फजीहत हुई। इसी तरह चुरु की एक रैली में उन्होंने कहा कि सांप्रदायिक तत्वों ने उनकी दादी को मारा, उनके पिता को मारा और अब शायद उन्हें भी मार सकते हैं। जबकि वे अच्छी तरह सुपरिचित हैं कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या आतंकियों ने की। इन बयानों से साफ है कि राहुल गांधी के पास सुझबुझ की कमी है और उनके मन में जो कुछ आता है, बिना सोछे-विचारे बोल देते हैं।
जहां तक महात्मा गांधी की हत्या का सवाल है तो हत्याकांड से जुड़े तमाम आयोग रिपोर्ट दे चुके हैं कि महात्मा गांधी के हत्यारे गोड़से का आरएसएस से कोई संबंध नहीं था। 1969 में गठित जीवन लाल कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहीं भी गांधी के हत्यारे गोड़से को आरएसएस का सदस्य नहीं कहा है। सच तो यह है कि आरएसएस अपने गठनकाल से ही एक राष्ट्रवादी सामाजिक संगठन है। वह आज भी अपने 40 हजार से अधिक शाखाओं के माध्यम से देश के प्रत्येक राज्य और प्रत्येक जिले में सामाजिक व सांस्कृतिक कार्य कर रहा है। राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी को गौर करना चाहिए कि 1962 के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु संघ की भूमिका से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को सन् 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया। सिर्फ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा राष्ट्रभक्त स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहां उपस्थित हो गए। महात्मा गांधी के नाम की माला जपने वाली कांग्रेस और गांधीवादी विचारधारा के नकली संवाहकों को ज्ञान होना चाहिए कि वे जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं उसके बारे में गांधी जी की सोच कितनी, व्यापक सकारात्मक और श्रद्धापूर्ण थी। भारत विभाजन के उपरांत दिल्ली के जिस मैदान में प्रतिदिन संघ की शाखा लगती थी वहीं शाम को गांधी जी की प्रार्थना सभा होती थी। उन दिनों दिल्ली समेत पूरे देश में दंगे हो रहे थे। गांधी जी ने 16 सितंबर, 1947 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों से मिलने की इच्छा व्यक्त की और स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘बरसों पहले मै वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थे। स्वर्गीय श्री जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गए थे और वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ था। तब से संघ काफी बढ़ गया है। मैं तो हमेशा से मानता आया हूं कि जो भी सेवा और आत्म-त्याग से प्रेरित है, उसकी ताकत बढ़ती ही है। संघ एक सुसंगठित एवं अनुशासित संस्था है। संघ के खिलाफ जो भी आरोप लगाए जाते हैं, उसमें कोई सच्चाई है या नहीं, यह मैं नहीं जानता। यह संघ का काम है कि वह अपने सुसंगत कामों से इन आरोपों को झूठा साबित कर दे।’
गौर करें तो इन 91 सालों में संघ अपने ऊपर लगने वाले हर आरोप को झूठा साबित करने में सफल रहा है। संघ के इतिहास और विचारधारा पर फब्तियां कसने वाले लोगों को जानना चाहिए कि संघ के संस्थापक डा. केबी हेडगेवार उन गिने-चुने क्रांतिकारियों में से एक थे, जिन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश शासन से भारत की मुक्ति के लिए संघर्ष किया। वे 1921 में कांग्रेस आंदोलन में भी शामिल हुए। 1920 में लोकमान्य तिलक के निधन के बाद तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं द्वारा राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा से तंग आकर 1925 में राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। आजादी के दौरान या बाद कभी भी कोई ऐसा पुख्ता सुबूत देखने को नहीं मिला, जिसको लेकर यह दावा किया जाए कि संघ का आचरण राष्ट्रहित के खिलाफ रहा है। हजारों बार साबित हो चुका है कि जिन बातों को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यप्रणाली पर संदेह जताया जाता है, वे राष्ट्रवाद और राष्ट्रचरित्र से जुड़े होते हैं। समाजवाद का ठेका उठा रखे छद्म समाजवादियों को ज्ञात होना चाहिए कि 1966 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कठिन परिश्रम और कार्यकुशलता के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भरपूर तारीफ की थी।
अक्सर वामपंथी और तथाकथित सेक्यूलर लेखकों द्वारा दुष्प्रचार किया जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अल्पसंख्यक समूहों के विरुद्ध है। जबकि यह पूर्णतया असत्य और निराधार बात है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य संपूर्ण समाज को संगठित कर हिंदू जीवन दर्शन के प्रकाश में समाज का सर्वांगीण विकास करना है। भारत में रहने वाले अल्पसंख्यक समूहों के बारे में संघ की सोच और समझ क्या है वह 30 जनवरी 1971 को प्रसिद्ध पत्रकार सैफुद्दीन जिलानी और गुरुजी से कोलकाता में हुए वार्तालाप, जिसका प्रकाशन 1972 में हुआ, से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। सच तो यह है कि कांग्रेस, तथाकथित सेक्यूलर दल और छद्म बुद्धिजीवियों का एक वर्ग एक साजिश के तहत संघ को अलाप्संख्यक विरोधी करार देता आ रहा है। यह वही गिरोह है जिसे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में लगने वाले देशविरोधी नारों से ऐतराज नहीं और वे भारत की बर्बादी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं। अगर ऐसे लोग देशभक्त संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गोड़से से संबंध जोड़ते हैं तो यह उनके राष्ट्रविरोधी धारणाओं को ही पुष्ट करता है। बहरहाल राहुल गांधी ने भी संघ पर अनर्गल आरोप लगाने की अपनी पार्टी की परंपरा का ही अनुसरण किया था और परिणाम भी वही हुआ, जो अबतक होता रहा है कि संघ फिर एकबार बेदाग़ निकला और आरोप लगाने वाले मुंह की खाए पड़े हैं।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)